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मंथन

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Apr 9, 2005, 12:00 am IST
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दिंनाक: 09 Apr 2005 00:00:00

न्यायमूर्ति लाहोटी की पीड़ापूरे देश की पीड़ादेवेन्द्र स्वरूपदेवेन्द्र स्वरूप23 अगस्त स्वाधीन भारत के इतिहास में एक अविस्मरणीय दिन रहेगा। उस दिन भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश के मुख से करोड़ों भारतीयों की अन्तर्वेदना फूट पड़ी। जब न्यायमूर्ति रमेश चन्द्र लाहोटी ने भारत के अटर्नी जनरल मिलन बनर्जी और अतिरिक्त सालिसिटर जनरल गोपाल सुब्राह्मण्यम को बहुत पीड़ा और आक्रोश भरे स्वर में कहा कि वे अपने मुवक्किल अर्थात् भारत सरकार को जाकर कह दें कि यदि न्यायालय के निर्णयों का उनकी दृष्टि में कोई महत्व ही नहीं है, यदि वे इन निर्णयों को शिरोधार्य करने के बजाय उन्हें टकराव के रूप में देखते हैं, यदि वे संसद में अपने बहुमत का दुरुपयोग इन निर्र्णयों को उलटने के लिए करना चाहते हैं, तो क्यों नहीं वे न्यायालयों पर ताला ठोंक देते और अपनी मनमानी के लिए स्वतंत्र हो जाते? न्यायमूर्ति लाहोटी के इस विस्फोट का प्रसंग था कि दलित ईसाइयों को आरक्षण की सुविधा देने हेतु उन्हें अनुसूचित जातियों में सम्मिलित करने के लिए एक जनहित याचिका एक-डेढ़ वर्ष से सर्वोच्च न्यायालय में लंबित थी। ईसाइयों के वोट पाने के लोभ में सत्तारूढ़ दल नहीं चाहता था कि सर्वोच्च न्यायालय इस याचिका पर विचार करे। न्यायालय ने सरकार के दबाव के सामने झुकने से इंकार कर दिया और फरवरी, 2005 में उस याचिका पर विचार करने का निर्णय कर लिया। 23 अगस्त को उस पर सुनवाई शुरू होनी ही थी कि अटर्नी जनरल ने तीन न्यायमूर्तियों- आर.सी. लाहोटी, जी.पी. माथुर एवं पी.के. सुब्राह्मण्यम की खंडपीठ को सूचना दी कि कल रात को केन्द्र सरकार ने एक आयोग नियुक्त किया है, जो अनुसूचित जातियों में सम्मिलित करने के लिए ईसाई जातियों की पहचान करेगा। स्पष्ट ही यह निर्णय सर्वोच्च न्यायालय को अलग रखकर ईसाई वोटों को रिझाने की चाल थी, जिसकी तीव्र प्रतिक्रिया सर्वोच्च न्यायाधीश पर हुई।राष्ट्रविरोधी उपायन्यायमूर्ति की पीड़ा कोटि-कोटि भारतवासियों के मन की मूक पीड़ा है। यह राष्ट्र ठगा सा देख रहा है कि पिछले 58 वर्षों में एक ऐसा राजनीतिक नेतृत्व देश में उभरा है जिसके जीवन की एकमात्र प्रेरणा व्यक्तिगत सत्ता प्राप्ति है, जिसके लिए राष्ट्र से बड़ा दल और दल से बड़ा अपना निजी स्वार्थ बन गया है। जो अपनी सत्ताकांक्षा को पूरी करने के लिए किसी भी राष्ट्रविरोधी अनैतिक उपाय को अपनाने के लिए तैयार है। जिसने भारत की इतिहास प्रदत्त विविधता को राष्ट्रीय भावना के सूत्र में गूंथ कर परस्पर पूरक और एकात्म बनाने के बजाय परस्पर विरोधी एवं प्रतिस्पर्धी बना दिया है, वोट बैंकों में परिणत कर दिया है, स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उभरी एकता की भावना को छिन्न-विच्छिन्न कर भारतीय समाज को भाषा, जाति, क्षेत्र एवं मजहब के आधार पर पूरी तरह विखंडित कर दिया है। आरक्षण के जिस हथियार को गांधी जी ने भारतीय समाज को विखंडित करने की ब्रिटिश