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खोने को कुछ नहीं, पाने को सब कुछ

by
Dec 3, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Dec 2006 00:00:00

-सी. उदय भास्कर

उप निदेशक, रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान

अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश की भारत यात्रा के कई आयाम हैं और उसी संदर्भ में यह यात्रा महत्वपूर्ण है। जहां तक दक्षिण एशिया में अमरीका के हितों की बात है तो अमरीका ने 25 मार्च, 2005 के वक्तव्य में उस पर काफी रोशनी डाली थी। उसमें उन्होंने इस क्षेत्र के लिए तैयार नीतियों के नए खाके का जिक्र किया था। उस वक्तव्य की महत्वपूर्ण बात है अमरीका की सुरक्षा चुनौतियां, जिसमें उन्होंने आतंकवाद, बड़े पैमाने पर विध्वंस के हथियारों आदि की चर्चा की है। भारत के सामने मौजूदा चुनौतियों में उससे तालमेल दिखता है। दूसरे, अमरीका ने स्पष्ट किया है कि उनकी अर्थव्यवस्था और आधुनिक तकनीकी के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए भारत जैसे बड़े लोकतांत्रिक देश के साथ मजबूत रिश्ता कायम करना उनके लिए बहुत जरूरी है। जार्ज बुश के लिए भारत के लोकतांत्रिक चरित्र और बहुआयामी समाज का विशेष महत्व है। इसके अलावा भारत का बाजार, यहां की आर्थिक विकास दर अमरीका के हित के पहलू हैं। यानी साफतौर पर कह सकते हैं कि अमरीका के लिए भारत में राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक हित हैं और यही कारण है कि उसने भारत के साथ रिश्ता बनाने का निर्णय किया है।

कई विशेषज्ञों ने इस प्रकार की चिंताएं व्यक्त की हैं कि रिश्ता कायम करके अमरीका का एकमात्र मकसद भारत की राजनीति, अर्थव्यवस्था से जुड़ी नीतियों में दखल देना है। मुझे यह बात सही नहीं लगती। अमरीका एक शक्तिशाली देश जरूर है लेकिन भारत भी कोई छोटा देश नहीं है। अमरीका के साथ यूं भी दोस्ती करना आसान नहीं है। मगर यदि हमने शीतयुद्ध के समय पूर्ववर्ती सोवियत संघ के साथ संबंध बनाए थे तो यह तो साफ है कि बड़े देशों के साथ संबंध बनाने का तजुर्बा हमारे पास है। अत: अमरीका के साथ भी हम बेहतर रिश्ता जरूर बना सकते हैं। यह कहना कि भारत की राजनीति और नीतिगत फैसलों पर अमरीका का प्रभाव है, सही नहीं है। मुझे लगता है कि हमने चीजों का जरूरत से ज्यादा ही विश्लेषण कर लिया। विश्व में जितने भी बड़े देश हैं, अमरीका के साथ रिश्ता बनाना उनके हित में ही है। चीन को देख लीजिए, वह भी अमरीका से निकटता चाहता है, फिर हमें क्यों इतना हिचकना चाहिए? हमें यह क्यों सोचना चाहिए कि अमरीका से रिश्ता बनाया तो वह हम पर हावी हो जाएगा?

इस्लामी जिहाद पर काबू करना भी भारत की सुरक्षा चिंताओं में प्रमुख है। इस दृष्टि से हमें अमरीका की सहायता चाहिए। मैंने कई अवसरों पर कहा और लिखा है कि जिस प्रकार राष्ट्रपति बुश ने तालिबान को अफगानिस्तान से हटाया है, वह भारत के हित की बात है। दिसम्बर, 1999 के विमान अपहरण का वक्त याद कीजिए, जब हम कोई प्रतिक्रिया नहीं कर पाए थे। 2001 में अमरीका ने ही सैन्य कार्रवाई करके तालिबान को हटाया था वर्ना किसी अन्य से कोई आशा नहीं थी कि तालिबान को काबू कर पाता। साथ ही, अमरीका ने पाकिस्तानी हुकूमत को चेतावनी दी, जिस पर पाकिस्तान ने औपचारिक तौर पर कहा कि वे तालिबान से दूर होंगे। यह स्थिति भी भारत के हित में ही थी। ऐसा नहीं है कि अमरीका की कार्रवाइयां भारत के हित में नहीं हैं, लेकिन इनके साथ एक विडम्बना यह भी है कि अमरीका, पाकिस्तान के साथ जो भी व्यवहार कर रहा है उसमें उसका रणनीतिक दृष्टिकोण जुड़ा हुआ है। निश्चित ही यह भारत के हित में नहीं है, क्योंकि जब तक अमरीका पाकिस्तानी फौज को समर्थन देता रहेगा तब तक हमारे लिए समस्या बनी रहेगी। लेकिन हमें दृष्टि यह रखनी चाहिए कि एक-एक समस्या को लेकर आगे बढ़ा जाए न कि सभी समस्याओं को एक साथ सुलझा लेने की उतावली होनी चाहिए।

