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एक ईसाई स्वयंसेवक की संघर्ष-गाथासंघ-शाखा और भगवद्गीता ने दी हिम्मतकेरल के कोट्टायम जिले के कारूकचाल में 11 जनवरी, 1953 को पैदा हुए डॉ. सी.आई. इसॉक् ने अपनी स्कूली शिक्षा स्थानीय मिशनरी स्कूलों से पूरी की। चनगनासरी के एन.एस.एस. हिंदू कालेज में पढ़ते समय युवा इसाक् को प्रत्यक्ष रूप से हिंदू जीवन पद्धति और परंपराओं के बारे में पहली बार थोड़ी जानकारी मिली। कालेज के दिनों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से संपर्क में आने के बाद इसाक् स्वयंसेवक बने और उन्होंने रा.स्व.संघ के संघ शिक्षा वर्ग के द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया। उन्होंने कोट्टायम के एम.जी. विश्वविद्यालय के गांधी अध्ययन केन्द्र से “केरल में अछूतों का एक अध्ययन-सामाजिक जागृति और राष्ट्रवाद” नामक विषय पर शोध किया। वे अब एक ईसाई मिशन द्वारा संचालित सीएमएस कॉलेज में इतिहास के स्नातकोत्तर विभाग के अध्यक्ष हैं। उनका मुख्य विषय हिंदू समाज का पिछड़ा समुदाय है और इस विषय पर उनके अनेक लेख और शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने चर्च और पादरियों के कड़े विरोध के बावजूद अपना जीवन हिंदुत्व को समर्पित कर दिया है।आपातकाल के समय उन्हें संघ के कार्यकर्ताओं से संपर्क में आने का अवसर मिला, जो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के लोकतंत्र विरोधी निर्णयों के विरूद्ध भूमिगत होकर संघर्षरत थे। भारतीय मजदूर संघ के वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष एम.एस. करूणाकरण और प्रांत प्रचारक ए. गोपालकृष्णन ने उन्हें संघ विचारधारा से परिचित करवाया था।एक ईसाई होने के कारण उन्हें संघ से जुड़ने में अनेक समस्याओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इसके कारण चर्च नेताओं ने हमेशा उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित और अपमानित किया। उन्हें अपने कार्यक्षेत्र, जो एक ईसाई महाविद्यालय है, में सभी प्रकार से तिरस्कृत करते हुए मानसिक तौर पर सताया गया। उन्हें जरूरत पड़ने पर छुट्टियां भी नहीं दी जाती थीं और पदोन्नति से वंचित रखा गया। ये अलग बात है कि संघ की शक्ति के कारण उन्हें शारीरिक रूप से हानि नहीं पहुंचाई गई। पर शाखा में प्राप्त संस्कारों के कारण वे सभी प्रकार की कठिनाइयों का सामना करने में सफल रहे। साथ ही भगवद्गीता और उपनिषदों के ज्ञान ने उन्हें अपना मानसिक संतुलन और धीरज बनाए रखने में मदद की।हालांकि चर्च ने उन्हें और उनके परिवार को अछूत घोषित कर दिया है। केरल में चर्च के इतिहास पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं, “स्वतंत्रता संघर्ष के समय चर्च गांधीजी और कांग्रेस के विरूद्ध था। स्वतंत्रता के बाद चर्च ने सरकार में सभी स्थानों पर एकाधिकार कायम कर लिया। उदाहरण के लिए, एक ईसाई स्कूल के मास्टर के.सी.अब्राहम ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लेने वाले अनेक छात्रों के भविष्य को बिगाड़ा। आजादी के बाद वह केरल प्रदेश कांग्रेस समिति का अध्यक्ष बना और फिर आंध्र प्रदेश का राज्यपाल। चर्च के पास अपनी वफादारी बदलने की जादुई ताकत है। वर्तमान में वह मुझे बदनाम करने में लगा हुआ है।” डा. इसाक् ने भगवान बुद्ध, स्वामी विवेकानंद, योगी अरविंद, डा. हेडगेवार, गुरूजी और गांधीजी से प्रेरित होकर व्यक्तिवादी जीवन की बजाय समाज की सेवा को अपना जीवन लक्ष्य माना है। उससे भी बड़ी बात यह कि इतिहास के एक विद्यार्थी के रूप में वह अपनी विरासत की महानता, हमारी श्रुतियों की महान ज्ञान राशि तथा हमारे ऋषियों के महान जीवन दर्शन को पहचानने में सफल रहे हैं।