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…पर सवाल तो जवाब तलाशते ही रहे
-विशेष प्रतिनिधि
दशकों से आंतरिक तथा बाहरी षडंत्रों के शिकार जम्मू-कश्मीर प्रदेश में शांति की तलाश जारी है। इसी दिशा में हाल ही में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने दिल्ली में एक गोलमेज बैठक बुलाई, जिसमें विभिन्न संगठनों के कुछ नेताओं सहित कई अलगाववादियों को भी आमंत्रित किया गया था। किन्तु अलगाववादियों द्वारा निमंत्रण ठुकरा दिए जाने से अनेक प्रश्न खड़े हो गए। कांफ्रेंस में उठाए गए मुद्दे भी राजनीतिक विश्लेषकों में चर्चा का विषय बन गए हैं।
प्रश्न यह उठाया जा रहा है कि बैठक बुलाने से पूर्व जिस प्राथमिक तैयारी की आवश्यकता थी वह नहीं की गई, क्योंकि देश का प्रधानमंत्री किसी नागरिक को निमंत्रण दे और वह उसे सीधा-सीधा ठुकरा दे, ऐसा नहीं हो सकता। इससे स्पष्ट है कि विद्रोही तत्व प्रधानमंत्री की परवाह नहीं करते। कई राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि ऐसे तत्वों का जीवन और रोजी-रोटी कहीं और जुड़ी हुई है, वे वही करेंगे जो “आदेश” उन्हें सीमापार से मिलेगा। पर्यवेक्षकों का मानना है कि अलगाववादियों के साथ किसी बातचीत से पूर्व उग्रवाद को बढ़ावा देने वालों को रास्ते पर लाने की आवश्यकता है। पाकिस्तान को समझ लेना चाहिए कि “मित्रता और हिंसा” एक साथ नहीं चल सकती। बैठक का प्राकृतिक रूप से एक पहलू यह रहा कि इसमें भाग लेने वाले जिन संगठनों ने अपनी-अपनी पार्टियों के दृष्टिकोण को तो उभारा ही, साथ ही यह भी कहा कि उनके सिद्धान्तों को ही अपनाकर राज्य में शांति लाई जा सकती है।
नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष उमर अब्दुल्ला ने अपना स्वायतत्ता का राग दोहराया और 1953 से पूर्व की स्थिति बहाल करने पर बल दिया अर्थात उन्होंने स्व. शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की भारत के साथ सीमित विलय की कल्पना ही दोहराई, जिसके आधार पर उनके साथियों ने उन्हें सत्ता से हटाकर कारागार में डाल दिया था। किन्तु भारत से दूरी रखने की इस दौड़ में राज्य की गठबंधन सरकार में शामिल पी.डी.पी. ने तो स्व-प्रशासन के उस सुझाव की वकालत शुरू कर दी जो पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ ने बड़ी होशियारी से प्रस्तुत की थी, हालांकि पी.डी.पी. ने इस कल्पना की पूरी व्याख्या नहीं की है।
पी.डी.पी. के इस सुझाव को लेकर भाजपा ने सत्ताधरी कांग्रेस को निशाना बनाते हुए कहा है कि जम्मू-कश्मीर की गठबंधन सरकार में कांग्रेस के साथ भागीदारी कर रही पी.डी.पी. पाकिस्तान के दृष्टिकोण की वकालत करने लगी है।
भाजपा के महासचिव तथा पूर्व केन्द्रीय कानून मंत्री श्री अरुण जेटली ने पी.डी.पी. द्वारा प्रधानमंत्री की उपस्थिति में स्वप्रशासन के मुद्दे को उठाने को एक गंभीर मामला बताते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर के आंतरिक प्रश्नों को अन्तरराष्ट्रीय समस्या का रूप देकर जटिल बनाया जा रहा है। श्री जेटली ने कहा कि संविधान की सीमाओं में राज्यों तथा केन्द्र के बीच अधिकारों का प्रश्न कोई नई बात नहीं है।
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने सम्मेलन के सम्पन्न होने पर इसे शांति की ओर एक कदम बताया। उन्होंने राज्य में मानवाधिकारों की रक्षा का वचन दोहराया। किन्तु विश्लेषकों का कहना है कि इन घोषणाओं में फिर से गोलमेज बैठक बुलाने के निर्णय को छोड़कर कुछ भी नया नहीं है।
कश्मीरी विस्थापितों के पुर्नवास का प्रश्न भी एक जटिल समस्या है। इस सम्बंध में सरकार का दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं है। एक ओर विस्थापितों के कश्मीर घाटी में पुनर्वसन के लिए 28 अरब रुपए की एक बड़ी योजना बनाई गई है जिसके अन्तर्गत बड़ी संख्या में आवासीय मकान बनाए जा रहे हैं, दूसरी ओर, विडम्बना है कि, इन्हीं लोगों के लिए जम्मू क्षेत्र में भी भिन्न-भिन्न स्थानों पर प्रधानमंत्री योजना के अन्तर्गत 70 करोड़ रुपए के खर्च से दो कमरों वाले मकान बनाए जा रहे हैं। सरकार क्या चाहती है, स्पष्ट नहीं है।
अगली गोलमेज बैठक श्रीनगर में बुलाने की घोषणा की गई है, किन्तु इसकी सफलता के लिए पुरानी त्रुटियों को ध्यान में रखने की आवश्यकता है।
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