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चीन की नजर का खतराभारत के कूटनीतिज्ञों के लिए चिन्तन का समय- बालेश्वर अग्रवाल1988 के जन आंदोलन को बर्मा (अब म्यांमार) के सैनिक तानाशाहों ने जिस प्रकार क्रूरतापूर्वक कुचल डाला था, उससे विश्व के सभी प्रजातांत्रिक देश उसके विरुद्ध हो गए थे। भारत ने भी अमरीका एवं ब्रिटेन की तरह बर्मा की प्रजातांत्रिक नेता आंग सान सू ची का खुलेआम समर्थन करना प्रारंभ कर दिया था। उसे जवाहर लाल नेहरू पुरस्कार से विभूषित किया गया। इस बीच चीन सरकार ने मौके का फायदा उठाकर हर प्रकार से बर्मा के सैनिक शासकों की सहायता की। बर्मा के बाजार चीन के माल से भर गए। बर्मा को आवश्यक सैनिक सहायता भी चीन की ओर से दी गई। चीन की सहायता से प्रोत्साहित होकर बर्मा के सैनिक शासक प्रजातंत्र के विरुद्ध डटे रहे। 1990 में संसद के लिए हुए चुनाव में आंग सान सू ची के समर्थक भारी संख्या में विजयी हुए, फिर भी सैनिक शासकों ने आज तक संसद की बैठक ही नहीं होने दी और सू ची को कई वर्षों तक उनके निवास में ही नजरबंद रखा। पूर्वोत्तर भारत के आतंकवादी गुटों को बर्मा में प्रशिक्षण देने का कार्य भी विधिवत चलता रहा, ताकि वे भारत विरोधी कार्रवाई करते रहें। लगभग एक दशक के बाद भारत ने बर्मा की स्थिति पर पुन: विचार किया और बर्मा सरकार से कामकाजी सम्बंध स्थापित किए। भारत-बर्मा के सीमावर्ती क्षेत्रों में विनिमय के आधार पर व्यापार चालू हो गया। सीमा क्षेत्र स्थित मोरेह से मांडले तक सड़क बनाने की योजना को मंजूरी दे दी गई। गत वर्ष बर्मा के राष्ट्रपति औपचारिक निमंत्रण पर भारत भ्रमण हेतु आए। इसके बावजूद आज भी बर्मा के बाजार पर चीन का ही कब्जा है। बर्मा की अधिकतम सैनिक सामग्री चीन से ही आती है। राजनीतिक एवं व्यापारिक दृष्टि से अभी तक बर्मा चीन के प्रभाव क्षेत्र में है।क्या नेपाल भी बर्मा की तरह चीन के प्रभाव क्षेत्र में आ जाएगा? यह प्रश्न नेपाल की वास्तविक स्थिति जानने वाले लोगों के मस्तिष्क में दौड़ रहा है। 1 फरवरी, 2005 को नेपाल नरेश ने अपने ही द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्री श्री शेर बहादुर देउबा को अपदस्थ कर शासन सूत्र अपने हाथों में ले लिया और देश में आपात स्थिति घोषित कर दी थी। कारण, माओवादी गतिविधियों को पिछली सरकारें नियंत्रित करने में असफल रही थीं।नेपाल अभी तक अपनी अधिकतम सैनिक सामग्री भारत से ही लेता आ रहा था। वामपंथी दलों के दबाव में भारत सरकार ने 1 फरवरी के बाद से नेपाल को सैनिक सामग्री भेजना बंद कर दिया। जकार्ता में भारत के प्रधानमंत्री एवं नेपाल नरेश की भेंट के बाद कुछ असैनिक सामग्री नेपाल को भेजी गई, परन्तु हथियार तथा गोलाबारूद भेजना बन्द ही रहा। माओवादियों से मुकाबला करने के लिए नेपाली सेना को हथियारों की बहुत अधिक आवश्यकता थी। भारत की तरह ब्रिटेन एवं अमरीकी सरकारों ने भी नेपाल को सैनिक सामग्री की आपूर्ति रोक दी।ऐसी स्थिति का लाभ उठाने में चीन की सरकार ने जरा भी देरी नहीं की। 1 फरवरी को नेपाल नरेश द्वारा उठाए गए कदमों को चीन ने नेपाल का आंतरिक मामला घोषित किया। नेपाल नरेश जकार्ता के बाद चीन की यात्रा पर गए। नेपाल के अन्य मंत्री भी चीन गए और उनकी पारस्परिक वार्ता हुई। अभी हाल ही में नेपाल के विदेश मंत्री श्री रमेश दत्त पांडे चीन की सरकारी यात्रा पर गए थे। वहां से वापस आने के बाद काठमांडू में पत्रकारों से वार्ता में उन्होंने कहा कि भारत से सैनिक सामग्री नहीं मिलने के कारण उन्हें चीन की ओर देखना पड़ रहा है। चीन ने तत्काल 160 करोड़ रुपए की सैनिक सामग्री भेजना स्वीकार कर लिया है। काठमांडू से ल्हासा की सीधी बस सेवा चालू हो गई है। हालांकि चीन ने सरकारी तौर पर घोषित किया है कि वह नेपाल के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा। दोनों देशों के बीच व्यापारिक सम्बंध और सुदृढ़ होंगे।भारत के रक्षा विशेषज्ञ इस बात से चिंतित हैं कि नेपाल में माओवादियों का प्रभाव बढ़ने के बाद भारत-नेपाल की 1,700 किलोमीटर लम्बी सीमा असुरक्षित हो जाएगी। विश्व के आतंकवादी नेपाल के रास्ते बहुत बड़ी संख्या में भारत में प्रवेश करने लगेंगे। भारत के विभिन्न राज्यों में नक्सली हिंसा को और अधिक प्रोत्साहन मिलेगा।चीन सरकार ने नेपाल के विकास के लिए समय-समय पर धन न देकर अपना सामान ही भेजा है। इसके फलस्वरूप काठमांडू के बाजार चीन निर्मित सामान से भर गए हैं और अवैध तरीके से भारत में भी पहुंचने लगे हैं। अब नेपाल और चीन के बीच व्यापारिक सम्बंध अच्छे होने के फलस्वरूप नेपाल के बाजार में बर्मा की तरह चीन निर्मित सामान का भंडार हो जाएगा और सैनिक सामग्री भी चीन से ही आने के कारण नेपाल चीन के सहयोग पर ही निर्भर रहने लगेगा। इस कारण नेपाल की विदेश नीति प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगी।NEWS
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