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पारित किया जन-विरोधी पेटेंट कानून
काला कानून
-आनंद
18मार्च को अफ्रीका के कई प्रमुख शहरों-नैरोबी, कंपाला आदि- में सैकड़ों की तादाद में प्रदर्शनकारी इकट्ठे हुए थे। भारत सरकार द्वारा पेटेंट कानून लाए जाने के प्रयासों के विरोध में इन प्रदर्शनकारियों ने धरने दिए और इस बात पर दु:ख जाहिर किया कि विश्व व्यापार संगठन और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव के आगे एक ऐसे देश की सरकार ने घुटने टेक दिए हैं जिससे उन्हें बहुत उम्मीदें थीं। दुनिया के कई अन्य हिस्सों से भी गैर सरकारी संगठनों ने भारत सरकार से गुहार की थी कि वह उस पेटेंट कानून को न बनाए जिसके कारण गरीब व मध्यम वर्ग को जीवनदायिनी दवाओं से वंचित होना पड़ेगा, क्योंकि बढ़ी हुई कीमतों के कारण वे उनकी पहुंच से बाहर हो जाएंगी।
इधर भारत में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने मानवीय सरोकारों और देश के हितों पर इस पेटेंट कानून की बदौलत मंडरा रहे खतरे को समझते हुए संसद के भीतर इसका विरोध आरंभ किया। पेटेंट कानून का विरोध करने के मामले में इस बार वामपंथी भी मुखर थे। पर जैसा कि पहले होता आया है, ऐन मौके पर वामपंथियों ने पाला बदल लिया। उनका तर्क था कि सरकार ने इस कानून में उनके सुझाए संशोधन स्वीकार कर लिए हैं इसलिए वे इस कानून को पारित करवाने में सरकार की मदद करेंगे। अंतत: भाजपा के प्रखर विरोध के बावजूद यह काला कानून लोकसभा में 22 मार्च को पारित हो ही गया। प्रस्तावित पेटेंट कानून से देश के हितों पर चोट पहुंचेगी। उल्लेखनीय है कि संप्रग सरकार द्वारा इस ताजा पेटेंट कानून के माध्यम से 1970 में बने पेटेंट कानून में संशोधन किए गए हैं। सन् 1970 के कानून में उत्पादों पर पेटेंट का प्रावधान था, उत्पादन प्रक्रियाओं पर नहीं। इसका सबसे बड़ा लाभ भारत सहित तीसरी दुनिया के कई अन्य देशों को सस्ती दवाओं के उत्पादन के रूप में हुआ। स्थानीय स्तर पर उत्पादन प्रक्रियाओं का विकास कर उन्हीं दवाओं को भारतीय दवा कंपनियां कई गुना कम कीमतों पर बेचने में सक्षम थीं जिन दवाओं को बहुराष्ट्रीय कंपनियां महंगी कीमतों पर बेच रही थीं। न केवल भारत में निम्न और मध्यम वर्ग को इससे लाभ हुआ बल्कि दुनिया के अन्य कम विकसित व विकासशील देशों में भी भारत द्वारा इन सस्ती दवाओं को बड़े पैमाने पर निर्यात किया जा रहा था।
अफ्रीका, दक्षिण एशिया और लातिनी अमरीकी देशों के लाखों एड्स रोगियों में से करीब पचास फीसदी भारत से आयात की जा रहीं सस्ती दवाओं की बदौलत ही इस जानलेवा बीमारी से सफलतापूर्वक जूझ पा रहे थे। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दवाओं की कीमत की तुलना में भारतीय दवाओं की कीमत मात्र पांच फीसदी थी। पर अब संप्रग सरकार के नए पेटेंट कानून की बदौलत भारत में इन सस्ती दवाओं का उत्पादन नहीं हो पाएगा और केवल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का ही इस क्षेत्र में एकाधिकार स्थापित हो जाएगा। ऐसे में इस कानून का अपने देश में भी लाखों लोगों पर जबरदस्त दुष्प्रभाव पड़ने वाला है। संप्रग सरकार के इस अमानवीय और गरीब विरोधी कानून की भत्र्सना करते हुए पेरिस स्थित अन्तरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन “डाक्टर्स विदाउट बार्डर्स” ने इसे भारत में “जेनेरिक” दवाओं के उत्पादन के अंत की शुरुआत करार दिया। इस ताजा कानून में अब भारतीय कंपनियों द्वारा पुरानी दवाओं में फेरबदल करने के बाद भी उन्हें पेटेंट देने में आनाकानी का प्रावधान है। दवाओं की “नई खोज” की परिभाषा को इतना सख्त कर दिया गया है कि केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियां ही नई दवाओं के पेटेंट आसानी से करवा पाएंगी। साथ ही इन कंपनियों द्वारा बनाई जा रही दवाओं को देशी कम्पनियां अब बिना इजाजत नहीं बना पाएंगी। इजाजत लेने के लिए इतनी भारी “रायल्टी” देनी पड़ेगी, जो छोटी और मध्यम स्तर की ज्यादातर कम्पनियों के बूते से बाहर की बात है। भारतीय दवा उद्योग से भारत अरबों रुपए की विदेशी मुद्रा कमा रहा है, लाखों लोगों को इसमें रोजगार मिला है। संप्रग सरकार के इस ताजा पेटेंट कानून के कारण न केवल बहुमूल्य विदेशी मुद्रा से भारत को हाथ धोना पड़ेगा बल्कि बड़ी संख्या में दवा कम्पनियों के बंद होने की संभावना के कारण लाखों लोगों का रोजगार भी छिन सकता है। लेकिन वामपंथियों ने एक बार फिर दोगला रुख अपना कर उसी सर्वहारा की बरबादी के फरमान पर मुहर लगा दी जिसके नाम पर वे अपनी राजनीतिक दुकान चलाते हैं।
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