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मंथन

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Jul 8, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jul 2005 00:00:00

गुड़गांव काण्ड के पीछे कौन?देवेन्द्र स्वरूप25 जुलाई। संसद के मानसून सत्र का पहला दिन। अचानक एक साथ सभी टेलीविजन चैनलों ने दिल्ली के निकटस्थ औद्योगिक नगर गुड़गांव में एक जापानी कम्पनी होंडा मोटर साइकिल एण्ड स्कूटर लिमिटेड के कर्मचारियों और पुलिस के बीच हिंसक संघर्ष के दिल दहलाने वाले दृश्य परोसने शुरू कर दिए। पहले दृश्य में उग्र कर्मचारियों की भीड़ पुलिस दल पर पथराव करती, उसे पीछे खदेड़ती, दूसरे दृश्य में एक पुलिस अधिकारी को घेर कर लाठियों से पिटाई करती, वह हाथ जोड़ रहा है, चिरौरी कर रहा है, पर भीड़ उस पर लाठियां बरसा रही है। वह लहूलुहान होकर गिर जाता है। टेलीविजन बता रहा है कि यह घायल पुलिस अधिकारी डी.एस.पी. जगप्रवेश दहिया हैं। अगले दृश्य में कुछ वाहनों को आग लगाई जा रही है, वे धू-धू कर जल रहे हैं। टेलीविजन बता रहा है कि इनमें एस.डी.एम. जयसिंह सांगवान और अन्य अधिकारियों की गाड़ियां हैं। इसके बाद दृश्य का दूसरा दौर शुरू होता है। पुलिस बल प्रदर्शनकारियों को घेर लेता है। वे जमीन पर बैठे हैं। पुलिस वाले उन पर चारों तरफ से लाठियां बरसा रहे हैं, सिर फूट रहे हैं, खून बह रहा है। प्रदर्शनकारी अपने-अपने कान पकड़कर बैठे-बैठे रेंग कर आगे बढ़ रहे हैं। दृश्यों का पहला दौर पीछे चला जाता है। दूसरा दौर ही टेलीविजन चैनलों पर छाया रहता है। कुछ चुने हुए दृश्य बार-बार दिखाए जाते हैं। उद्घोषक बड़ी उत्तेजक भाषा में पुलिस की बर्बरता का बखान कर रहे हैं। इन दृश्यों और उद्घोषकों की भाषा को सुनकर सब ओर पुलिस बर्बरता के विरुद्ध आक्रोश छा जाता है। संसद सत्र का पहला दिन उत्तेजना और क्षोभ से परिपूर्ण है। नेताओं में सरकार और पुलिस पर क्रोधाग्नि बरसाने की होड़ लग जाती है। सरकार के सहयोगी वाम नेताओं का मजदूर समर्थक क्रांतिकारी उफान चरम पर पहुंच जाता है। वर्ग संघर्ष की पुरानी रटी भाषा को उगलने का मनचाहा अवसर मिल गया है। कांग्रेस नेतृत्व हक्का-बक्का रह जाता है। पुलिस बर्बरता के दृश्यों को कैसे अस्वीकार किया जा सकता है? आखिर, हरियाणा में कांग्रेस की सरकार है। इसलिए पुलिस के किए का कलंक तो कांग्रेस के माथे पर ही लगेगा। उत्तेजना के इस वातावरण में यह कौन सुनता है, सोचता है कि बात कहां से शुरू हुई, कैसे शुरू हुई, पहला पत्थर किसने मारा, पहली लाठी किसने चलाई, पहला वाहन किसने जलाया? और यह वीभत्स कांड संसद सत्र के पहले दिन ही क्यों रचा गया? सभी टेलीविजन चैनल अपने अपने कैमरे लेकर घटनास्थल पर कैसे पहुंच गए? उन्हें इतनी शीघ्र सूचना देने वाला तंत्र या माध्यम कौन था? आग लगायी जा चुकी थी। तीन-चार दिन तक गुड़गांव कांड ही मीडिया पर पूरी तरह छाया रहा और सभी दलों के नेता उस आग पर अपनी-अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में जुट गए।