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सम्पादकीय

by
Jun 3, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Jun 2005 00:00:00

हमारे सम्बंध देश-विदेश में कितने ही नये ज्ञान-विज्ञान से जुड़े हैं, लेकिन परेशानी की बात यह है कि अन्दर-अन्दर हमारा सम्बंध अपने पास वाले मानव समाज से, अपने पास-पड़ोस, गांव-मुहल्ले से टूटता जा रहा है। राजनीति का अपने मतदाता से, साहित्यकार का अपने पाठक से, शिक्षक का अपने छात्र से आत्मीयता भरा रिश्ता टूट रहा है।-धर्मवीर भारती (कहानी-अनकही, पृ.25)के.जी.बी. के लोगभारत सरकार के गुप्तचर ब्यूरो के पूर्व निदेशक श्री मलय कृष्ण धर ने अपने संस्मरणों की जो पुस्तक लिखी है, वह कई क्षेत्रों में सनसनी फैला रही है। लेकिन मुख्य बात यह है कि श्री धर ने अपनी पुस्तक में जिस प्रकार के रहस्योद्घाटन किए हैं, क्या उनकी जांच होगी? उनकी सत्यता के बारे में तो सरकार ही बता सकती है। जो भी हो, एक महत्वपूर्ण दायित्व को संभालने वाले अधिकारी की पुस्तक से यह तो अपेक्षा नहीं हो सकती कि उन्होंने केवल सनसनी फैलाने के लिए मिथ्यालाप किया होगा। इतना तो जरूर प्रयास होना चाहिए कि पुस्तक में जिन नेताओं को राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध जाते दिखाया गया है उनको और उनके दलालों को कटघरे में खड़ा किया जा सके। उनके काले कारनामों के बारे में जांच होनी चाहिए। श्री धर ने अपनी पुस्तक में श्रीमती गांधी के मंत्रिमण्डल की ओर संकेत करते हुए के.जी.बी. के दलालों का जो जिक्र किया है, वह एक अत्यन्त गंभीर जानकारी है। चुनावों में जीत-हार तथा वैचारिक मतभेदों से परे राष्ट्रीय हितों के मामले पर राजनीतिक दलों को एकजुटता का प्रदर्शन करना चाहिए। राष्ट्रीय हित के विरुद्ध जाकर जो विदेशों से सांठ-गांठ करता हो तथा विदेशी दूतावास से पैसे लेता हो उसे क्षमा करना देश के साथ छल करने जैसा है। श्री धर ने अपनी पुस्तक में लिखा है, “बहुत कष्ट उठाकर किए गए अनुसंधान और गहरी गुप्तचर पैठ के आधार पर मैंने चार ऐसे केन्द्रीय मंत्रियों (श्रीमती इन्दिरा गांधी के मंत्रिमण्डल में?) और दो दर्जन से अधिक संसद सदस्यों की पहचान की थी जो के.जी.बी. के जासूसों से नियमित पैसा लेते थे। उनमें से कुछ तो अभी भी हैं। लेकिन के.जी.बी. की सबसे आश्चर्यजनक घुसपैठ रक्षा मंत्रालय में तथा सशस्त्र सेनाओं के उन स्तरों पर थी जो सैनिक साज-सामान लेने के लिए जिम्मेदार होते हैं। इन तमाम लोगों की सूची से मेरे अधिकारी बहुत खुश नहीं हुए और मुझे यह सलाह दी गई कि यह तमाम जानकारी अपने सुरक्षित तहखानों में रखो। उच्चाधिकारियों में से किसी में भी इस बात की हिम्मत नहीं थी कि वे सरकार को चेताते और इन तमाम सोवियत दलालों की पहचान करवाते। सबसे दिलचस्प मामला उन एक संसद सदस्य का था जो श्रीमती इन्दिरा गांधी की भीतरी निर्णायक मंडली के कुछ पहलुओं की जानकारी देने के लिए सोवियत दूतावास से नियमित पैसा लेता था।”जिस पुस्तक में इस प्रकार की तहलका मचाने वाली सामग्री हो और उसे प्रकाशित हुए दो महीने हो रहे हों, उसके बारे में सरकार की खामोशी बेचैनी पैदा करती है। वास्तव में इस पुस्तक के संदर्भ में सरकार को अपनी स्थिति तुरन्त स्पष्ट करनी चाहिए और जिस प्रकार के.जी.बी. के दलालों के बारे में इस पुस्तक में जिक्र किया गया है, उसके बारे में छानबीन की जानी चाहिए।ठेले पर कानूनराबड़ी देवी द्वारा कानून को धता बताते हुए तथा सीवान के जिलाधिकारी सी.के.अनिल के सामने खुद को एक घटिया लड़ाई के लिए खड़ा करते हुए जिस प्रकार मो. शहाबुद्दीन जैसे अपराधी को जेल से बाहर निकालने के आदेश दिए गए वह एक ही बात सिद्ध करता है कि देश में कानून मजाक भर रह गया है। कुछ लोग हैं जिनके विरुद्ध कानून को मनमाने ढंग से इस्तेमाल किया जाता है और बाकी कुछ लोग हैं, जो सरकार की जेब में हैं या उसकी आंखों के तारे हैं। उनके बारे में कानून ठेले पर लादकर कूड़ाघर में फेंकवा दिया जाता है। सी.के. अनिल की सीवान में नियुक्ति निर्वाचन आयोग के आदेश से हुई थी। उन्होंने मो. शहाबुद्दीन, जो लालू की पार्टी राजद से सांसद भी हैं, के छह महीने तक शहर में घुसने पर पाबंदी लगा दी थी और 28 फरवरी तक जेल में ही रखने का आदेश दिया था। उल्लेखनीय है कि निर्वाचन प्रक्रिया 28 फरवरी तक पूरी होने वाली है। यह सब इसलिए किया गया ताकि श्रीमान शहाबुद्दीन चुनाव प्रक्रिया में कोई बाधा न डाल सकें और न ही उसे प्रभावित कर सकें। लेकिन देखिए न, अभी बृहस्पतिवार (24 फरवरी) को ही पटना उच्च न्यायालय से सी.के. अनिल को निर्देश गया था कि वे शहाबुद्दीन को दुबारा बिहार आपराधिक कानून के अन्तर्गत पकड़े जाने का आधार समझाएं। पर अनिल जब तक यह बताते उसके पहले ही श्रीमती राबड़ी देवी ने उनके आदेश को पलटते हुए शहाबुद्दीन की रिहाई करवा दी।NEWS

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