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मंथन

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May 6, 2005, 12:00 am IST
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दिंनाक: 06 May 2005 00:00:00

बंग-भंग से स्वदेशी तक-3बंग माता, भारत माता, काली माता और वन्देमातरम्देवेन्द्र स्वरूपदेवेन्द्र स्वरूपयुद्ध का बिगुल बज चुका था। लार्ड कर्जन ने बंग-भंग की तिथि 16 अक्तूबर, 1905 तय कर दी थी, और बंग पुत्रों ने बंग-भंग को समाप्त किए बिना चैन से न बैठने की प्रतिज्ञा कर ली थी। एक ओर विशाल प्रशासन तंत्र और सशस्त्र सेना-पुलिस बल से लैस सरकार खड़ी थी। दूसरी ओर “शारीरिक शूरतारहित भीरु” समझा जाने वाला नि:शस्त्र बंगाली समाज। उसे विश्वास था कि वह ब्रिटिश उत्पादों के बहिष्कार के शस्त्र से ब्रिटिश सरकार को झुकाकर रहेगा। किन्तु इस शस्त्र को प्रभावी बनाने के लिए दृढ़ संकल्प और एकता का मंत्र जाप आवश्यक था। मानचेस्टर में बने वस्त्रों, लीवरपूल से आये नमक, ब्रिटिश फैक्टरियों में बने जूतों, साबुन और यहां तक कि सुई भी, इनके बिना जीवन कैसे चलेगा? बंगाल के उद्योग-धंधे सब नष्ट हो चुके थे। जो बंगाल अठारहवीं शताब्दी तक अपनी बारीक मलमल के लिए विख्यात था, पूरा एक थान अंगूठी में से निकाल सकता था, वस्त्र का सबसे बड़ा निर्यातक था, वही बंगाल अब अपना तऩ ढंकने लायक भी वस्त्र बनाने की स्थिति में नहीं रह गया था। देसी करघों पर बना वस्त्र मोटा और महंगा था, मानचेस्टर में बना कपड़ा बढ़िया और सस्ता था। जीवन उसका अभ्यस्त बन चुका था। व्यापारियों का बहुत बड़ा वर्ग विदेशी माल बेचकर भारी लाभ कमाता था। क्या सचमुच यह संभव हो सकेगा कि पूरा समाज बहिष्कार के इस निर्णय के पीछे खड़ा हो जाए? अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा और स्वार्थ का त्याग करने के लिए क्या पूरा समाज खड़ा हो सकेगा? अभी तक बहिष्कार का निर्णय केवल बंग-भंग की प्रतिक्रिया में से ही उत्पन्न हुआ था, अभी तक उसका लक्ष्य सरकार को बंग-भंग का निर्णय वापस लेने के लिए बाध्य करना मात्र था। किन्तु क्या कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया पूरे समाज को इतना बड़ा त्याग करने की प्रेरणा दे सकती है? क्या केवल शुष्क तर्कजाल मनुष्य को आत्मबलिदान के पथ पर बढ़ा सकता है? क्या दृढ़ संकल्प के बिना यह संभव है? संकल्प तो अन्त:करण की श्रद्धा में से पैदा होता है। गीता में कहा है कि श्रद्धा ही मनुष्य को बनाती है। उस समय बंगाली मन की श्रद्धा का स्रोत था बंग माता, भारत माता और काली माता के प्रति गहरी भक्ति में। ये तीनों केन्द्र एक रूप हो गये थे और वन्देमातरम् उन तीनों की एक साथ उपासना का मंत्र बन गया था। पूरे बंगाल का वातावरण वन्देमातरम् के मंत्रोच्चार से गूंज उठा था। वन्देमातरम् का उद्घोष सुनते