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सम्पादकीय

by
Dec 6, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Dec 2005 00:00:00

हमारे देश में राजनीति का उपयोग या तो अपने को आगे बढ़ाने की सीढ़ी के तौर पर किया जाता है और नहीं तो वह अवकाश के समय हमारे विनोद का साधन होती है।-महात्मा गांधी (जी.एस.अरुंडेल को पत्र, 4-8-1919)कितनी राजनीति?अगर कोई भारतवर्ष के अखबारों तथा इलेक्ट्रानिक चैनलों पर प्रसारित होने वाले समाचारों को देखे तो यह पाएगा कि इस देश में सिवाय राजनीति के और कोई धंधा होता ही नहीं है। यहां केवल राजनीति के कारखाने हैं, राजनीति की दुकानें हैं, राजनीति के विद्यालय हैं, राजनीति के ही माफिया अड्डे हैं। और बाकी जो कुछ भी है वह इतना गौण, नगण्य तथा प्रकाशन के अयोग्य है कि जिसके बारे में कुछ न छापना ही इस देश के बौद्धिक पुरुष तथा लेखक और पत्रकार उचित मानते हैं।विडम्बना तो यह है कि जो लोग कहते हैं कि वे राजनीति से दूर हैं तथा जो राजनीति के संदर्भ में दिल खोलकर आलोचनात्मक टिप्पिणयां करते हैं, वे स्वयं राजनीति के दलदल में गले तक धंसे दिखते हैं। समाचार पत्रों का तो हाल यह है कि दिल्ली, पटना, श्रीनगर जैसे राजनीतिक गर्मी से भरे केन्द्रों के अलावा बाकी के बारे में उनकी चिन्ताएं तथा संवेदनाएं लगभग मर चुकी हैं। अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग और तिरप जिले में पिछले दिनों वहां के राज्यपाल गए। केवल उनके जाने की ही खबर इसलिए बनी क्योंकि पिछले 13 वर्ष से कोई भी राज्यपाल वहां नहीं गया था। क्यों नहीं गया था? इसलिए नहीं गया था क्योंकि वहां पर चर्च द्वारा समर्थित नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल आफ नागालैंड ( नेसोकाना) के आतंकवादियों का जबरदस्त दबदबा था। इस कारण उस क्षेत्र में राज्यपाल भी नहीं जाते थे। लेकिन वह क्षेत्र ऐसा बना क्यों? वहां के लोग किस प्रकार से रह रहे हैं? किस प्रकार वहां आतंकवादी गतिविधियों का प्रसार हो रहा है और सरकार का उनके संदर्भ में क्या रुख रहा है? इसके बारे में किसी भी समाचार पत्र में कुछ नहीं छपा।ऐसा लगता है कि जहां केन्द्र की सत्ता को प्रभावित करने वाली गोटियां और शतरंज की बिसात नहीं होतीं वे क्षेत्र भारत वर्ष की तथाकथित मुख्यधारा के समाचार माध्यमों के लिए संदर्भहीन हो जाते हैं। यही स्थिति लक्षद्वीप, अंदमान और लेह जैसे दूरस्थ इलाकों के बारे में है। इनके बारे में तो कोई समाचार तब तक नहीं छपता जब तक सुनामी जैसा बड़ा हादसा न हो जाए। लेह में पिछले दिनों असाधारण रूप से हिमपात हुआ, सैलानी अटके। उसके बाद वहां राजनीतिक गठजोड़ ऐसा हुआ कि जो लोग लेह को केन्द्रशासित प्रदेश का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर पिछले वर्ष कांग्रेस से अलग हुए थे और जिन्होंने केन्द्र शासित प्रदेश मोर्चा बनाया था, उसके अधिकांश लोगों को कांग्रेस ने फिर से तोड़कर मुफ्ती सईद की सरकार में अच्छे पद दे दिए। एक सीमावर्ती क्षेत्र में इस प्रकार की हलचल का भारत के शायद ही किसी राष्ट्रीय समाचार पत्र में दो पंक्तियों में भी समाचार छपा हो। यह भले ही राजनीतिक समाचार होगा परन्तु इसका असर वहां के माहौल पर काफी तीव्रता से पड़ा।इसी प्रकार अब किसानों की आत्महत्याएं खबर रह ही नहीं गई हैं। उत्तर भारत और दक्षिण भारत में किस प्रकार से बदलाव हो रहा है और यह विभाजन रेखा कैसे हर दिन बढ़ती जा रही है, इसके बारे में भी भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों में तो सामान्यत: बहुत कुछ पढ़ने को नहीं मिलता। पढ़ने को अगर मिलता है तो यही बातें कि कान फिल्म महोत्सव में भारतीय अभिनेत्रियों का जलवा किस तरह से छा गया। या हमारे राजनीतिक नेताओं की यात्राओं का सिलसिला कैसे जोर पकड़ रहा है।अब तो बुद्धिकेन्द्रित गतिविधियों में रचे-रमे लोग भी इस बारे में आवाज उठाने में संकोच करते हैं।क्या भारत सिर्फ राजनीति है? इसके अलावा और कुछ भी नहीं?NEWS

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