इस वक्त कूटनीतिक दृष्टि से भारत-अमरीका परमाणु संधि का मुद्दा सबसे महत्वपूर्ण है। अमरीका ने 30 साल तक भारत के साथ इस क्षेत्र में किसी तरह का व्यवहार नहीं रखा है। अगर वे इस समझौते के साथ भारत को विश्व के परमाणु ढांचे में शामिल करेंगे तो यह भारत के लिए बहुत बड़ा फायदा होगा। डा. अनिल काकोडकर सहित भारत के बड़े-बड़े वैज्ञानिकों के जहां तक इससे असहमति की बात है तो मुझे लगता है कि हमने डा. काकोडकर की बात का सही अर्थ समझा नहीं है। उन्होंने केवल इतना ही कहा कि 18 जुलाई को हुए समझौते की भावना के अनुसार ही अंतत: इसका क्रियान्वयन किया जाना चाहिए। सिद्धान्त तौर पर डा. काकोडकर भी इस संधि के समर्थक हैं।

इस बात की आशंकाएं भी बेबुनियाद हैं कि इस संधि के तहत अमरीका भारत के परमाणु रिएक्टरों पर निगरानी करेगा। निगरानी तो आई.ए.ई.ए. संस्था की होती है नियमन के संबंध में। अब यह तो भारतीय कूटनीति के कौशल पर ही निर्भर है कि हम किस प्रकार का प्रोटोकाल स्वीकार करते हैं। वैश्वीकरण के दौर में रिश्ते बनाने में इस प्रकार की हिचकिचाहट भारत को शोभा नहीं देती। हमारे पास कूटनीतिक कौशल है, अनुभव है, इसलिए हम बड़े देश के साथ अपने हितों को सुरक्षित रखते हुए दोस्ती कर सकते हैं।

इस बात को लेकर भी संशय पैदा किया गया है कि सैन्य और नागरिक परमाणु कार्यक्रमों को अलग करना देश के हित में नहीं होगा। मैं बताना चाहता हूं कि ऐसा करना किसी भी देश के लिए बहुत जरूरी है। क्योंकि अगर आप नागरिक परमाणु कार्यक्रम चलाना चाहते हैं तो इसे 1. सैन्य कार्यक्रम के अंग की तरह और 2. बिना किसी पारदर्शिता के नहीं चलाना चाहिए। मैं मानता हूं कि भारत का परमाणु ऊर्जा विभाग को इस बढ़ी पारदर्शिता का लाभ ही मिलेगा। आप अमरीका, जापान, फ्रंास आदि देशों को देख लीजिए, वे अपने नागरिक परमाणु रिएक्टरों को निजी क्षेत्र के उद्यम की तरह चलाते हैं। इसलिए यह कहना गलत है कि हम दोनों स्वरूपों को अलग नहीं कर सकते। भारत तो 60 साल से, हिरोशिमा विस्फोट से लेकर आज तक, निशस्त्रीकरण का समर्थन करता रहा है और यह हमारी प्राथमिकता पर रहना ही चाहिए। न्यूनतम प्रतिरोधक भी हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। वाजपेयी सरकार के काल से हम “पहले प्रयोग नहीं” के सिद्धान्त पर चल ही रहे हैं। इसमें से किसी भी विषय पर बदलाव नहीं होना चाहिए। भारत के भविष्य का हित परमाणु हथियार में नहीं हैं, परमाणु की ऊर्जा में हैं, प्रौद्योगिकी में हैं, इस सबके लिए अमरीका से रिश्ता बनाना जरूरी है। राष्ट्रपति बुश का कार्यकाल खत्म होने पर मान लें कि अगर व्हाइट हाउस में कोई डेमोक्रेट आ गया तो, यह मौका जो आज हमें मिल रहा है, आगे 20-30 साल तक नहीं मिलेगा।

हां, इस्लामी जिहाद की जहां तक बात है, पाकिस्तान हमारे लिए समस्या का केन्द्र रहेगा क्योंकि इस वक्त अमरीका अल कायदा को निशाने पर रखकर पाकिस्तानी फौज का साथ दे रहा है, पर जब हमारा अमरीका के साथ रिश्ता और गहरा होगा तभी हम इस समस्या पर गौर कर सकते हैं। (वार्ताधारित)

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