कूटनीति को विफल करने के लिए मजबूरी में उठाया था और जिसे सामाजिक समता के आदर्श को पाने के लिए स्वाधीन भारत के संविधान में एक समय वह आपद्धर्म के रूप में अपनाया गया था, उसे इन सत्तालोभी राजनीतिज्ञों ने अपनी वोट बैंक राजनीति का स्थायी हथियार बना लिया है। वे सर्वोच्च न्यायालय की बार-बार की चेतावनी की अवहेलना करके आरक्षण की परिधि को क्रमश: छोटा करने के बजाय उसका विस्तार करते चले जा रहे हैं। आरक्षण प्रारम्भ हुआ था केवल अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को आर्थिक, शैक्षणिक दृष्टि से केवल दस वर्ष के भीतर शेष समाज की बराबरी में लाने के उद्देश्य से, जन्मना जाति की दीवारों को गिराने के लिए। पर अब वह जन्मना जाति-व्यवस्था को चिरस्थायी कराने का माध्यम बन गया है। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के एक बहुत छोटे से वर्ग ने, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने क्रीमी लेयर (मलाईदार परत) कहा है, अपना निहित स्वार्थ पैदा कर लिया है। अपने करोड़ों भाई-बहनों को गरीबी और अशिक्षा की दलदल में छोड़कर यह वर्ग उनका चौधरी बना बैठा है और उनके नाम पर मलाई खा रहा है। आरक्षण का आधार गरीबी और अशिक्षा न होकर जन्मना जाति बन गयी है। आरक्षण की परिधि का विस्तार यादव, कुर्मी, लोध जैसी मध्यम जातियों तक हो गया है। यहां तक कि शक्तिशाली जाट जाति भी अब आरक्षण की परिधि में आने को छटपटा रही है। आरक्षण का अर्थ हो गया है अपनी योग्यता और क्षमता को बढ़ाने की कोशिश करने की बजाय अपनी अयोग्यता और अक्षमता के साथ आरक्षण के चोर दरवाजे से उच्चतम शिक्षा और नौकरियों की सीढ़ियों पर चढ़ते जाना। स्थिति यहां तक पहुंच गयी है कि तमिलनाडु राज्य में 69 प्रतिशत स्थान शिक्षा व नौकरियों के आरक्षण की परिधि में आ गये हैं। जन्मना जाति पर आधारित आरक्षण के सामने अब तपस्या द्वारा अर्जित योग्यता, क्षमता एवं प्रतिभा का कोई मूल्य नहीं बचा है। क्या संसार में कोई भी राष्ट्र क्षमता, योग्यता और प्रतिभा की उपेक्षा करके समृद्ध और सशक्त बन सका है?जिस वर्ग के उद्धार के लिए आरक्षण नीति का वस्तुत: आविष्कार हुआ था उसने इस नीति का कितना लाभ उठाया है इसका “इकानामिक एण्ड पालिटिकल वीकली” नामक प्रसिद्ध साप्ताहिक में 2000 में प्रकाशित एक सर्वेक्षण से पता लग सकता है। किसी वर्जीनिया एक्साक्सा नामक संस्था द्वारा आयोजित यह सर्वेक्षण बताता है कि 1999-2000 के सत्र में दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए आरक्षित 22 प्रतिशत स्थानों में से स्नातकीय कक्षाओं में केवल 8.6 प्रतिशत अनुसूचित जाति और केवल 1.8 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के छात्र मिल पाये। यदि स्नातक स्तर तक की शिक्षा का पूरा लाभ वे नहीं उठायेंगे तो मेडिकल व इंजीनियरिंग आदि उच्च व्यावसायिक शिक्षा का लाभ वे कैसे उठा सकते हैं? उन क्षेत्रों में जिस क्षमता और योग्यता का होना आवश्यक है उसे कैसे अर्जित कर सकते हैं? होना तो यह चाहिए कि सरकार प्राथमिक से स्नातक स्तर तक की शिक्षा आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों तक पहुंचाने के लिए सामाजिक प्रतिबद्धता और प्रयास का वातावरण पैदा कराती। उसके आगे मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि व्यावसायिक शिक्षा देने वाले संस्थानों की प्रवेश परीक्षा में सफल होने के लिए इन वर्गों के छात्रों के लिए विशेष कोचिंग कक्षाओं का आयोजन करती और इन सुविधाओं का पूरा लाभ उठाने की तड़प व परिश्रम कराने की भावना उनमें जगाती। पर राजनीतिज्ञों ने आरक्षण की इस महत्वपूर्ण सुविधा को अपने वोट बैंक पक्का करने के लिए खैरात बांटने का माध्यम बना लिया।