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श्रीगुरुजी कहते थेहिन्दी ही देश को अखण्ड रखेगी-कमल किशोर गोयनकाबीसवीं शताब्दी में जिन राष्ट्र-पुरुषों, मनीषियों एवं चिन्तकों ने भारत के समग्र विकास एवं उसे शक्ति-पुंज बनाने के लिए जो विचार-दर्शन दिये, उनमें महात्मा गांधी के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी का नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा है। आज हम श्रीगुरुजी की जन्म-शताब्दी के अवसर पर समझ सकते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक परम पूजनीय डा. केशव बलिराम हेडगेवार ने उन्हें क्यों अपने बाद सरसंघचालक बनाया। श्रीगुरुजी में देशभक्ति के जन्म से ही संस्कार थे। वे सेवा की अप्रतिम मूर्ति थे। उनके पास हिन्दू राष्ट्र, संस्कृति एवं परम्परा की पूर्ण संकल्पना थी तथा हिन्दू समाज की एकात्मता एवं संगठन तथा उसके समग्र विकास के लिए पूर्णत: तर्कसंगत विचार-दर्शन था। इस विचार दर्शन के अनुसार भारत हिन्दू राष्ट्र था और है तथा हिन्दू समाज की एकता ही इसकी अखंडता की रक्षा का एकमात्र आधार है। उनके राष्ट्र-दर्शन का आधार राष्ट्रीयता थी, राष्ट्र का हित-अहित था तथा इसके लिए विशाल हिन्दू समाज से राष्ट्रप्रेमी हिन्दू युवकों को संस्कारवान, कर्मशील, सेवावान एवं भारत माता के लिए समर्पित बनाने का महत् राष्ट्रीय कार्य था। इस कार्य के लिए उनकी पद्धति नियमित संघ-शाखा में जाने के साथ हिन्दू समाज को जागृत करने तथा पूरे राष्ट्र के साथ सामरस्य उत्पन्न करने की थी। इसके लिए वे वाणी और कर्म में एकता चाहते थे जिससे कार्य को सजीव रूप देकर जीवन की पद्धति को उचित दिशा में मोड़ा जा सके। श्रीगुरुजी ने कोझिकोड़ के प्रान्तीय शिविर में फरवरी, 1966 में कहा था, “हमारे कार्य में कोरी बातों का कोई स्थान नहीं। भाषणों में हमारी रुचि नहीं, लगातार बोलते रहने में हमारा विश्वास नहीं, शब्दों का जाल खड़े करना हमें भाता नहीं, फिर भी बोलना तो पड़ता ही है। पर हम निश्चयपूर्वक बोलते हैं और जो बोलते हैं, उसे अपने कार्य द्वारा सजीव रूप देते हैं। अपने कार्य द्वारा जीवन की पद्धति में मोड़ लाते हैं।”इस प्रकार श्रीगुरुजी का पूरा बल अपने कार्य एवं कार्य पद्धति पर रहा जिसके द्वारा वे व्यक्ति, समाज तथा पूरे राष्ट्र-जीवन को संस्कारित एवं प्रभावित करते रहे। राष्ट्र-जीवन का सम्पूर्ण क्षितिज उनके दृष्टि-पथ एवं विचार-पथ में है तथा वे स्थितियां एवं प्रसंग तो तत्काल उनका ध्यान आकर्षित करते हैं जो देश की हिन्दू चेतना तथा राष्ट्रीयता के लिए उपयोगी हैं तथा जो उसे आहत करने पर तुले हैं। श्रीगुरुजी के सम्मुख भाषा और साहित्य की स्थिति भी ऐसी ही है। देश में जब भी भाषा-समस्या उत्पन्न हुई तथा भाषा-आन्दोलन हुए तथा भाषावार प्रान्तों की स्थापना का प्रश्न उपस्थित हुआ तथा कुछ साहित्यिक कृतियों से उनका सामना हुआ तो निर्णय एवं मूल्यांकन की कसौटी यही रही कि राष्ट्र की एकता और अखंडता सर्वोपरि है एवं देश की संस्कृति तथा परम्परा पर कोई भी आघात एवं अपमान असहनीय है। श्रीगुरुजी ने माना कि वे न तो भाषाविद् हैं