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मंथन

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Dec 11, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 11 Dec 2006 00:00:00

धर्मपाल

भारतीय आत्मबोध के मनीषी

देवेन्द्र स्वरूप

धर्मपाल जी का नाम आते ही मेरी आंखों के सामने मनीषीत्रय-रामस्वरूप (1920-1998), सीताराम गोयल (1921-2003) और धर्मपाल (1922-2006) सशरीर खड़े हो जाते हैं। तीनों ही समवयस्क, तीनों ही निष्ठा, कर्म और बौद्धिकता के अपूर्व संगम। तीनों की जीवन-प्रेरणा, चिन्तायें, जीवन दृष्टि और उसमें से उपजी बौद्धिक साधना लगभग एक समान। तीनों ने एक साथ काम किया, एक साथ सोचा, एक दूसरे को शक्ति दी। मैंने सीताराम जी के माध्यम से ही रामस्वरूप जी और धर्मपाल जी को जाना। सीताराम जी ने ही इन दोनों को सर्वप्रथम प्रकाशित किया। मेरी दृष्टि में ये तीनों भारत की प्राचीन ऋषि परम्परा के आधुनिक युग में प्रतिनिधि बनकर आये और अब 24 अक्तूबर की रात्रि में गांधी जी की तपस्थली सेवाग्राम में धर्मपाल जी के भौतिक शरीर के अवसान के साथ यह ऋषि मंडली सशरीर भले ही हमारे सामने नहीं होगी, किन्तु उसकी कर्म साधना और बौद्धिक तपस्या की बहुमूल्य विरासत हमें सदैव प्रेरणा व मार्गदर्शन देती रहेगी।

मीरा बहन और धर्मपाल

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर जिले के प्राचीन कस्बे कांधला में एक सम्पन्न जमींदार वैश्य परिवार में 1922 में जन्मे धर्मपाल जी की 84 वर्ष लम्बी जीवन यात्रा महान, सशक्त, स्वावलम्बी और नैतिक भारत की पुनर्रचना के लिए छटपटाती तपस्यारत आत्मा की दिव्य गाथा है। यह छटपटाहट ही उन्हें केवल 20 वर्ष की आयु में 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में खींच लायी, जेल यात्रा और दिल्ली से निष्कासन का सरकारी बंधन उन्हें 1944 में गांधी जी की अंग्रेज शिष्या मीरा बहन के सम्पर्क में ले आया। गांधी जी की प्रेरणा से मीरा बहन उस समय कृषि और गोपालन के प्रत्यक्ष प्रयोग में जुटने को व्याकुल थीं। उन्होंने रूड़की और हरिद्वार के बीच बहादराबाद (ज्वालापुर) में किसान आश्रम का प्रयोग शुरू करने का निर्णय लिया। इस प्रयोग के प्रारंभ से ही उन्हें धर्मपाल जैसा सहयोगी मिला। 1960 में प्रकाशित अपनी आत्म कथा “दि स्पिरिट्स पिलग्रिमेज” में वे लिखती हैं- “अब तक दो कार्यकर्ता मेरे साथ हो गए थे- एक तो बुद्धिशाली युवा धर्मपाल था, जिसे ग्रामीण विकास के बारे में रुचि थी और दूसरा एक वैद्य था।” मीरा बहन ने सगर्व गांधी जी को अपनी इस उपलब्धि की सूचना दी और गांधी जी ने 27 जून, 1945 को उत्तर दिया, “अच्छा हुआ तुम्हें दो साथी मिल गए।” 1944 से 1949 तक धर्मपाल मीरा बहन के अनन्य सहयोगी की तरह उनके साथ रहे। वह चाहे किसान आश्रम का प्रयोग हो या पशु लोक का, वह चाहे उत्तर प्रदेश सरकार के अधिक अन्न उपजाओ अभियान, या ग्राम विकास विभाग में मीरा बहन के अवैतनिक सलाहकार बनने पर उनके निजी सचिव का दायित्व हो, धर्मपाल पर वे पूरी तरह निर्भर रहीं। जून 1947 में मीरा बहन की कठिन उत्तरकाशी यात्रा में धर्मपाल उनके साथ थे तो वहां से लौटने के बाद स्वाधीन भारत में विभाजन की विभीषिका से जूझते हुए भी सितम्बर, 1947 में धर्मपाल पर विश्वास करके मीरा बहन ने उन्हें अपने किसान आश्रम से जुड़े ग्रामों में सांप्रदायिक सद्भाव का वातावरण पैदा करने के लिए भेजा। उनकी बुद्धिमत्ता और ग्राम विकास के प्रति गहरी निष्ठा से प्रभावित होकर एक बार मीरा बहन ने उन्हें गांधी जी के साथ जोड़ने का मन बनाया। पर गांधी जी ने 15 जून, 1947 के पत्र में लिखा, “अभी तो मैं धर्मपाल का ख्याल नहीं कर सकता। मेरे साथ जो हैं, वे ही बहुत अधिक हैं। मैं चाहता तो हूं अकेले रहना, परंतु मैं जानता हूं कि रह नहीं सकता।”

