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हमीरपुर में भारतीय इतिहास संकलन योजना समिति के परिसंवाद में इतिहासकारों ने कहा-

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Dec 11, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 11 Dec 2006 00:00:00

सिकंदर विश्वविजेता नहीं, जम्मू में हारा था

परिसंवाद के उद्घाटन सत्र को सम्बोधित करते हुए श्री कुप्.सी.सुदर्शन, साथ में हैं (बाएं से)

श्री केदारनाथ साहनी, महन्त सूर्यनाथ व श्री सुरेश सोनी।

ठा. रामसिंह, संरक्षक एवं मार्गदर्शक, इतिहास संकलन योजना समिति

यह एक ऐसी अविश्वसनीय प्रतीत होने वाली बात है, जिस पर शायद ही पहले कभी चर्चा हुई हो या विद्वान इतिहासकारों की मण्डली में इसका जिक्र भी हुआ हो। इसलिए जब कोई कहता है कि सिकंदर जम्मू में पोरस के हाथों पराजित हुआ था तो प्रथम दृष्टा ऐसी बात मजाक लगेगी या फिर इसे राष्ट्रवादियों की कपोल कल्पना कहकर निरस्त किया जाएगा। लेकिन विश्व के ऐतिहासिक सत्य ऐसे ही अविश्वास, शंकाओं और प्रश्नचिह्नों के दौर से गुजरे हैं तथा इतिहासकारों की पैनी, बहुधा प्रहारक कसौटियों पर खरे साबित होने के बाद ही स्वीकारे गए हैं। इस परिसंवाद में व्यक्त विचार भी पाठकों को आन्दोलित और प्रभावित करेंगे। सं.

-अजय श्रीवास्तव

भारतीय इतिहास संकलन योजना समिति, हिमाचल प्रदेश द्वारा गत 27 से 29 अक्तूबर तक तीन दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद आयोजित किया गया। हमीरपुर जिले के ग्राम नेरी स्थित ठाकुर जगदेव चंद स्मृति शोध संस्थान में आयोजित इस परिसंवाद में विद्वानों ने सिकंदर के बारे में कई चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किए। 27 अक्तूबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री कुप्.सी.सुदर्शन ने परिसंवाद का उद्घाटन किया। इस अवसर पर गोवा एवं सिक्किम के पूर्व राज्यपाल श्री केदारनाथ साहनी मुख्य अतिथि थे। उद्घाटन सत्र महंत योगी सूर्यनाथ की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ। सह सरकार्यवाह श्री सुरेश सोनी कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि थे। परिसंवाद में त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, पांडिचेरी और महाराष्ट्र समेत अनेक राज्यों से आए 40 विद्वानों ने शोध पत्र पढ़े।

श्री सुदर्शन ने अपने उद्घाटन वक्तव्य में कहा कि हमें पिछले डेढ़ सौ वर्ष से गलत इतिहास पढ़ाया जा रहा है। इसका उद्देश्य हिन्दू समाज को कमजोर, हीन और पराजित सिद्ध करके उसका मनोबल हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त कर देना है। आश्चर्य की बात तो यह है कि 1947 में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी यही सिलसिला चलता रहा जो अभी तक जारी है। उनका कहना था कि देश में पश्चिम की पिछलग्गू वामपंथी एवं कांग्रेसी विचारधारा के विपरीत राष्ट्रीय दृष्टिकोण भी विकसित होता रहा। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, शैक्षणिक और इतिहास के क्षेत्र में राष्ट्रवादी विद्वानों द्वारा अनेक शोध कार्य चल रहे हैं। इसी का परिणाम है कि अब सिकंदर की विश्व विजय और भारतीय राजा पोरस की हार का मिथक भी टूटने लगा है।

इतिहास संकलन योजना समिति के संरक्षक एवं मार्गदर्शक ठाकुर रामसिंह ने परिसंवाद के प्रथम तकनीकी सत्र में मुख्य भाषण दिया। उन्होंने कहा कि गोष्ठी का विषय तथाकथित विश्व विजेता सिकंदर महान का भारत पर आक्रमण और द्विगर्त प्रदेश (जम्मू) के चंद्रभागा क्षेत्र में उसका मारा जाना बहुत से लोगों को चौंका सकता है। उन्होंने कहा कि सिकंदर की मृत्यु के कई सौ वर्ष बाद भी यूनान में उस पर कोई पुस्तक नहीं लिखी गई। पश्चिमी इतिहासकारों ने बाद में काफी सोच-समझकर उसे “विश्वविजेता” और “महान” प्रचारित किया। ऐसा प्रभुत्व स्थापित करने की मानसिकता के कारण किया गया।