भयावह स्थितिराज्य एवं केन्द्र सरकारों पर काबिज राजनीतिज्ञों ने सरकारी एवं सहायता प्राप्त संस्थानों में आरक्षण नीति को लागू कराने का ठेका अपने हाथ में ले लिया है। क्रमश: इस क्षेत्र में सरकारी सहायता न लेने वाले निजी संस्थानों की बाढ़ आ गयी और अब स्थिति यह है कि मेडिकल एवं इंजीनियरिंग आदि की शिक्षा देने वाले सरकारी एवं सहायता प्राप्त संस्थानों की तुलना में आत्मनिर्भर निजी संस्थानों की संख्या बहुत अधिक है। पर इन शिक्षा संस्थानों में भी आरक्षण नीति लागू करने का अधिकार राजनीतिज्ञों ने अपने पास ले लिया है। स्थिति कितनी भयावह है इसका अनुमान 69 प्रतिशत आरक्षण अपनाने वाले तमिलनाडु राज्य के आंकड़ों से लग सकता है। तमिलनाडु में सरकारी और सहायता प्राप्त इंजीनियरिंग शिक्षा संस्थानों में केवल 4,000 सीटे हैं, जबकि गैर सहायता प्राप्त निजी संस्थानों में 78,000 सीटें हैं। इनमें से भी 40,500 सीटों पर सरकार ने आरक्षण नीति के तहत कब्जा जमा लिया है। यह सत्य है कि इन संस्थानों को आरम्भ करने वाले अधिकांश लोगों की मुख्य प्रेरणा शिक्षा प्रसार न होकर अपने लिए आर्थिक लाभ एवं राजनीतिक प्रभाव कमाना है। अत: उनकी प्रवेश प्रक्रिया पारदर्शी नहीं रहती। सत्तारूढ़ राजनीतिज्ञ इन प्रवृत्तियों पर अंकुश नहीं लगा पाते, क्योंकि वे स्वयं आरक्षण नीति के अपने अधिकार का मनमाने ढंग से दुरुपयोग करते हैं।बार-बार निजी संस्थानों में प्रवेश की समस्या सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के सामने आयी है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी ओर से “केपीटेशन फीस” पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया, जिसकी क्षतिपूर्ति इन संस्थानों के मालिकों ने सामान्य फीस में भारी वृद्धि करके कर ली। सर्वोच्च न्यायालय ने इस समस्या पर तीन बार विचार करके निर्णय दिये। पहली बार पांच सदस्यीय खंडपीठ ने टी.एम.ए.पाई. फाउण्डेशन बनाम कर्नाटक राज्य सरकार विवाद में 30 अक्तूबर को एक निर्णय दिया। पुन: 11 सदस्यीय खंडपीठ ने इस्लामिक एकेडेमी मामले में 14 अगस्त, 2003 को निर्णय दिया और अब न्यायमूर्ति आर.सी. लाहोटी की अध्यक्षता में 7 सदस्यीय खंडपीठ ने ईनामदार बनाम महाराष्ट्र राज्य सरकार मामले में 12 अगस्त, 2005 को एक निर्णय दिया। इस निर्णय में उन्होंने पहले के दो निर्णयों को आधार बनाकर ही निर्णय दिया कि केन्द्र या राज्य सरकारें निजी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश नीति के बारे में कोई व्यावहारिक व व्यापक कानून बनायें ताकि उनकी प्रवेश प्रक्रिया योग्यता पर आधारित हो व पारदर्शी हो। तब तक के लिए न्यायालय ने इन संस्थानों में आरक्षण नीति थोपने पर रोक लगा दी। जिसे अहंकारी राजनीतिज्ञों ने न्यायपालिका और विधायिका के बीच टकराव का रूप दे दिया। लोकसभा के अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी और मानव संसाधन मंत्री अर्जुन सिंह से लेकर अनेक छुटभैया राजनीतिज्ञों ने सर्वोच्च न्यायालय के प्रति अपमानजनक, अशालीन भाषा का प्रयोग किया। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को संसद में बदलने की धमकी दे डाली। तर्क दिया गया कि न्यायपालिका और विधायिका के क्षेत्र पृथक हैं। अत: न्यायपालिका का कार्यक्षेत्र केवल संविधान की व्याख्या तक सीमित है, उसे विधायिका एवं कार्यपालिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। किन्तु यदि न्यायपालिका संविधान की व्याख्या के आधार पर कोई निर्णय दे तो उसे संसद में अपने बहुमत का उपयोग कर संविधान संशोधन के द्वारा उलटने को क्या कहा जाए? क्या यह न्यायपालिका के कार्यक्षेत्र में राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं है? क्या यह न्यायपालिका की अवमानना नही है? सर्वोच्च न्यायालय के विरुद्ध इस प्रचार अभियान की शुरुआत लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने की, जो किसी एक अखबार में भी अपनी आलोचना को पढ़कर तिलमिला जाते हैं और उसे संसद की अवमानना का मामला बना देते हैं।संविधान की धज्जियांयहां प्रश्न खड़ा होता है कि स्वाधीन भारत द्वारा अंगीकृत विश्व के सबसे विशालकाय संविधान में केवल 55 वर्ष की अवधि में जो 90 से अधिक संशोधन हुए हैं, क्या वे राष्ट्र कल्याण की कामना से प्रेरित रहे हैं?. या राजनीतिज्ञों की व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा की पूर्ति के लिए वोट बैंक राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए? क्या इन्दिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण एवं राजाओं की “प्रिवीपर्स” को समाप्त करने के निर्णय सस्ती लोकप्रियता कमाने एवं कांग्रेस की अन्दरूनी सत्ता-संघर्ष में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए नहीं किए थे? क्या 1975 में उन्होंने प्रयाग उच्च न्यायालय द्वारा अपने निर्वाचन को रद्द करने के निर्णय की अवहेलना करके स्वयं को प्रधानमंत्री की गद्दी पर बनाए रखने के लिए देश पर आपातकाल नहीं थोपा था? और क्या 42वें संविधान संशोधन के द्वारा न्यायपालिका के हाथ-पैर नहीं बांध दिये थे? क्या 1989 में उनके पुत्र राजीव गांधी ने शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायोचित निर्णय को मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने के लिए संविधान संशोधन द्वारा नहीं उलट दिया था? राजनीतिक नेतृत्व अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए संविधान की धज्जियां उड़ाने एवं समाज को परस्पर विरोधी वोट बैंकों में विभाजित करता जाय तो राष्ट्र की एकता एवं नैतिकता की रक्षा करने के लिए न्यायपालिका के अलावा और रह ही कौन जाता है?