कितने ही सवालअब जब आग थोड़ी ठंडी होने लगी है, पूरी घटना की जांच के लिए हरियाणा-पंजाब उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति जी.सी. गर्ग को तीन महीने की अवधि में अपनी रपट देने के लिए जुटा दिया गया है। अब अनेक सवाल सामने आने लगे हैं। क्या यह किसी मल्टीनेशनल कम्पनी द्वारा भारतीय श्रमिकों के शोषण की कहानी है? क्या यह मालिक-मजदूर के बीच वर्ग-संघर्ष का मामला है? क्या यह मिल मालिक द्वारा खरीदी पुलिस की अमानवीय बर्बरता का एक तरफा कांड है? या यह मिल मालिक व सत्तारूढ़ दल की मिलीभगत का नतीजा है? आखिर 25 जुलाई के विस्फोट की कहानी शुरू कहां से होती है? अचानक प्रदर्शनकारियों का जुलूस हिंसक क्यों हो जाता है? पत्थर क्यों बरसाने लगता है? डी.एस.पी. को अधमरा क्यों कर देता है, सरकारी वाहनों को आग क्यों लगा देता है? क्या यह पुलिस को उत्तेजित कर पुलिस बर्बरता के रक्तरंजित दृश्य खड़े करके संसद एवं पूरे देश का ध्यान आकर्षित करने का सुनियोजित षडंत्र था? इस षडंत्र के पीछे कौन हो सकता है? क्या गर्ग जांच आयोग षडंत्र की तह तक सचमुच पहुंच पाएगा?गुड़गांव का प्रशासन एवं पुलिस अधिकारी चिल्ला रहे हैं कि प्रदर्शनकारियों ने अचानक असावधान, अपर्याप्त पुलिस दल पर हमला बोल दिया, दोनों टूटे हाथों को लेकर अस्पताल में पड़े डी.एस.पी. दहिया की पत्नी कह रही है कि यदि मेरे पति का इरादा हिंसक होता तो क्या वह प्रदर्शनकारियों के सामने हाथ जोड़ता? उन्हें अपने दोनों हाथ तोड़ने देता, और अपनी बन्दूक का इस्तेमाल नहीं करता? जिलाधीश ने बताया है कि अस्पतालों में जिन घायलों को भेजा गया उनमें काफी लोग उस कम्पनी के नहीं, बाहरी थे। गिरफ्तार किए गए लोगों में 72 लोग बाहरी और समाजविरोधी तत्व हैं। मुख्यमंत्री हुड्डा ने बताया कि घायलों में 93 प्रदर्शनकारी हैं तो 30 पुलिसवाले भी हैं। पर टेलीविजन चैनलों ने शोर मचा दिया कि सैकड़ों घायल हैं, सैकड़ों लापता हैं। इन बाहरी तत्वों को कौन लाया? 25 जुलाई के प्रदर्शन और पुलिस को उत्तेजित करने की योजना किसने बनायी? इसको जानने के कुछ सूत्र वीरमती और सुरेश गौड़ ने प्रदान कर दिये हैं।अरे, यह वीरमती वही बहादुर औरत है जो अगले दिन पीले रंग का कुर्ता-सलवार और चुनरी पहने लाठी घुमाती सब टेलीविजन चैनलों और अगले दिन सब अखबारों पर छा गई थी। हरियाणा के पथरेड़ी गांव में जन्मी और दिल्ली के नजफगढ़ के गांव समसपुर में ब्याही, दिल्ली जल बोर्ड में नौकरी कर रहे दो जवान बेटों की मां वीरमती ने जैसे ही सुना कि उसका भाई खुशीराम लापता है, भाई के प्रेम में पागल होकर वह अपनी ननद को लेकर गुड़गांव पहुंच गयी। भाई को ढूंढते-ढूंढते उसके सामने पत्रकारों से बात करते जिला उपायुक्त सुधीर राजपाल टकरा गए। वीरमती ने उनका गिरेबान पकड़ लिया, पत्रकारों के सामने ही