ही ब्रिटिश सरकार भय से कांप उठती थी। वन्देमातरम् उसे अपने सबसे बड़ा शत्रु लगने लगा था। उसने पूरी ताकत लगा दी कि वन्देमातरम् का उद्घोष उसके कानों पर न पड़े। सड़कों पर, विद्यालयों में, कहीं पर भी वन्देमातरम् का उद्घोष किसी मुख से न निकले। पर वह भूल गई थी कि वन्देमातरम् मंत्रोच्चार के पीछे बंग माता, भारत माता और काली माता के प्रति प्रत्येक बंगाली मन की गहरी अनन्य श्रद्धा काम कर रही थी। इस विकट संघर्ष में कूदने और ब्रिटिश सरकार के पाशविक बल के सामने चट्टान की तरह खड़े रहने का आत्मबल भारत माता और काली माता दे रही थी। प्रत्येक अंत:करण में विद्यमान यह श्रद्धा ही पूरे समाज को समस्त भेदों से ऊपर उठाकर एकता के सूत्र में बांध रही थी।धार्मिक श्रद्धा का ज्वारदेशभक्ति का उमड़ता ज्वार धार्मिक श्रद्धा का रूप कैसे धारण कर लेता है, इस सत्य का साक्षात्कार उस समय हुआ जब परम्परागत महालय पूजा के लिए 28 सितम्बर, 1905 को कलकत्ता के हजारों-हजार आबाल वृद्ध काली घाट स्थित माता के प्रसिद्ध मंदिर के प्रांगण में एकत्र हुए। उस अभूतपूर्व दृश्य का वर्णन अगले दिन अमृत बाजार पत्रिका के शब्दों में ही पढ़ना ठीक रहेगा। पत्रिका ने लिखा, “अंधड़ और भारी वर्षा के बीच प्रात: 9 बजे से ही नर-नारी झुंड बनाकर और छात्रों के जुलूस नंगे पैरों चितपुर रोड और कार्नवालिस रोड को पार करके मन्दिर की ओर चल पड़े। जैसे-जैसे दिन आगे बढ़ा दोपहर के 2 बजे तक मन्दिर के अग्रभाग का विशाल नाट मन्दिर और पश्चिमी प्रांगण नरमुंडों से खचाखच भर गया। शहर के विभिन्न भागों और बाहरी बस्तियों से आयी संकीर्तन मंडलियां दिन भर माता के सामने भजन करती रहीं। कम से कम सौ कीर्तन मंडलियां देशभक्ति के गीतों को गाती हुई, विभिन्न प्रतीकों से चिन्हित पताकाओं को उठाये हुए मंदिर में पहुंच चुकी थीं। वहां एकत्र जनसमूह की संख्या 50,000 को पार कर गई थी और यह जनसमूह निरे बच्चों या अनपढ़ लोगों का नहीं था, वह कलकत्ता और पड़ोसी बस्तियों के अत्यन्त प्रतिष्ठित भद्रलोक का संगम था। बड़े-बड़े जमींदार तक वहां नंगे पैरों सिल्क के पवित्र वस्त्र पहन कर उपस्थित थे। बात केवल भीड़ की नहीं थी। बात थी उस भीड़ की तीव्र भावनाओं की। समाज के सभी वर्गों की यह विशाल भीड़ महालय के उस पवित्र दिन पर देवी के चरणों में बैठकर देवी से विभाजन के विनाश को दलने और विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार की प्रतिज्ञा लेने के लिए एकत्र हुई थी। लगभग 11.00 बजे पूजा प्रारम्भ हुई। उसके बाद होम-हवन का दृश्य अद्भुत था। मंदिर के केन्द्र में अग्नि की लपटें उठ रहीं थी। उनमें घी, चंदन और सुगंधित सामग्री की आहुति हजारों कण्ठों से मन्त्रोच्चार के साथ लगातार पड़ रही थी। वे सर्वशक्तिदायिनी माता से उसे विकट घड़ी में आत्मबल की याचना कर रहे थे।”