वर्तमान में वे सनातन धर्म, विशेष रूप से हिंदू मूल्यों को अपनी लेखनी, सार्वजनिक वाद-विवाद और संगोष्ठियों के माध्यम से लोकप्रिय बनाने में सक्रिय हैं। इस समय वे संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्री पी. परमेश्वरन द्वारा स्थापित राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के उद्देश्य वाले बौद्धिक संगठन भारतीय विचार केंद्र के महासचिव हैं। उनका विचार है कि युवाओं, खासकर केरल के युवाओं के समक्ष अनुकरण के लिए वास्तविक प्रेरक व्यक्तित्वों की कमी है। अत: वे स्वार्थ और उपभोक्तावाद पर आधारित पश्चिमी ढांचे को अपना रहे हैं। पश्चिमी जीवन पद्धति में अधिक उपभोग करने वाला ही सम्माननीय है।कुछ समय पहले भारतीय विचार केंद्र ने छात्रों में जागृति के लिए भगवद्गीता का आन्दोलनात्मक कार्यक्रम चलाया था, जिसके द्वारा बड़ी संख्या में युवाओं में राष्ट्रीय मूल्यों के विषय में जागृति पैदा करने का कार्य किया गया। इनमें से कुछ युवा, जिनमें पेशेवर पाठक्रमों के छात्र भी शामिल हैं, समर्पित कार्यकर्ता बनकर अब वनवासी क्षेत्रों और विभिन्न केंद्रों में कार्य कर रहे हैं। डा. इसाक् अपने गांव के स्कूल में, जहां उन्होंने आठवीं कक्षा तक पढ़ाई की थी, शिक्षकों द्वारा वंचित वर्ग के छात्रों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार से चिंतित थे। यह स्कूल एक ईसाई मिशनरी का था। ईसाई शिक्षकों के अमानवीय व्यवहार और अपमान के कारण इन छात्रों को मजबूर होकर स्कूल छोड़ना पड़ता था। हाल में ही जब उनके महाविद्यालय में, जहां वह 27 साल से पढ़ा रहे हैं, परंपरागत रूप से माथे पर तिलक लगाने और हाथ में राखी बांधने के कारण हिंदू छात्रों को प्रवेश से वंचित किया गया तो उन्होंने अकेले ही प्रबंधन को चुनौती दी और विजय हासिल की।बातचीत में यह पूछे जाने पर कि क्या हमारा समाज पश्चिम का प्रतिरूप होता जा रहा है? वे कहते हैं, “हां, समाज पश्चिमीकरण के भ्रम पर मोहित है। युवा वर्ग पश्चिमी सभ्यता की क्षणभंगुरता और शोषणकारी स्वरूप से पूरी तरह परिचित नहीं है। हिंदू जीवन मूल्यों का संरक्षण समय की मांग है। पश्चिमीकरण के कुप्रभावों का मुकाबला करने के लिए भगवद्गीता एक अनुकरणीय पुस्तक है। हिन्दू धर्म की नैतिक मूल्य व्यवस्था अनुपम है और हिन्दू धर्म को अधिक लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है।युवाओं में देशभक्ति जागृत करने में शिक्षा की भूमिका के बारे में उनका मानना है कि शिक्षा का प्रसार बहुत कुछ कर सकता है। पर हमारी मौजूदा शिक्षा पद्धति हमारे पूर्वजों को अपमानित करने के लिए बनायी गयी है। युवकों को इससे बाहर आना होगा क्योंकि यह शिक्षा उनमें आत्मसम्मान की भावना नहीं जगा रही है। युवाओं को विद्यालय स्तर पर ही पौराणिक श्रेष्ठजनों से लेकर आज तक के प्रेरक महापुरूषों के बारे में शिक्षित करना होगा। गांधीजी सहित हमारे सभी महापुरूषों ने अपने बचपन में ही पुराणों के समय के महापुरूषों के बारे में पढ़ा था। इसी कारण वे अधर्म के विरुद्ध पर्याप्त शक्ति जुटाने में सफल रहे।डा. इसाक् के लिए संघ की जिम्मेदारी और अपना व्यवसाय दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वे कहते हैं कि अपने व्यवसाय में उनकी सफलता का रहस्य संघ है। संघ ने मुझे अपने व्यवसाय के प्रति अधिक प्रतिबद्ध बनाया और स्वधर्म निभाने की प्रबल भावना पैदा की।डा. इसाक् को इस बात का दु:ख है कि आधुनिक बुद्धिजीवियों ने संसार के समक्ष हिंदू समाज को सबसे ज्यादा गलत ढंग से प्रस्तुत किया है। देश की स्वतंत्रता के समय से की जा रही इस गलती को सुधारने पर सर्वाधिक ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। हिंदू और भगवा कहते समय हमें अपने सर गर्व से उठा लेना चाहिए। विश्व को यह बताना चाहिए कि यही एकमात्र स्थान है, जहां सभी को सोचने की असीमित स्वतंत्रता है।प्रस्तुति : प्रदीप कुमारNEWS
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