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सम्पादकीय

by
May 6, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 May 2005 00:00:00

व्यवहार में हम “भाई” के अर्थ का कितना ही दुरुपयोग करें, लेकिन उसकी भावना में जो पवित्रता है, वह हमारी कालिमा से कभी मलिन नहीं होती।-प्रेमचन्द (गोदान, 33)अब इस देश को गुस्सा क्यों नहीं आता?बिहार में जो हुआ वह लोकतांत्रिक शर्म की हदें पार करने वाला ही कहा जाएगा। लेकिन क्या फर्क पड़ता है! हदें तो उसकी पार हों जिसके पास शर्म हो। अब इसके आगे क्या? ध्यान रखना होगा कि लोकतंत्र वैसा ही चलता है जैसा लोक का मिजाज होता है। आपातकाल लागू करने के लिए किसी औपचारिक सरकारी घोषणा की आवश्यकता नहीं होती, आपातकाल तो एक मानसिकता है। सिर्फ सत्ता के जोर से परिस्थितियां बनाने की आवश्यकता होती है। और जिस देश के समाज का चरित्र, स्वरूप और स्वभाव ऐसा हो कि सत्ता भय के आगे नैतिक आदर्श, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संविधान की मर्यादा और लोकतांत्रिक आदर्शों पर व्याख्यान देने वाले दुम दबाकर कुर्सी के आगे सलाम बजाने लगते हैं, उस देश में प्रतिरोधी सत्ता के सामने हिम्मत के साथ खड़े होना एक दुर्लभ गुण है। सिर्फ तीन सप्ताह बाद ही आपातकाल की 30वीं काली सालगिरह आ रही है। क्या माहौल बना था उस समय! आज के ऐसे अनेक स्वनामधन्य पत्रकार और सम्पादक, जो सत्ता की चाटुकारिता में लगे हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करने के उपकरण बन रहे हैं, उस समय भी सत्ता के लाल कालीन बन गए थे। उन्हें यह देखकर खुशी होती थी कि रेलगाड़ियां वक्त पर चल रही हैं, दफ्तर में अनुशासन हो गया है, विपक्ष अनुपस्थित है, सरकार रचनात्मक कार्य कर रही है और देश प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है। यहां तक कि संत विनोबा भावे ने भी “आपातकाल अनुशासन पर्व है” कहा, ऐसा प्रचारित हुआ था। हालांकि बाद में इस पर भी संशय किया गया। लेकिन जो लोग हिम्मत के साथ खड़े हुए, जिन्होंने अपने सम्पादकीय खुले छोड़े, जो आपातकाल की अंधेरी रातों में सत्ता द्वारा गिरफ्तार किए गए, जेलों में ठूंसे गए, जिनके अखबार प्रतिबंधित किए गए, वे ही लोकतंत्र के रक्षक कहलाए और समाज ने एक ऐसी करवट ली कि जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रांति का सूत्रपात हुआ। उसके आगे की कहानी एक अलग विषय है। लेकिन सत्ता का दमन कुछ ही समय तक चल पाता है, यह भी उतना ही सत्य है जितना सत्य यह है कि आज वे लोग भी, जो आपातकाल के समय हिम्मत के साथ कांग्रेस की तानाशाही के विरुद्ध खड़े हुए थे, हिन्दुत्वनिष्ठ विचार परिवार के विरुद्ध सत्ता के निर्लज्ज आक्रमण को केवल वैचारिक मतभेद के कारण समर्थन देते दिख रहे हैं। यह स्वातंत्र्य चेतना की एक अजब विडम्बना है।और यह भी एक विडम्बना है कि आधी रात के वक्त विदेश गए राष्ट्रपति से लोकतंत्र विरोधी आदेश पर स्वीकृति लेने और प्रधानमंत्री की राजस्थान यात्रा से पहले ही उस विधानसभा को भंग करवाने के अलोकतांत्रिक काम पर कहीं देश में गुस्सा नहीं दिखता। जिस देश और जिस समाज को गुस्सा नहीं आता उसके बारे में या तो यह कहा जा सकता है कि भविष्य तमाम संभावनाओं और आशाओं को छोड़ निराश हो गया है तथा अब उसे किसी भी दल या संगठन से उम्मीद नहीं बची है। अथवा उसका गुस्सा सम्भवत: सही वक्त और अवसर की बाट जोह रहा है।NEWS

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