और न साहित्यकार, लेकिन इसके बावजूद वे साहित्य के अध्येता और सह्मदय पाठक थे तथा देश की भाषा-समस्या को उन्होंने गहराई से समझा था। जहां तक साहित्य का सम्बंध है, उनका अंग्रेजी, संस्कृत, हिन्दी, मराठी आदि भाषाओं के साहित्य से गहरा परिचय था। श्रीगुरुजी ने अपने वक्तव्यों में शेक्सपीयर के “मैकबेथ”, “जुलियर सीजर्स” तथा अमरीकी उपन्यास “अंकिल टाम्स केबिन” आदि की चर्चा की है। संस्कृत में वेद, उपनिषदों के साथ कालिदास के “रघुवंश” आदि कृतियों, संत कवियों में तुलसीदास, कबीरदास, मीरा, रामानन्द, चैतन्य महाप्रभु आदि, तथा मराठी कवि समर्थ रामदास आदि का वे कई बार उल्लेख करते हैं। बंगला साहित्यकारों में वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर, बंकिमचन्द्र तथा सुप्रसिद्ध नाटककार गिरिशचन्द्र घोष आदि की साहित्यिक प्रवृत्ति की चर्चा करते हैं। हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका “सरस्वती” तो वे नियमित पढ़ते थे और निराला की प्रसिद्ध कविता “वीणावादिनी वर दे” का भी उल्लेख करते हैं। श्रीगुरुजी ने संस्कृत, अंग्रेजी, हिन्दी तथा मराठी की कुछ पुस्तकों की समीक्षा तथा प्रस्तावना भी लिखी थी। श्यामनारायण पाण्डेय की काव्य-कृति “छत्रपति शिवाजी” की भूमिका उन्होंने ही लिखी थी और कवि की बड़ी प्रशंसा की थी। पं. दीनदयाल उपाध्याय की पुस्तक “पालिटिकल डायरी” का विमोचन तो उनके हाथों ही हुआ था। बंकिम के प्रसिद्ध गीत “वन्दे मातरम्” की प्रशंसा में उन्होंने कहा, “इसमें राष्ट्र जीवन की सच्ची भावना प्रकट हुई है।” परन्तु रामधारी सिंह “दिनकर” की पुस्तक “संस्कृति के चार अध्याय” की कुछ स्थापनाओं से असहमत होते हुए ऐसे विद्वानों की राज-भक्ति पर गहरी टिप्पणी की। श्रीगुरुजी का निष्कर्ष था कि पुस्तक में इतिहास में घटित हुए के साथ अघटित का भी वर्णन किया गया है तथा आर्य-द्रविड़ संघर्ष की कल्पना भी सत्य नहीं है। वे इसे “विचित्र इतिहास” कहते हैं तथा लिखते हैं कि वर्तमान नेताओं को ऐसा ही कुछ चाहिए, इसलिए ऐसे विद्वानों को मान-सम्मान भी खूब मिलता है। मान-सम्मान के लोभ में अच्छे-अच्छे लोग ऐसे काम करने को प्रवृत्त होते हैं।”श्रीगुरुजी के साहित्य-चिन्तन के ये ही कुछ बिन्दु हैं। यद्यपि इस साहित्यिक-दृष्टि में बहुत विस्तार नहीं है, किन्तु जो भी अंश हैं वे संस्कृत साहित्य की श्रेष्ठता एवं महत्ता की स्थापना करने के साथ यदा-कदा हिन्दी साहित्य का राष्ट्रीयता और भारतीयता की दृष्टि से मूल्यांकन भी करते हैं। साहित्य की अपेक्षा भाषा का प्रश्न श्रीगुरुजी को अधिक आकर्षित करता है, क्योंकि देश की भाषा-समस्या एवं भाषा-आन्दोलन एकता और अखंडता के लिए चुनौती बनते जा रहे थे। वे देश की अखंडता के लिए किसी भी आने वाले संकट पर तुरन्त अपना पक्ष रखते हैं और उसके लिए सबल तर्क देते हैं। यह सर्वविदित है कि हिन्दी को राष्ट्र भाषा बनाने, अंग्रेजी को बनाये रखने तथा भाषावार प्रान्तों की रचना आदि को लेकर देश के विभिन्न भागों में तीव्र आन्दोलन हुआ जिस पर श्रीगुरुजी ने गहरायी से विचार किया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भाषा-दर्शन