उन्हें चांटे लगाकर अपनी वीरता का परिचय दिया और फिर वह एक पुलिस वाले की लाठी छीन कर पुलिस वालों पर टूट पड़ी। हक्के-बक्के पुलिस वाले महिला पर हमला कैसे करते? वे पीछे भागने लगे, छिपने लगे। वीरमती ने इंस्पेक्टर जनरल दीपा मेहता को भी अपने आक्रोश का शिकार बनाया। वह वीरता की प्रतिमूर्ति बनकर मीडिया की आंखों में चढ़ गयी। एक दैनिक पत्र ने तो शीर्षक ही दे डाला- “खूब नचायो जाटनी के डंडे ने”। आखिर उसका भाई मिल ही गया। पता चला कि उसे मामूली चोटें लगी थीं। उसे सोहना रेफरेल अस्पताल में भरती करा दिया गया था। प्राथमिक उपचार के बाद वह अस्पताल से छुट्टी पाकर बाहर चला आया पर उसकी बहन उसे सिविल अस्पताल में ढूंढती रही, जहां वह था ही नहीं। पर अब प्रश्न उठता है कि यह खुशीराम है कौन? पता चला कि होण्डा कम्पनी से उसका कोई सम्बंध नहीं है, वह ग्रुप फोर नामक कम्पनी में काम करता है। पर वह होंडा कम्पनी के कर्मचारियों के प्रदर्शन में पहुंच गया, क्योंकि वह सी.पी.आई. की ट्रेड यूनियन “एटक” में पदाधिकारी है। इससे इस प्रदर्शन के आयोजन में “एटक” की भूमिका सामने आती है। इसकी पुष्टि हो गयी बुधवार को, जब होंडा कम्पनी की कर्मचारी यूनियन के अध्यक्ष सुरेश गौड़ को, जो प्रदर्शन के बाद से ही लापता थे, इंडियन एक्सप्रेस के संवाददाता ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के ट्रेड यूनियन संगठन “एटक” के दिल्ली में केनिंग लेन स्थित कार्यालय में खोज निकाला। सुरेश गौड़ 25 जुलाई को हिंसक प्रदर्शन की आग लगाकर गिरफ्तारी के भय से पार्टी कार्यालय में शरण लेकर सुरक्षा का सुख भोग रहे थे। यही सुरेश गौड़ हैं जिन्होंने दिसम्बर, 2004 में होंडा कम्पनी में असंतोष की आग भड़कायी थी और तभी “एटक” के महामंत्री व सांसद गुरुदास दासगुप्ता से सम्पर्क साध लिया था। यह बात दासगुप्ता ने भी स्वीकार की। होंडा कर्मचारी यूनियन के एक अन्य कार्यकर्ता मनोज कुमार ने बताया कि गुरुदास दासगुप्ता हमारे मार्गदर्शक हैं। हमारे नेता शुरू से ही उनसे सलाह लेते रहे हैं। शायद उन्हीं की सलाह पर कम्युनिस्टों की पुरानी तकनीक के अनुसार संसद सत्र के पहले दिन को चुना गया होगा और पुलिस को उत्तेजित कर पुलिस बर्बरता का दृश्य खड़ा करने की योजना बनी होगी। आखिर, कम्युनिस्ट पार्टियों की राजनीति मजदूरों के खून पर ही तो पलती आई है। सुरेश गौड़ स्वयं घायल नहीं हैं, गिरफ्तार नहीं हैं। पार्टी कार्यालय में मौज कर रहे हैं।असल मुद्दा क्या?अब सवाल उठता है कि कम्युनिस्ट पार्टी और उनकी ट्रेड यूनियनें ऐसे दृश्य खड़े करके कमाना क्या चाहती हैं? वे किसके हित में काम कर रही हैं, कर्मचारियों के, देश के या केवल अपने और पार्टी के? होंडा कम्पनी के कर्मचारियों की शिकायत क्या थी? क्या कम्पनी उनकी शिकायतों को सुनने और दूर करने को तैयार नहीं थी? अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार कम्पनी की उत्पादन प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका रखने वाले 1800 कर्मचारियों ने दिसम्बर मास में वेतन वृद्धि की मांग की, जिसे कम्पनी ने अप्रैल मास में प्रत्येक कर्मचारी को 3000 रु. मासिक वेतन देकर पूरा करने की कोशिश की। किन्तु उनका असन्तोष बना रहा। 