1949 में मीरा बहन ने उन्हें इस्रायल के ग्राम-विकास के किबुन्ज प्रयोग का अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड के रास्ते वहां भेजा। इंग्लैंड में उनकी एक सामाजिक कार्यकत्र्री फिलिस से भेंट हुई जो उनकी जीवन संगिनी बनी। मीरा बहन ने “आत्मकथा” में लिखा, “मेरे साथी कार्यकर्ताओं के जीवन में हाल में ही परिवर्तन हुए थे। धर्मपाल इंग्लैंड से लौट आया। वहां उसने एक अंग्रेज लड़की से शादी कर ली थी और लौटकर अपना अलग मार्ग अपना लिया था। कृष्णामूर्ति गांधी स्मारक निधि के कर्मचारियों में भरती हो गया था। अब मुझे सचिव और टाइपिस्ट दोनों की जरूरत नहीं थी, क्योंकि सरकारी काम नहीं रहा था। एक ऐसे आदमी की तलाश थी जो सचिव, टाइपिस्ट और सर्व कार्यकुशल सहायक, तीनों का काम कर सके। … एक दिन धर्मपाल एक युवक को लेकर आया और बोला, “ये मित्र आपके लिए उपयोगी सिद्ध होंगे।” वह जगदीश नामक कम बोलने वाला गंभीर मित्र ही मीरा बहन के भारत छोड़ने तक उनका सहकारी रहा। और इस प्रकार धर्मपाल से मीरा बहन का आत्मीय सम्बंध 1982 में वियना में उनकी मृत्यु तक बना रहा।

किन्तु अब विवाहित धर्मपाल को मीरा बहन से अलग अपने परिवार के भरण पोषण की व्यवस्था करनी थी। 1950 में वे कानपुर में अपने माता पिता के पास रहे। वहां उन्हें डेविड नामक पुत्र प्राप्त हुआ जो आजकल इंग्लैंड में है। इस बीच फिलिस ने मसूरी के एक विद्यालय में शिक्षिका का काम ढूंढ लिया। धर्मपाल उनके साथ मसूरी आ गए। वहां 1952 में उनकी पुत्री गीता का जन्म हुआ, जो आजकल जर्मनी के हाईडेलबर्ग विश्वविद्यालय में अर्वाचीन इतिहास की प्रोफेसर हैं। तीसरी पुत्री कोजी का जन्म बाद में हुआ।

1957 में धर्मपाल परिवार लेकर दिल्ली आ गए। वहां 1958 में ग्राम विकास की स्वयंसेवी संस्थाओं के संघ (अवार्ड) की स्थापना के साथ साथ हम धर्मपाल जी को उसके महासचिव का दायित्व वहन करते पाते हैं। यह दायित्व उन्होंने 1964 तक संभाला। इसी कालखंड में अप्रैल, 1962 में “अवार्ड” ने उनके पहले शोध प्रबन्ध, “पंचायत राज ऐज दि बेसिस आफ इंडियन पालिटी : एन एक्सप्लोरेशन इनटू दि प्रोसीडिंग्स आफ दि कांस्टीट्वेंट असेम्बली” (भारतीय समाज रचना का आधार पंचायतीराज: संविधान सभा की चर्चाओं का अध्ययन) को प्रकाशित किया, जिससे धर्मपाल की शोधक बौद्धिक प्रतिभा प्रकाश में आयी। इस समय तक जयप्रकाश नारायण सक्रिय राजनीति से अलग होकर ग्राम विकास के कार्य में पूरे मनोयोग से कूद पड़े थे। 1963 में वे अवार्ड के अध्यक्ष बने। उन्होंने अ.भा. पंचायत परिषद का अध्यक्ष पद भी संभाला। जिसमें सीताराम गोयल को महासचिव और धर्मपाल को शोध व अध्ययन विभाग का निदेशक भार सौंपा, जिसे उन्होंने 1963-65 में संभाला। इस प्रकार दिल्ली में जयप्रकाश जी के साथ लक्ष्मीचंद जैन, धर्मपाल, रामस्वरूप, सीताराम गोयल आदि बौद्धिकों की टीम खड़ी हो गई।