वरिष्ठ इतिहासवेत्ता ठाकुर रामसिंह का कहना था कि सिकंदर के आक्रमण का काल पाणिनि का काल था। पाणिनिकालीन भारतवर्ष के ग्रंथों और विशेषकर अष्टाध्यायी में स्पष्ट उल्लेख आता है कि द्विगर्त प्रदेश (जम्म्ू) में शतद्रु से लेकर रावी तक के भूभाग में संघ गणराज्य विद्यमान थे। त्रिगर्त क्षेत्र में छह गणराज्य थे। द्विगर्त के योद्धा डोगरा वंश के थे। ये अत्यंत पराक्रमी और युद्ध कौशल में निपुण थे। इन्हीं के हाथों सिकंदर मारा गया था। ठाकुर रामसिंह के अनुसार पोरस की 20 हजार की सेना ने सिकंदर की एक लाख चालीस हजार सिपाहियों की फौज को परास्त किया था। उन्होंने बताया कि डोगरा वंश के इतिहास में डोगरों की विजय और सिकंदर की पराजय का उल्लेख है।

अगरतला (त्रिपुरा) के डा. जगदीश गण चौधरी ने अपने शोध पत्र में उस प्रचलित कहानी पर चोट की कि सिकंदर ने पोरस को परास्त करने के बाद उससे पूछा कि तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाए तो पोरस ने उत्तर दिया कि जैसे एक राजा को दूसरे राजा के साथ करना चाहिए। सिकंदर इससे बहुत प्रभावित हुआ और उसने पोरस को क्षमा कर दिया। डा. गण चौधरी के अनुसार सिकंदर बहुत क्रूर था। उसने बैक्ट्रिया के राजा को हराने के बाद बहुत निर्दयता से उसकी हत्या कर दी थी। यही नहीं उसने अपने कई निकट सम्बंधियों को भी मार डाला था। इसलिए पोरस को क्षमा करने की कहानी सिकंदर के स्वभाव से मेल नहीं खाती। उन्होंने कहा कि सिकंदर के कमांडरों में आपसी लड़ाई थी। उसकी सेनाओं का मनोबल टूट चूका था। जब सेना ने आगे बढ़ने से ही इनकार कर दिया था तो सिकंदर की जीत कैसे संभव हो पाती।

कोलकाता के डा. बलराम चक्रवर्ती ने सिकंदर और भारतीय सेनाओं की व्यूह रचना, अस्त्र-शस्त्र और युद्धकौशल का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के प्रो. मित्तल ने सिकंदर के भारत पर आक्रमण के मार्ग, वहां के निवासियों द्वारा किए गए संघर्ष और पश्चिमी इतिहासकारों द्वारा फैलाई गईं भ्रांतियों पर गंभीर शोधपत्र प्रस्तुत किया। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय की डा. मल्लिका नड्डा का मत था कि द्विगर्त क्षेत्र में डोगरा योद्धाओं ने सिकंदर की सैनिक ताकत को काफी नुकसान पहुंचाया था। सिकंदर की सेना ने इसीलिए लड़ाई जारी रखने से इनकार कर दिया था। सिकंदर ने हारने के बाद पोरस से सैनिक संधि की थी। किन्नौर के डा. छेरिंग दोरजे के अनुसार खराब मौसम और उफनती नदियों ने भी सिकंदर की हार सुनिश्चित की थी। दिल्ली की विद्वान सुश्री चारू मित्तल का कहना था कि यूनानी इतिहासकारों के तथ्य विरोधाभासों से भरे पड़े हैं। गोष्ठी में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के डा. अरुण सिंह के अलावा जिन प्रमुख विद्वानों ने शोध पत्र पढ़े उनमें डा. मंगलदास डोगरा (जम्मू), डा. लक्ष्मीधर झा (होशियारपुर), श्री विवेक ज्योति (दिल्ली) और डा. विद्याचंद ठाकुर (शिमला) शामिल थे।

भारत पर सिकंदर के आक्रमण से जुड़े इस संवेदनशील विषय पर यह देश में अपनी तरह का पहला परिसंवाद था। विद्वानों की राय थी कि इस विषय पर चल रहे शोध कार्य को और गति दी जानी चाहिए ताकि अनेक रहस्यों पर से परदा उठ सके। नेरी गांव में नवनिर्मित शोध संस्थान इस कार्य में प्रमुख भूमिका निभा सकता है। इस परियोजना पर कुल पांच करोड़ रुपए खर्च आएगा। अभी तक भवन निर्माण पर पैंसठ लाख रुपए खर्च किए जा चुके हैं। श्री सुदर्शन ने संस्थान के “माधव भवन” का लोकार्पण भी किया।

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