नब्बे से अधिक संशोधन करने वाले राजनीतिक नेतृत्व ने संविधान में विद्यमान उन अन्तर्विरोधों एवं अदूरदर्शी भावुक अनुच्छेदों को दूर करने की दिशा में कभी नहीं सोचा, कोई कदम नहीं उठाया। जबकि उनका लाभ विभाजनकारी एवं पृथकतावादी शक्तियां समाज तथा राजनीति के विखंडन के लिए कर रही हैं। उदाहरणार्थ, 3 जून, 1947 को देश-विभाजन के अंतिम निर्णय के पूर्व संविधान सभा ने जो अल्पसंख्यक संबंधी अनुच्छेद अपनाये क्या उन पर पुनर्विचार होना आवश्यक नहीं है? उपासना की पूर्ण स्वतंत्रता देने वाले, अनेक उपासना पंथों को समान आदर देने वाले इस देश में क्या उपासना की दृष्टि से अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक भाषा का कोई आधार है? किन्तु इन अनुच्छेदों में अब राजनीतिज्ञों ने निहित स्वार्थ पैदा कर लिया है। ये अनुच्छेद उनके लिए वोट बैंक तैयार करने का हथियार बन गए हैं। सौभाग्य से सर्वोच्च न्यायालय इस दिशा में चिन्तित दिखायी देता है। न्यायमूर्ति आर.सी. लाहोटी के नेतृत्व में वर्तमान न्यायपीठ राजनीतिज्ञों की आंख की किरकिरी बन गयी है। इस न्यायपीठ ने झारखण्ड में एक अनैतिक राज्यपाल की मनमानी पर अंकुश लगाया। इस न्यायपीठ ने असम में विदेशी घुसपैठियों का वर्चस्व स्थापित करने वाले आई.एम.डी.टी. एक्ट को निरस्त करके वहां की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी का वोट बैंक खिसका दिया। 8 अगस्त को इस न्यायपीठ ने जैन समाज को अल्पसंख्यक दर्जा देने की याचिका को खारिज करते हुए अल्पसंख्यकवाद को समाप्त करने वाला जो निर्णय दिया है वह इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित होगा। उस निर्णय में कहा गया है कि उपासना के आधार पर इस देश में कोई भी समूह बहुसंख्यक नहीं है। अल्पसंख्यक होने की भावना विभेदकारी है, इसे क्रमश: दूर करना चाहिए। अल्पसंख्यक समूहों की संख्या को छोटी करनी चाहिए। देश को भावनात्मक एकता की ओर आगे बढ़ाना चाहिए।किन्तु एक शक्तिशाली, स्वाभिमानी, एक्यबद्ध राष्ट्रजीवन की ओर बढ़ाने वाले ये निर्णय छोटे दिल और दिमागों के राजनीतिज्ञों के लिए असह्र हैं। उनकी समूची वोट राजनीति इन भेदों पर ही पल रही है। वे अपने वोट बैंक पक्का करने के लिए आरक्षण नीति का विस्तार अब ईसाइयों एवं मुसलमानों के लिए भी करना चाहते हैं और निर्लज्जता के साथ इस बात का प्रचार कर रहे हैं। देश में दो समानान्तर न्याय प्रणालियों के अस्तित्व पर भी उन्हें आपत्ति नहीं है, क्योंकि फतवों वाली मजहबी न्याय प्रणाली के विरुद्ध मुंह खोलने से अपना वोट बैंक खिसकने का भय उन्हें सताता है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को ही इस दिशा में भी कदम उठाना पड़ा है। पर न्यायपालिका की सीमायें हैं। वह केवल निर्णय दे सकती हैं, उन्हें क्रियान्वित नहीं करवा सकती। क्योंकि कार्यपालिका और विधायिका दोनों पर सत्तालोभी राजनीतिज्ञों का अधिकार है। इस स्थिति का उपाय क्या है? प्राचीन भारत में राज्याभिषेक के समय राजा कहता था, “अदंडयोऽस्मि” अर्थात् मुझे कोई दण्ड नहीं दे सकता। तब राजपुरोहित उसकी पीठ पर कोड़ा मारकर कहता था कि तुम्हें दण्ड देने का अधिकार धर्म के पास है। और धर्म का अंकुश मेरे अर्थात् सर्वत्यागी ब्रााह्मण के हाथ में है। प्रजातंत्र में यह अंकुश अब केवल जनता के हाथ में है। क्या भारत की जनता एकजुट होकर इस संघर्ष में न्यायपालिका के पीछे खड़ी होगी? इसके अलावा कोई मार्ग अब देश के सामने नहीं है?26.8.2005NEWS

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