उनकी बौद्धिक यात्रा

इसी कालखंड में धर्मपाल जी मद्रास प्रांत में पंचायत राज व्यवस्था का अध्ययन करने गए। तब तमिलनाडु राज्य अभिलेखागार में पहली बार उनकी दृष्टि भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के पूर्व से विद्यमान पंचायत-व्यवस्था से सम्बंधित दस्तावेजों पर पड़ी। इससे आगे की बौद्धिक यात्रा की कहानी धर्मपाल के ही शब्दों में पढ़ना अच्छा होगा। धर्मपाल लिखते हैं, “तमिलनाडु राज्य अभिलेखागार में हमारे अतीत की एक हल्की सी झलक मुझे 1966 में ब्रिटेन खींच ले गई, ताकि मैं ब्रिटेन और भारत के सम्पर्क के प्रारंभिक चरण में भारतीय समाज की वस्तुस्थिति पर प्रकाश डालने वाली सामग्री का अध्ययन कर सकूं। तबसे इन अनेक वर्षों में मैंने ब्रिटेन में ऐसे 30-35 छोटे-बड़े अभिलेखागारों के चक्कर लगाये जहां भारत के लिए प्रासंगिक दस्तावेज उपलब्ध हो सकते थे। जिन बड़े अभिलेखागारों में मैंने काम किया, वे लंदन या एडिनबरा (स्काटलैंड) या आक्सफोर्ड में स्थित थे। 1980 के बाद मैंने तमिलनाडु राज्य अभिलेखागार में पुन: दस्तावेजों का अध्ययन किया। इसके पूर्व 1971 में मैंने कलकत्ता जाकर बंगाल राज्य अभिलेखागार में दस्तावेजों की खोज की, 1970 में लखनऊ और इलाहाबाद में स्थित उत्तर प्रदेश राज्य अभिलेखागारों तथा 1970 में बम्बई राज्य अभिलेखागार में अध्ययन किया। मैंने दिल्ली स्थित राष्ट्रीय अभिलेखागार में, विशेषकर 1780-1930 के कालखंड में, पूरे भारत में प्रचलित जबरन मजदूरी और बलात भरती प्रणाली से सम्बंधित दस्तावेजों का अध्ययन किया। साथ ही, 1880 और 1890 के दशकों में ब्रिटिशों द्वारा बड़े पैमाने पर गो मांस के भक्षण हेतु गोवंश की हत्या के विरुद्ध गोवध विरोधी जन आंदोलन से सम्बंधित दस्तावेजों की खोज की। इन प्रयत्नों के फलस्वरूप जो विपुल सामग्री एकत्र हुई वह विभिन्न कालखण्डों में अनेक पहलुओं पर प्रकाश डालती है। किन्तु इस अध्ययन से भारतीय जीवन और व्यवस्था के बारे में मुझे नई दृष्टि मिली। मुझे बोध हुआ कि प्राकृतिक साधनों, कृषि और उद्योग के क्षेत्र में जो प्रणालियां व तंत्र हजारों साल में विकसित हुए थे, कैसे उन्हें उपेक्षा और दुरावस्था के गर्त में धकेला गया। भारत की ज्ञान परम्परा के तन्त्र को उजाड़ा गया, मृत करने की कोशिश हुई। उसको संस्थात्मक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में खण्डित किया गया। भारत के निवासियों, पशुओं व वनस्पति सम्पदा को क्रूर व्यवहार से व पोषण-रस से वंचित करके इतना दुर्बल बना दिया गया कि उन्हें पूरा बल पाने में कई पीढ़ियां लग जाएंगी।”

धर्मपाल जी ने पाया कि ब्रिटिश सत्ता की स्थापना से 250 वर्षों का इतिहास भारत की बर्बादी का इतिहास है। और भारत को आत्मबोध कराने के लिए ब्रिटिश सत्ता की स्थापना के प्रारंभिक चरण में कृषि, उद्योग, शिक्षा, ग्राम-पंचायत, विज्ञान व तकनालाजी आदि विविध क्षेत्रों में भारत की परंपरागत व्यवस्थाओं एवं ज्ञान निधि का भारतीयों को दर्शन कराना नितांन्त आवश्यक है। और यह स्वयं ब्रिटिश एवं अन्य यूरोपियों के द्वारा उन भारतीय संस्थाओं, व्यवस्थाओं एवं ज्ञान-विज्ञान के प्रथम साक्षात्कार पर आधारित समकालीन दस्तोवजों को प्रकाशित करके ही संभव है। यही उनके द्वारा प्रकाशित विभिन्न ग्रंथों के पीछे विद्यमान मूल प्रेरणा एवं दृष्टि है।