अब एक ऐसा दृश्य उत्पन्न हुआ जो अब तक की सभी पूजा विधि से कहीं अधिक भावोत्पादक और प्रभावकारी था। मंदिर के ब्राह्मणों ने संस्कृत भाषा में आह्वान किया कि, “सब देवताओं के पहले मातृभूमि की स्तुति करो। सभी क्षुद्र भावनाओं, धार्मिक मतभेदों, कटुताओं और स्वार्थ को छोड़ दो। सभी एक स्वर से मातृभूमि की सेवा करते और उसके दु:ख निवारण के लिए अपने प्राणों की बलि देने का संकल्प लो।””इस आह्वान के बाद लोगों ने जत्थे बनाकर एक-एक कर नाट मंदिर में प्रवेश करके देवी के सामने प्रतिज्ञा ली कि “मां, आज के इस पवित्र दिन पर, इस पवित्र स्थल पर तुम्हारी पावन साक्षी में मैं शपथ लेता हूं/ लेती हूं कि मैं विदेशी वस्तुओं का कभी उपयोग नहीं करूंगा, कि मैं जो वस्तुएं भारतीय दुकानों पर उपलब्ध हैं उन्हें विदेशी दुकानों से नहीं खरीदूंगा, कि मैं जो काम मेरे देशवासी कर सकते है, उनके लिए विदेशियों से काम नहीं लूंगा।”धार्मिक प्रेरणा से स्वदेशी का संकल्पकरोड़ों “अन्त:करणों” की परम्परागत धार्मिक आस्था में से उद्भूत यह प्रतिज्ञा ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भारतीय राष्ट्रवाद की युद्ध-घोषणा थी। वस्तुत: राष्ट्रभक्ति का स्रोत राजनीति या आर्थिक प्रेरणा में नहीं, अंत:करण की उस श्रद्धा में होता है जिसे आजकल “साम्प्रदायिकता” कहा जाने लगा है, किन्तु जो मूलत: संस्कृति-निष्ठा या राष्ट्रधर्म है। पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न बंगाल को इस राष्ट्रधर्म का साक्षात्कार होने लगा था। अत्यन्त आधुनिक और तर्कवादी सुरेन्द्रनाथ बनर्जी जैसे व्यक्ति को भी महान आदर्शों के लिए संघर्ष और त्याग की प्रेरणा देने में इस संस्कृति या धर्मनिष्ठा की भूमिका का अनुभव हुआ। वे अपनी आत्मकथा में लिखते हैं, “भाषण करते हुए मेरी आंखें मंदिर में विराजमान देव-प्रतिमा पर गड़ गईं, मेरा दिमाग उस स्थान की पवित्रता से भर गया और यकायक अनजाने ही मैं श्रोताओं का आह्वान कर बैठा कि खड़े होकर अपने आराध्य देवता के सामने प्रतिज्ञा करो। मैंने प्रतिज्ञा बोली और पूरी सभा ने खड़े होकर प्रतिज्ञा को दोहराया। मेरे भाषण एवं प्रतिज्ञा की भाषा बंगाली थी। प्रतिज्ञा के शब्द थे, “सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को साक्षी करके और भावी पीढ़ियों का ध्यान करके मैं शपथ लेता हूं कि यथासंभव मैं विदेशी वस्तुओं को छोड़कर स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करूंगा।”सुरेन्द्रनाथ बनर्जी पर साम्प्रदायिक दृष्टि या धर्मान्धता का आरोप लगाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वे लिखते हैं कि “ऐसी शपथ को मैंने कभी सोचा भी नहीं था। यह केवल उस स्थान की महिमा थी कि यकायक यह प्रेरणा मुझमें जग गई। वहां का वातावरण कितना प्रभावी था इसकी कल्पना इसी से हो सकती है कि वहां उपस्थित 15 हजार लोग यकायक उठ खड़े हुए, और उन्होंने एक स्वर से उस शपथ को दोहराया। इस दृश्य ने जो गहरा प्रभाव पैदा किया वह बहुत स्पष्ट था। कुछ समय तो हमारे आलोचकों की बोलती बंद रही किन्तु बाद में उन्होंने हम पर आलोचना की वर्षा शुरू कर दी। हमने उनकी आलोचना सुनी किन्तु उन्हें कान से निकाल कर हम अपने रास्ते पर बढ़ते गए।”