प्रस्तुत किया। इस भाषा-दर्शन में संस्कृत भाषा पर उनके विचार राष्ट्रीय महत्व के हैं। वे मानते हैं कि संस्कृत देववाणी है, उसमें भारतीय जीवन के आधारभूत ज्ञान का मूल रूप विद्यमान है, वह भारत की आन्तरिक एकता को अभिव्यक्त करती है, वह सर्व प्राकृत भाषाओं की जननी एवं पोषणकर्ती है तथा उसका अध्ययन महान राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति करने वाला है। श्रीगुरुजी के अनुसार संस्कृत “सर्वोत्तम भाषा” है तथा राष्ट्रीय एकात्मता के लिए उसकी शिक्षा अनिवार्य है। प्राचीन समय में संस्कृत भाषा ही सार्वदेशिक व राजकीय व्यवहार की भाषा थी, परन्तु संस्कृत से प्राकृत तथा अन्य भाषाओं का जन्म हुआ तो संस्कृत की कन्या हिन्दी ने उसका स्थान ग्रहण किया। उन्होंने रोहतक के “हरियाणा प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन” में 2 मार्च, 1950 को अपने व्याख्यान में कहा था, “इस देश की सभी भाषाएं हमारी ही हैं, हमारे राष्ट्र की हैं। पूर्वकाल में जब हमारा देश स्वतंत्र था, तब यहां का सब व्यवहार संस्कृत में ही होता था। धीरे-धीरे संस्कृत की जगह प्राकृत ने ली तब उसी संस्कृत भाषा से प्रान्तीय भाषाओं के रूप में अनेक भाषाओं का उद्भव हुआ। सभी प्रान्तीय भाषाएं संस्कृत की कन्या होने के कारण सबमें परस्पर समानता है-सभी समान प्रेम और आदर की पात्र हैं। उनमें छोटे-बड़ेपन का सवाल ही पैदा नहीं होता।”श्रीगुरुजी का यह विचारांश महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने संस्कृत, हिन्दी तथा प्रान्तीय भाषाओं के उद्भव, विकास तथा उनकी महत्ता को रेखांकित कर दिया है। उन्होंने हिन्दी भाषा के अनेक गुणों का उल्लेख अपने कई व्याख्यानों में किया है। वे मानते हैं कि संस्कृत से जन्मी हिन्दी संस्कृत के बाद सार्वदेशिक भाषा है तथा उसे प्रखर स्वाभिमान की भावना को जागृत करने वाली जगह की सर्वश्रेष्ठ भाषा बनाना है। हिन्दी ही इस देश की राजभाषा या राज्यव्यवहार की भाषा बन सकती है क्योंकि वह देश में अधिकतर समझी जाती है और दक्षिण में भी वह थोड़ी मात्रा में समझी जाती है। अत: हिन्दी भाषा को हम सबको मिलकर व्यवहार-भाषा के रूप में समृद्ध करना चाहिए। श्रीगुरुजी मराठीभाषी थे लेकिन हिन्दी भी उन्हें अपनी मातृभाषा ही प्रतीत होती थी। उन्होंने दिल्ली में फरवरी, 1965 में कहा था, “हिन्दी को स्वीकार करने में कौन-सी कठिनाई है। मैं तो मराठीभाषी हूं, पर मुझे हिन्दी पराई भाषा नहीं लगती। हिन्दी मेरे अन्त:करण में उसी धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता का स्पन्दन उत्पन्न करती है, जिसका मेरी मातृभाषा मराठी के द्वारा होता है।” श्रीगुरुजी इस प्रकार मराठी और हिन्दी को समान प्रेम और आदर देते हैं, परन्तु वे हिन्दी को एकमात्र राष्ट्रीय भाषा मानने को तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं, “मैं मानता हूं कि अपनी सभी भाषाएं राष्ट्रीय हैं। वे हमारी राष्ट्रीय धरोहर हैं। हिन्दी भी उन्हीं में से एक है, परन्तु उसके बोलने वालों की संख्या अधिक होने से उसे राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है। यह दृष्टिकोण कि हिन्दी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा है और अन्य भाषाएं प्रान्तीय हैं, वास्तविकता के विपरीत और गलत है।” अत: वे सभी भाषाएं, जो हमारी संस्कृति के विचारों का वहन करती हैं, शत-प्रतिशत राष्ट्रीय हैं। इस प्रकार श्रीगुरुजी हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को राष्ट्रीय भाषाएं मानकर छोटी-बड़ी भाषा के अहंकार को समाप्त करके श्रेष्ठता के उन्माद एवं हीनता ग्रंथि को भी नष्ट करते हैं।श्रीगुरुजी हिन्दी तथा अन्य देशी भाषाओं को उनका उचित एवं संवैधानिक अधिकार देने के प्रबल समर्थक थे। इस कार्य में जो सबसे बड़ी बाधा है वह विदेशी भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व तथा अंग्रेजी-भक्त भारतीयों की पराधीन मानसिकता। स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी के वर्चस्व तथा एकाधिकार को देखकर श्रीगुरुजी व्यथित होकर कहते हैं कि समस्त भारत का पारस्परिक व्यवहार हेतु विदेशी भाषा पर निर्भर रहना लज्जास्पद है, राष्ट्राभिमान का अपमान है। यह स्थिति की दयनीयता है कि अंग्रेजी प्रमुख भाषा बन बैठी है और हमारी सब भाषाएं गौण बनी हैं। इसे बदलना होगा। यदि हम समझते हैं कि हम स्वतंत्र राष्ट्र हैं तो हमें अंग्रेजी के स्थान पर स्वभाषा लानी होगी। वे अंग्रेजी स्वीकार करने लेने के दुष्परिणामों का विवेचन करते हुए कहते हैं, “यदि हमने अंग्रेजी स्वीकार की तो अंग्रेजी बोलने वाले विदेशियों की जीवन-पद्धति हमारे ऊपर न चाहते हुए भी जबर्दस्ती थोपी जाएगी। हजारों वर्षों से हमारी संस्कृति अनेक झंझावातों को झेलते हुए अखंड रूप से चली आ रही है। उसका एकमेव कारण यही है कि हमने अपने स्वत्व को अभिव्यक्त करने वाली भाषाओं को कभी छोड़ा नहीं। हमने इस ज्ञान का कभी भी विस्मरण नहीं होने दिया कि सम्पूर्ण देश में एक ही धर्म और संस्कृति की परम्परा चल रही है। इसी कारण परकीय आक्रमणकारी हमारे राष्ट्र को नष्ट नहीं कर पाये, किन्तु यदि आज हमने अपने भारत की किसी भाषा को अपनाने के स्थान पर किसी विदेशी भाषा को ही शासन एवं जीवन का विकास सम्पूर्ण करने का अधिकार प्रदान किया तो उस भाषा के पीछे-पीछे परकीय विचार हमारे जीवन पर छा जाएंगे। इस प्रकार हम अपने सम्पूर्ण राष्ट्र जीवन का विनाश कर डालेंगे।” श्रीगुरुजी की यह आशंका सत्य ही थी। अंग्रेजी के नाम पर देश की युवा पीढ़ी भारतीय संस्कृति तथा जीवन पद्धति से कटती जा रही है। (जारी)भारत भवन (भोपाल) के न्यासी मण्डल में कमल किशोर गोयनका सम्मिलित5 अक्तूबर,2006 को भोपाल में भारत भवन के न्यासी मण्डल की बैठक सम्पन्न हुई। न्यासी मण्डल ने सर्वसम्मति से डा. कमल किशोर गोयनका (साहित्यकार), डा.स्वराज्य प्रकाश गुप्त (पुरावेत्ता), श्री बी.टी. कम्बोज (चित्रकार) तथा श्री नारायण कुरुप (मलयालम कवि) को छह वर्ष के लिए भारत भवन का न्यासी बनाया है। भारत भवन (भोपाल) एक अन्तरराष्ट्रीय ख्याति की संस्था है, जो साहित्य, कला संगीत, नृत्य आदि के लिए कार्यरत है। प्रतिनिधि13
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