यहां यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि धर्मपाल जी ने अपनी बुद्धि और शक्ति सैकड़ों साल की मुस्लिम दासता के अंत और ब्रिटिश दासता के प्रारंभ के संक्रमणकाल के अध्ययन पर ही क्यों लगाई, क्यों नहीं भारत के प्राचीन विशाल वाङ्मय का आलोडन किया? हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि सैकड़ों सालों का मुस्लिम शासन काल भारत की सभ्यता और संस्कृति में कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं कर पाया था। शिक्षा, कृषि, उद्योग, ग्राम पंचायत आदि सभी क्षेत्रों में भारत की परंपरागत रचनाएं अभी भी अक्षुण्ण थीं, भले ही कालक्रम से वे कुंठित और जड़ हो गई हों। यह इतिहास का महत्वपूर्ण संयोग है कि भारत में ब्रिटिश राज्य की स्थापना और विस्तार यूरोप में तकनालाजी क्रांति में से उपजे आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के जन्म व विस्तार के साथ-साथ हुआ। अत: ब्रिटिश शासकों को इस नई औद्योगिक क्रांति में से जन्मी शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं को भारत में आरोपित करने का अवसर मिल गया। निस्संदेह, 1757 से 1947 तक 190 वर्ष लम्बे ब्रिटिश शासन काल में भारत में जो सभ्यतापरक गुणात्मक परिवर्तन आया वह उसके पूर्व 1000 वर्ष के मुस्लिम शासन काल में नहीं हुआ था। इसके साथ ही यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि अट्ठारहवीं शती के अंत तक सभ्यता के क्षेत्र में भारत यूरोप से आगे था और उस समय तक यूरोपीय यात्री व विद्वान भारतीय सभ्यता की महानता से प्रभावित थे। भारत के प्रति उनका दृष्टि परिवर्तन उन्नीसवीं शताब्दी से आरंभ हुआ। इसलिए 18वीं शताब्दी के अंत तक भारत के बारे में यूरोपीय लेखन पूर्वाग्रह मुक्त लगता है।

भारत समर्पित लेखन

धर्मपाल जी के सम्पूर्ण लेखन को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग में उन रचनाओं को रखा जा सकता है जिनमें उन्होंने यूरोपीय आंखों से भारत की परंपरागत ज्ञान निधि व संरचनाओं के चित्र प्रस्तुत किए हैं। जैसे 1971 में प्रकाशित सिविल डिस-ओबीडियेन्स इन इंडियन ट्रेडीशन: विद् सम अर्ली नाईन्टीन्थ सेन्चुरी डाक्युमेंट्स (भारतीय परंपरा में नागरिक अवज्ञा : उन्नीसवीं शती पूर्वार्ध के दस्तावेजों के आलोक में)। उसी वर्ष प्रकाशित “इंडियन साइंस एण्ड टैक्नालाजी इन दि एटीन्थ सेन्चुरी: सम कन्टम्पोरेरी एकाउन्टस” (अट्ठारहवीं शती में भारतीय विज्ञान एवं प्रोद्यौगिकी: कुछ समकालीन यूरोपीय वर्णन), अक्तूबर, 1972 में प्रकाशित “दि मद्रास पंचायत सिस्टम: ए जनरल एसेसमेंट” (मद्रास पंचायत व्यवस्था: एक मूल्यांकन), 1983 में प्रकाशित “दि ब्यूटीफुल ट्री: इन्डिजिनस इंडियन एजुकेशन सिस्टम इन दि एटीन्थ सेन्चुरी” (सुन्दर वृक्ष: अट्ठारहवीं शताब्दी में स्वदेशी भारतीय शिक्षा प्रणाली) तथा 1988 में पुणे से प्रकाशित “सम आस्पेक्टस आफ अर्लियर इंडियन सोसायटी एण्ड पालिटी एण्ड देयर रेलेवेंस टू दि प्रेजेन्ट” और उसी वर्ष कलकत्ता से हिन्दी में प्रकाशित “अंग्रेजों से पहले का भारत” जैसी पुस्तकों में धर्मपाल जी ने भारत की स्वदेशी जीवन प्रणाली और संस्थाओं से सम्बंधित दस्तावेजों को विषयानुसार संकलित किया है। प्रत्येक संकलन के आरंभ में उनके द्वारा लिखित लम्बी विश्लेषणात्मक भूमिकाएं उनके अपने चिंतन को प्रस्तुत करती हैं।

