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दागियों के खिलाफ

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Oct 12, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Oct 2006 00:00:00

अदालत ने कसा शिकंजा

-कुमारेश

अपने निजी सचिव शशिनाथ झा के अपहरण और हत्या के आरोपी झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शिबू सोरेन को कानून के लम्बे हाथों ने अंतत: अपने शिकंजे में जकड़ ही लिया। दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने 28 नवम्बर को उन्हें उक्त मामले में दोषी ठहराया है।

यह दूसरा मौका है जब शिबू सोरेन को आपराधिक मामले में अंतर्लिप्तता के कारण केन्द्र में सोनिया गांधी की संप्रग सरकार में कोयला मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा है। पिछली बार वह एक नरसंहार कांड के वांछित अभियुक्त थे और फरार घोषित किए गए थे, लेकिन इस बार हत्या के दोषसिद्ध अपराधी हैं। भारतीय संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार केन्द्रीय मंत्रिमंडल का कोई सदस्य हत्या के मामले में दोषसिद्ध होने पर दंडित हुआ है।

हत्या के जिस जुर्म में शिबू सोरेन को दोषी ठहराया गया है वह एक अन्य गर्हित प्रकरण से जुड़ा मामला है। वह है कुख्यात झारखंड मुक्ति मोर्चा सांसद रिश्वत प्रकरण जिसमें 1993 में अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रही केन्द्र की नरसिंह राव सरकार को बचाने के लिए शिबू सोरेन समेत झारखंड मुक्ति मोर्चा के चार सांसदों ने भारी रिश्वत ली थी। बताते हैं कि रिश्वत कांड के पैसे में हिस्से की मांग को लेकर अपने निजी सचिव शशिनाथ झा से शिबू सोरेन परेशान थे और उन्होंने उससे पिंड छुड़ाने के लिए एक साजिश के अन्तर्गत उसे रास्ते से हटा दिया। यह घटना मई 1994 की है। दिल्ली में शशिनाथ का अपहरण करने के बाद उसे रांची के निकट पिस्का नगड़ी ले जाया गया जहां शिबू सोरेन के कथित इशारे पर एक गिरोह के अपराधियों ने उसकी हत्या कर लाश को जंगल में कहीं दफना दिया। शशिनाथ झा के बड़े भाई अमरनाथ झा की शिकायत पर दिल्ली के संसद मार्ग पुलिस थाने में केस दर्ज किया गया और साल दर साल इस मामले में उतार-चढ़ाव होता रहा। शशिनाथ झा की मां प्रियंवदा देवी की याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामला सी.बी.आई. को सुपुर्द करने का निर्देश दिया। सी.बी.आई. जांच में इस बात की पुष्टि हुई कि बरामद कंकाल शशिनाथ झा का ही था।

64 वर्षीय शिबू सोरेन को उनके समर्थक “गुरुजी” कह कर पुकारते हैं। वे 1970 के दशक में राजनीति में प्रवेश के समय से ही विवादों से घिरे रहे हैं।

सन् 2004 में जामताड़ा की जिला अदालत ने 1975 के चीरूडीह नरसंहार कांड के सिलसिले में शिबू सोरेन को फरार घोषित करते हुए उनके विरुद्ध वारंट जारी किया था। कोयला मंत्री के पद पर रहते हुए भी वह कई दिन तक गायब रहे। शायद देश के इतिहास में पहली बार कोई मंत्री वारंट निकलने के बाद कई दिन तक गायब रहा और न सरकार, न पुलिस को उसकी कोई खबर लगी। झारखंड उच्च न्यायालय से भी उन्हें जमानत नहीं मिली। अंतत: उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ा और जेल जाना पड़ा। जेल से छूटने के कुछ समय बाद मनमोहन सिंह सरकार में वह फिर कोयला मंत्री बन गए। वह केस अभी चल रहा है। उनके विरुद्ध एक और केस-1974 में परिटांड़ थाना क्षेत्र के कुड़को गांव में दो लोगों की हत्या का आरोप जांच के दौर में है।