भारत की जय, नहीं किसी का भयपूरा वातावरण देश भक्ति की धार्मिक श्रद्धा से ओतप्रोत हो गया। सब स्थानों पर मंदिरों में एकत्र होकर भगवान को साक्षी करके बहिष्कार और स्वदेशी की प्रतिज्ञा ली जाने लगी। स्वदेशी का व्रत धार्मिक श्रद्धा से जुड़ गया। “संध्या” और “बंगवासी” जैसे पत्रों ने लिखा कि “लीवरपूल” के नमक और विदेशी चीनी को साफ करने में गाय और सुअर के चरबी और खून का इस्तेमाल होता है इसलिए वे धर्म भ्रष्ट करती हैं। पढ़ा लिखा आधुनिक बंगाल 1857 के क्रांतियुग में पहुंच गया था। प्रत्येक गली-कूचे में देशभक्ति के गीत गूंजने लगे थे। पूरे बंगाल में विभाजन के विरोध में शोक का वातावरण था। शोक प्रदर्शन के लिए छात्रों की टोलियां नंगे पैर देशभक्ति के गीत गाते हुए, वन्देमातरम् का नारा लगाते विद्यालयों को जाती थी, विपिन्न चन्द्र पाल ने उस समय गूंज रहे देशभक्ति के कुछ गीतों की बानगी दी हैगाओ भारतेर जय, जय भारतेर जय।की भय, की भय, गाओ भारतेर जय।।छिन्न-भिन्न हीन बल्, एक्यते पाईये बल।मायेर मुख उज्ज्वल करिते की भय?गाओ भारतेर जय।(भारत की जय गाओ तो भय किसका? छिन्न-भिन्न बलहीनता को एकता के बल से दूर करो, माता के मुख को उज्जवल करने में भय किसका?)बहिष्कार और स्वदेशी के संकल्प को शक्ति देता था यह गीत-मोटेर ताई भालो, मायेर घरेर शुद्धु भात।मायेर घरेर घी सैन्धव, मायेर बगानेर केलापात।मायेर देइया मोटा कापड, माथाय तुले ने रे भाई।।(मां के घर का शुद्ध भात मोटा हो तो भी भला, मां के घर का घी-नमक, मां के बगीचे के केले का पत्ता, मां का दिया मोटा कपड़ा भी माथे से लगा मेरे भाई। )सामाजिक बहिष्कार का अस्त्रमातृ भक्ति में से उपजी यह श्रद्धा संक्रामक हो गई थी। पुरोहितों-पंडितों ने घोषणा कर दी कि वे विदेशी वस्त्र पहनने वालों का विवाह संस्कार नहीं कराएंगे, पूजा विधि में विदेशी वस्तुओं का प्रयोग सहन नहीं करेंगे। नवद्वीप के पुरोहित ने घर-घर जाकर स्वदेशी का अलख जगाने का निश्चय किया। नाईयों ने कहा कि हम विदेशी वस्त्र पहने लोगों के बाल नहीं काटेंगे, धोबियों ने कहा कि हम विदेशी वस्त्रों को नहीं धोएंगे। चर्मकारों ने कहा कि हम विदेशी जूतों की मरम्मत नहीं करेंगे। सेना की तीन बटालियनों ने विदेशी वस्त्रों से बनी वर्दी पहनने से मना कर दिया और दण्ड पाया। छात्रों ने कहा कि हम विदेशी कागज से बनी परीक्षा कापी पर परीक्षा नहीं देंगे। छात्रों ने विदेशी वस्तुओं की होली जलाना शुरू कर दिया। विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर पथराव होने लगा। सामाजिक बहिष्कार का भाव कितना प्रबल था कि नादिया में चन्द्रकान्त पाल नामक व्यक्ति का, विदेशी चीनी का इस्तेमाल करने के लिए उसकी जात बिरादरी ने, पुरोहित और नाई ने बहिष्कार कर दिया। कृष्ण नाई ने छिपकर उसकी हजामत कर दी तो उनके सगे बहनोई ने उसे डांटा-फटकारा। बांकुडा के हलवाइयों ने विदेशी चीनी इस्तेमाल करने वाले पर 100 रुपए जुर्माना लगाने की घोषणा कर दी। बीरभूम के सूरी बाजार में विदेशी सिगरेट की होली जलाई गई। दीनाजपुर में डाक्टरों, वकीलों और मुख्तारों ने मारवाड़ियों को धमकी दी कि यदि वे विदेशी माल का आयात करेंगे तो वे उनके लिए काम नहीं करेंगे। सामाजिक बहिष्कार के इस वातावरण से घबराकर बंगाल की मारवाड़ी कामर्स चेम्बर ने मानचेस्टर की कामर्स चेम्बर को 1 सितम्बर, 1905 को तार भेजा कि वे अपनी सरकार पर दबाव डालकर बंग-भंग को वापस कराएं वरना अब उनके माल को यहां बेचना असंभव हो जाएगा। लंदन के डेली न्यूज अखबार के विशेष संवाददाता नेविन्सन ने लिखा है कि एक दिन देर रात पांच या छह बड़े व्यापारी छिपकर उसके पास आए। उन्होंने बताया कि नाई हमारी हजामत नहीं बनाते, दूधिये हमें दूध नहीं देते, मित्रगण हमारी बेटियों की शादियों में नहीं आ रहे, हमारे परिचित हमें नमस्कार नहीं करते। हमारी स्थिति बहुत दयनीय हो गई है। क्या आप अपनी सरकार को यह जन-विरोधी निर्णय वापस लेने के लिए नहीं मना सकते?जन भावनाओं का उफान 16 अक्तूबर को बंग-भंग दिवस पर बहुत ही मार्मिक रूप में प्रगट हुआ। कविवर रवीन्द्र नाथ के आह्वान पर केवल कलकत्ता में नहीं तो पूरे बंगाल में वह दिन शोक, गंगा स्नान और राखी तृतीया के रूप में मनाया गया। उस दिन पूरा कलकत्ता बंद रहा, घरों में चूल्हे नहीं जले, ब्राह्म मुहूर्त में ही सब नर-नारी, सभी जाने-माने बड़े लोग नंगे पैर गंगा नदी की ओर चल पड़े, संकीर्तन करती प्रभात फेरियां, वन्देमातरम् का घोष करती छात्र टोलियां, अद्भुत दृश्य था। गंगा स्नान करके शुद्ध हुए लोग जगह-जगह चौराहों-पार्कों में एकत्र होकर एक-दूसरे को पीले सूत की राखी “हम एक हैं, हम एक रहेंगे” शब्दोच्चार के साथ बांधने लगे। छोटे – बड़े का भेद मिट गया, पूरा समाज एकता के रंग में रंग गया। दोपहर को 3 बजे फेडरेशन हाल का शिलान्यास समारोह हुआ। वयोवृद्ध आनन्द मोहन बोस को मृत्यु शय्या से खाट पर लाया गया। उन्होंने अंग्रेजी में संयुक्त बंगाल का घोषणा पत्र पढ़ा। रवि बाबू ने उसका बंगला में अनुवाद किया। वहां से 50,000 की भीड़ नंगे पैर दो मील पैदल चलकर बाग बाजार पहुंची। वहां पुन: स्वदेशी का संकल्प दोहराया गया। आन्दोलन के लिए धन संग्रह हुआ। 7,0000 रुपए एकत्र हो गए। और बहिष्कार आंदोलन स्वदेशी आन्दोलन का रूप धारण करने लगा।(27 मई, 2005)NEWS

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