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– दिनेश शुक्लवलय धुएं के कांपते, झिलमिल झरे प्रकाश,रात रोशनी की नदी, खिला-खिला आकाश।पृथ्वी पर हंसने लगे, उजियाले के खेत,लाभ-शुभों के मांगलिक, दीपक जले निकेत।नहा दूध से ये उठी, इक रातों की झील,जली जुगनुओं की यहां, दूर कहीं कंदील।निर्जन में दीपक जले, जले मह
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