साढ़े तीन करोड़ रुपए के झारखंड मुक्ति मोर्चा सांसद रिश्वत कांड में वह कई माह जेल की हवा खा चुके हैं। जनवरी 1997 में जब शिबू सोरेन समेत झारखंड मुक्ति मोर्चा के चार सांसद जेल से छूट कर रांची पहुंचे तब आल झारखण्ड स्टूडेन्ट्स यूनियन और झारखंड पीपुल्स पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उनके विरुद्ध प्रदर्शन किया था। प्रदर्शनकारी एक बड़ा बैनर लिए हुए थे, जिस पर लिखा था-

आ रही है आवाज झारखंड के हर किवाड़ से

कि पहुंच रहे हैं झारखंड के दलाल तिहाड़ से।

यह एक बड़ी विडम्बना है कि शिबू सोरेन, जिन्होंने अपना आन्दोलन जनजातीय समुदाय में समाज सुधार, शराबबंदी और महाजनों की घूसखोरी के विरुद्ध आरंभ किया था, अपने रास्ते से भटक गए और राजनीतिक महत्वाकांक्षा में अपना विवेक खो बैठे। और उनके विरुद्ध एक के बाद एक अभियोग लगते गए। दूसरी ओर कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें एक साजिश के अन्तर्गत फंसाया गया है। लेकिन उन पर कानून का जो शिकंजा कस चुका है, उससे उनका निकलना आसान नहीं होगा।

उनकी राजनीति अवसरवादिता की राजनीति रही है। पहले उन्होंने कांग्रेस से गठजोड़ किया, फिर जनता दल, राजद से और बाद में झारखंड राज्य की स्थापना के समय राजग से जा मिले। लेकिन जब उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी नहीं मिली तो वह लालू प्रसाद के साथ हो गए।

स्व. विनोद बिहारी महतो, जो झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक अध्यक्ष थे, ने अगस्त 1980 में धनबाद में एक पत्रकार सम्मेलन में कहा था, “आदिवासी नेता जयपाल सिंह से लेकर शिबू सोरेन तक परम्परा से बिकाऊ माल साबित हुए हैं। हाल में शिबू सोरेन का इंदिरा कांग्रेस से हुआ तालमेल इसी दु:खद इतिहास की कड़ी है। ये लोग सत्ता की चकाचौंध में खो गए।”

शिबू सोरेन के जेल जाने से झारखंड की राजनीति में भूचाल आ गया है। वह एक निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार की समन्वय एवं संचालन समिति के अध्यक्ष हैं और झारखंड के “सुपर चीफ मिनिस्टर” कहलाते हैं। अब प्रदेश सरकार की स्थिति संकटपूर्ण हो गई है। उनकी पार्टी में द्वितीय पंक्ति का कोई नेता नहीं है। उनके दो पुत्र हेमन्त सोरेन और दुर्गा सोरेन कमान संभालना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में पार्टी में फूट पड़ने की संभावना है। इस बात की भी संभावना है कि वह अपनी पत्नी रूपा सोरेन को पार्टी की कमान थमा दें, लेकिन यह कार्रवाई भी जोखिमपूर्ण हो सकती है।

शिबू सोरेन ने 11वीं लोकसभा के चुनाव के दौरान मई 1996 में एक भाषण के दौरान कहा था कि “अलग राज्य बनते ही मैं राजनीति से संन्यास ले लूंगा। चुनाव की राजनीति में अपनी ऊर्जा व्यर्थ नहीं गवाऊंगा।”

दिल्ली उच्च न्यायालय से यदि उन्हें कुछ अल्पकालिक राहत मिल भी जाये तो भी पूरी स्थिति को देखते हुए उनके लिए बेहतर यह होगा कि वे स्वयं राजनीति से संन्यास ले लें। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सोरेन को सजा सुनाई नहीं जा सकी थी क्योंकि “तबियत” खराब होने के कारण सोरेन “एम्स” में भर्ती थे (अक्सर नेता किसी अपराध में दोषी सिद्ध होने के बाद “बीमार” हो ही जाया करते हैं।) खबर है कि 5 दिसम्बर को अदालत उन्हें सजा सुना देगी।

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