दूसरे वर्ग में 1999 में गोवा से प्रकाशित “डेस्पोलियेशन एण्ड डिफेमिंग आफ इंडिया: दि अर्ली नाईन्टीन्थ सेन्चुरी इंग्लिश क्रूसेड” (भारत की लूट और बदनामी: उन्नीसवी सदी के आरंभ में इंग्लिश धर्मयुद्ध) तथा जुलाई 2002 में मसूरी से प्रकाशित “दि ब्रिटिश ओरिजिन आफ काउ-स्लाटर इन इंडिया : विद् सम ब्रिटिश डाक्यूमेंट्स आन दि एन्टी काउ-किलिंग मूवमेंट 1880-1894) (भारत में गोहत्या का ब्रिटिश मूल: 1880-1894 के गोवंश हत्या विरोधी आंदोलन पर ब्रिटिश दस्तावेजों के साथ) में धर्मपाल जी ने भारत की आस्थाओं को नष्ट करने के ब्रिटिश कुचक्र को उन्हीं के दस्तावेजों से नंगा किया है। तीसरे वर्ग में हम उनकी भारतीय चित्त, मानस और काल (हिन्दी व अंग्रेजी) तथा भारत का स्वधर्म, इतिहास, वर्तमान और भविष्य का सन्दर्भ जैसी पुस्तिकाओं को रख सकते हैं, जिनमें उनके लम्बे गहन अध्ययन पर आधारित उनकी भविष्य-दृष्टि का दर्शन होता है।”

धर्मपाल जी निरे बौद्धिक प्राणी नहीं थे। उनकी आंखों में भारत की महानता का सपना तैर रहा था। वे वर्तमान को अतीत के आलोक में समझ कर भविष्य की दिशाएं खोज रहे थे। वे मन, वचन, कर्म से भारत के लिए समर्पित थे। वे प्रत्येक समकालीन घटना को अतीत के आलोक में और भविष्य के सन्दर्भ में देखते थे। इसलिए 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी ढांचे के ध्वंस को उन्होंने नोबुल पुरस्कार विजेता वी.एस. नायपाल और वयोवृद्ध बौद्धिक नीरद चौधरी की पंक्ति में खड़े होकर भारत के नवोन्मेष का सूचक माना। 2004 में विदेशी मूल की सोनिया के प्रधानमंत्री बनने की संभावना के विरुद्ध प्रबल जनान्दोलन में वे गोविंदाचार्य के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े हुए। स्वाभाविक ही, धर्मपाल जी की भारतनिष्ठ बौद्धिक साधना ने सभी राष्ट्रभक्तों को उनकी ओर आकर्षित किया, उनका मार्गदर्शन पाने की कोशिश की। इसी प्रयास में हमने उन्हें कई बार दीनदयाल शोध संस्थान में अपने विचार देने के लिए आमंत्रित किया और वे आये। एक दो बार गांधी शांति प्रतिष्ठान में मित्रवर राजीव वोरा जी के घर पर उनसे लम्बी वार्ताएं कीं। उनकी विद्वता से प्रभावित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उन्हें अपने सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम अर्थात् नागपुर के विजयादशमी उत्सव में मुख्य अतिथि बनाकर सम्मानित किया था। मुझे स्मरण है कि 1998 में जब भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् (आई.सी.एच.आर.) की प्रबंध परिषद् में उनका नामांकन करने का सुझाव आया तो किसी ने कहा कि वे विद्वान तो हैं पर विश्वविद्यालय तन्त्र का हिस्सा नहीं हैं, तो क्या विश्वविद्यालयी विद्वान उनके नामांकन का स्वागत करेंगे? तब तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री डा. मुरली मनोहर जोशी का दो टूक उत्तर था कि इसीलिए उनका इस परिषद में आना आवश्यक है ताकि अहंकार में डूबे विश्वविद्यालयी प्रोफेसरों को अपने पाण्डित्य की अल्पता का साक्षात्कार हो सके। भारत माता के इस महान मनीषी पुत्र को कृतज्ञतापूरित भावभीनी श्रद्धांजलि। (3 नवम्बर, 2006)

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