|
भारतीय प्रज्ञा का कीर्तिगान
श्रीधर्मपाल जी नहीं रहे। एक तलस्पर्शी प्रतिभा का धनी हमारे बीच से उठ गया। उनका सबसे बड़ा योगदान यही रहा कि उन्होंने अपने प्रगाढ़ ज्ञान और अध्ययन द्वारा मैकाले प्रणीत शिक्षा प्रणाली से प्रज्ञाहत हुए हम समस्त लोगों की आंखें खोल दीं।
आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को पाश्चात्यों की ही देन मानकर जो उनका अंधानुकरण कर रहे थे और स्वराज्य प्राप्ति के बाद भी अभी तक उस मोह निद्रा से पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाए, उन्हें उन्होंने बताया कि 18वीं सदी में जब अंग्रेज यहां पर आए तब समाज जीवन के हर क्षेत्र में, फिर वह शिक्षा, विज्ञान, शिल्प, वाणिज्य, राज्यतंत्र आदि कोई भी क्यों न हो, हमारा देश उनके देश से कैसे कोसों आगे था और कैसे उन्होंने हमारी प्रणालियों से सीख लेकर अपने यहां की प्रणालियों को समृद्ध किया और हमारी प्रणालियों को नष्ट कर हमें कंगाल और परनिर्भर बना दिया। अपने देशवासियों के हीनताबोध को नष्ट कर अपनी संस्कृति और धरोहर के सम्बंध में स्वाभिमान जगाने वाला उनका काम राष्ट्र के नवोत्थान में सदैव स्मरणीय रहेगा।
संघ से उनका प्रेम था तथा एक बार तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग के समापन समारोह में मुख्य अतिथि बनकर भी वे आए थे। व्यक्तिगत रूप से मुझ पर उनकी बड़ी कृपा रही। उनके ग्रंथों की गुजराती में अनूदित पुस्तकों के लोकार्पण हेतु उन्होंने मुझे सम्मान प्रदान कराया था। उनकी स्मृति में मेरी ओर से विनम्र श्रद्धाञ्जलि अर्पित है।
31
टिप्पणियाँ