24 मई को जापान से कम्पनी के अध्यक्ष वाई.आओशिमा फैक्टरी में आए तो सुरेश गौड़ आदि के नेतृत्व में उनका चार घंटे तक घेराव किया गया, जिससे क्षुब्ध होकर कम्पनी ने 25 मई को सुरेश गौड़ सहित चार नेताओं को नौकरी से बर्खास्त कर दिया और 13 कर्मचारियों को निलंबित कर दिया। मजदूर आन्दोलन के निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार अब मुद्दा वेतन वृद्धि नहीं, बर्खास्तगी और निलम्बितों की वापसी की मांग का उठना था। नेताओं के आह्वान पर कर्मचारियों ने “धीरे चलो” का शस्त्र चलाया। कम्पनी का उत्पादन 2025 स्कूटर प्रतिदिन से गिरकर बहुत नीचे पहुंच गया। कम्पनी के एक अधिकारी ने बताया कि कम्पनी को 120 करोड़ रुपए से अधिक हानि उठानी पड़ी है। जून में कर्मचारी हड़ताल पर चले गए। कम्पनी के उत्पादन के लिए दिहाड़ी श्रमिकों एवं निरीक्षण स्टाफ से काम चलाने की कोशिश की। हड़तालियों के भय से उन्हें कम्पनी के अहाते में ही रहने की सुविधा दी गयी। जिला प्रशासन द्वारा मध्यस्थता की गई। एक समझौता हो गया। कम्पनी ने हड़ताली कर्मचारियों को काम पर वापस लेने से पहले उनसे “अच्छे व अनुशासित व्यवहार” के शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करने की शर्त रखी। दोबारा यह प्रस्ताव दिया गया। पहली बार उन्होंने मना कर दिया। दूसरी बार 18 जुलाई को उन्होंने हस्ताक्षर कर दिए। पर एक सप्ताह के बाद 25 जुलाई को वे “एटक” के झंडे तले सड़कों पर उतर आये। धारा 144 का उल्लंघन करते हुए जुलूस निकाला। पुलिस के मना करने पर उस पर पथराव किया। डी.एस.पी. के हाथ-पैर तोड़े, सरकारी वाहनों को आग लगाकर योजनानुसार पुलिस को आत्मरक्षा और प्रतिष्ठा को बचाने हेतु बर्बर लाठीचार्ज के लिए विवश कर दिया।कम्युनिस्टों की चालकम्युनिस्टों की इस विध्वंसक आन्दोलन नीति की आग पर राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए अब सभी दलों के नेता दौड़ पड़े हैं। ओम प्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल इस स्थिति में पुनरुज्जीवन के अवसर खोज रही है। स्वयं सत्तारूढ़ कांग्रेस के भीतर मुख्यमंत्री पद के तीन अभिलाषियों- भजनलाल, चौ. वीरेन्द्र सिंह एवं रणदीप सिंह सुरजेवाला में हुड्डा को मुख्यमंत्री की गद्दी से हटाकर उस पर कब्जा करने की होड़ लग गयी है। घायलों और उनके सम्बंधियों की हमदर्दी पाने के लिए हुड्डा और भजनलाल के समर्थक अस्पताल के भीतर ही भिड़ गये। शायद यह राजनीति तो धीरे-धीरे ठंडी पड़ जायेगी, पर कम्युनिस्टों की विध्वंसक ट्रेड यूनियन राजनीति ने देश के आर्थिक विकास पर गहरा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन श्रमिक असन्तोष पर ही पलता रहा है। श्रमिकों को हड़ताल के लिए उकसा कर वे मालिक और मजदूर के बीच मध्यस्थता की कीमत दोनों तरफ से वसूलते रहे हैं। उनकी विध्वंसक कार्यनीति के फलस्वरूप कानपुर जैसा औद्योगिक नगर बर्बाद हो गया, कम्युनिस्टों के श्रमिक संगठनों ने “काम हराम है” का जो वायुमंडल पैदा किया उससे त्रस्त होकर प. बंगाल से पूंजी और उद्योगों का पलायन हो गया और बंगाल बुरी तरह पिछड़ गया।भूमंडलीकरण के दौर में विदेशी पूंजी निवेश और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने श्रम संस्कृति में भारी परिवर्तन किया है। देश अपने विकास के लिए विदेशी निवेश को आमंत्रित कर रहा है। जापान ने हमारे देश में भारी निवेश किया है। इस समय 300 स्थानों पर जापान की 250 कम्पनियों ने उद्योग खड़े किए हैं। इनके अलावा मारुति-सुजूकी जैसे विशाल संयुक्त उद्योग भी चल रहे हैं। स्वयं प. बंगाल की संयुक्त मोर्चा सरकार जापानी पूंजी को आमंत्रित कर रही है। वस्तुत: इस समय प. बंगाल के औद्योगिक विकास में जापान का मुख्य योगदान है। जापान के मित्सुबीशी केमिकल कार्पोरेशन ने 2000 करोड़ रुपए की पूंजी लगाकर औद्योगिक नगर हल्दिया में प्यूरीफाइड टेरेफ्थेलिक एसिड कारखाना खड़ा किया है, जिसने निर्धारित समय से पहले उत्पादन करके नई श्रम-संस्कृति का उदाहरण प्रस्तुत किया, एक भी श्रम दिवस को बेकार नहीं जाने दिया, इसलिए यह कारखाना लाभ में चल रहा है, जापानी कम्पनी मारुबेली ऊर्जा क्षेत्र में पूंजी लगा रही है, जापान के अन्तरराष्ट्रीय सहयोग बैंक ने प. बंगाल में फ्लाई ओवरों, पुलों व अन्य यातायात सुविधाओं के निर्माण के लिए 500 करोड़ रुपए का ऋण दिया है। गुड़गांव की घटना से चिन्तित होकर जापान के राजदूत वाई. इनोकी ने आशंका व्यक्त की कि श्रमिक आन्दोलन के ऐसे वातावरण में पूंजी निवेश करना संभव होगा क्या? क्या जापानी कम्पनियों को भारत छोड़ने की दिशा में सोचना होगा? जापानी राजदूत के इन उद्गारों से भारत सरकार जितनी चिन्तित हुई उससे अधिक प. बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार को चिन्ता हुई। भारत के वाणिज्य उद्योग मंत्री कमलनाथ को भी सफाई देना पड़ी कि गुड़गांव की होंडा कम्पनी के साथ हुआ कांड अपने ढंग का अकेला है। किन्तु क्या केवल शाब्दिक आश्वासन दूर तक चल सकेंगे? जब तक भारत का विध्वंसक कम्युनिस्ट दिमाग अपने क्षुद्र दलीय स्वार्थों के लिए श्रमिकों, मीडिया व संसद के मंच के दुरुपयोग के रास्ते को नहीं छोड़ता तब तक भारत में औद्योगिक शान्ति और निर्विघ्न विकास की आशा करना व्यर्थ होगा। भारतीय कम्युनिस्टों को कौन समझाये कि ट्रेड यूनियनों की प्रेरणा विचारधारा नहीं, केवल श्रमिकों के तात्कालिक स्वार्थ होते हैं। और वे श्रमिकों की बर्बादी को वर्ग संघर्ष कहना बन्द करें।(29 जुलाई,2005)NEWS

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