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बेहिचक अपनी श्रेष्ठता बतानी होगी

by
Oct 4, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Oct 2005 00:00:00

डा.त्रिपुरानेनी हनुमान चौधरीपूर्व सूचना प्रौद्योगिकी सलाहकार, आन्ध्र प्रदेश सरकार तथा महाति सदस्य-टाटा कंस्लटैंसी सर्विसेज एवं पूर्व अध्यक्ष तथा प्रबंध निदेशक-विदेश संचार निगम लिमिटेडहिंदुओं के विरुद्ध हुए प्रत्येक दंगे और हिंदू समाज के मंदिरों पर हुए हर हमले के लिए एक जांच आयोग गठित करने के साथ उनके निष्कर्षों की रपटें प्रकाशित की जानी चाहिए। इतना ही नहीं, इन रपटों के बारे में हिन्दू समाज में अधिकाधिक प्रचार के लिए हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों के समूह बनाने चाहिए। हर किसी को यह बात पता होनी चाहिए कि अविभाजित भारत में रहने वाले मुसलमानों को पृथक निर्वाचन की सुविधा थी। सन् 1946 में केंद्रीय विधान परिषद् के चुनावों में 98.7 प्रतिशत मुसलमानों ने कांग्रेस के राष्ट्रवादी मुसलमानों को मत न देकर, देश के दो टुकड़े करके पाकिस्तान बनाने की मांग करने वाले मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग का हाथ थामा था। जबकि कांग्रेस को मत देने वाले 1.3 प्रतिशत मुसलमानों में अधिकांश, सच्चे राष्ट्रवादी सीमांत गांधी के नाम से विख्यात खान अब्दुल गफ्फार खान और उनके भाई खान साहिब के नेतृत्व वाले उत्तर पश्चिम सीमावर्ती प्रांत के रहने वाले थे।ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर पंथनिरपेक्ष महात्मा गांधी, समाजवादी जवाहरलाल नेहरू और राष्ट्रवादी मौलाना अब्दुल कलाम आजाद मात्र 1.3 प्रतिशत मुस्लिम मत प्राप्त कर सके तो क्या हिन्दुत्व की विचारधारा से निकली भाजपा और उसके नेता हजारों उर्दू शिक्षकों की भर्ती करके, हज यात्रा में दी जाने वाली सरकारी सहायता को घटाने की बजाय बढ़ाने जैसे वायदे करके मुसलमानों के मत हासिल कर सकते थे? जिन्ना और मुस्लिम लीग के लिए गांधी की कांग्रेस, खिलाफत आंदोलन में हिन्दुओं की भागीदारी पक्की करने के बावजूद हिन्दू पार्टी ही रही। ऐसे में क्या भाजपा नेतृत्व को लगता है कि भारत में रहने वाले मुसलमान, उसे एक हिन्दू पार्टी न मानकर एक पंथनिरपेक्ष और राष्ट्रीय पार्टी मानेंगे? कभी-कभी ऐसा क्यों लगता है कि भाजपा अपनी हिंदू पहचान से परेशान है? जर्मनी और इटली में भी तो ईसाई लोकतांत्रिक दल हैं, क्या जर्मनी और इटली की सरकारें पंथनिरपेक्ष नहीं हैं? क्या भारत में मुसलमानों की इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग और एम.आई.एम. पार्टियां नहीं हैं?हिंदुत्व पर काफी बहस हो चुकी है, पर आखिर में यह हिंदुत्व है क्या? क्या हमने इसके लिए कोई बौद्धिक विषय वस्तु तैयार की है, जिसका इस विषय पर एक पाठ के रूप में प्रयोग किया जा सके? चर्च में पादरी और मस्जिद में मौलवी वहां जाने वालों को वर्तमान संदर्भ में अपने-अपने संप्रदायों की प्रासंगिकता समझाते हैं। पर हमें हिंदुत्व के बारे में कौन बताता है? सनातन धर्म में तो मंदिर जाने की भी अनिवार्यता नहीं है, अगर हम मंदिर जाते भी हैं तो पुजारी सिर्फ पूजा के अलावा कुछ भी करवाने की स्थिति में नहीं होता। ऐसे में कौन है जो हमें हिंदुत्व के सनातन स्वरूप के विषय में निर्देश देता है, जिससे हमारी सोच विकसित हो सके और हम हिंदुत्व को लेकर ईसाई, मुस्लिम और वामपंथी आलोचनाओं का उचित प्रत्युत्तर दे सकें? हमारे घरों में बेशक हर त्योहार मनाया जा रहा हो पर हमारे बच्चों को इन असंख्य त्योहारों के अर्थ और महत्व को समझाने वाला कोई नहीं है। इतना ही नहीं, इनमें से अनेक तो अपने हिन्दू विचार के आधारभूत तथ्यों अथवा हिन्दू विश्वास और पूजा-पद्धति के महत्व से ही अनजान हैं। वर्तमान में हमारे बच्चे सरकारी अथवा कान्वेंट विद्यालयों में पढ़ रहे हैं, जहां हिन्दुत्व विरोध के चलते महाभारत, रामायण और भगवद्गीता की कहानियों को पाठ्यक्रम से हटाया जा चुका है। ऐसी स्थिति में हिन्दू बच्चों को न घर, न विद्यालय और न समाज, कहीं भी संगठित रूप से हिंदुत्व के बारे में कोई निर्देश अथवा जानकारी नहीं मिल रही है, जिससे उसमें विश्वास रखते हुए वे ईसाइयत, वामपंथ और इस्लाम के हमले का मुकाबला कर सकें।सरकारी, कान्वेंट और अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में पंथनिरपेक्ष शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों का हिन्दू चिंतन व दर्शन का ज्ञान शून्य है। इसके उलट हिन्दुओं में दहेज हत्या, जातिवाद, दलित उत्पीड़न और रूढ़िवादिता को लेकर सार्वजनिक बहस के कारण अपने धर्म व परम्पराओं के प्रति एक जुगुप्सा है। हिंदुत्व के विषय में किसी प्रकार के निर्देश और शिक्षा न होने की स्थिति में हमारे भीतर उसके प्रति अपनत्व न होने के कारण, अन्य दो संप्रदायों और राजनीतिक मत की तुलना में हिंदुत्व के पिछड़ेपन के बारे में हिंदुओं को सहमत करना और किसी को मतांतरित करना कहीं आसान होता है।हिंदुओं के अनेक संन्यासी और साधु तथा कथित हिंदू विद्वान यह बात कहते नहीं अघाते कि सभी संप्रदाय एक ही बात सिखाते हैं और कोई भी संप्रदाय हिंसा और असहिष्णुता नहीं सिखाता। अगर हम ऐसा मानते हैं तो ईसाइयत में मतांतरित होने में क्या खराबी है, जबकि ऐसा करने पर आपको धन, नि:शुल्क चिकित्सा, छात्रवृत्ति, ऋण माफी, अमरीका की सैर जैसी सुविधाएं मिलती हों। और अगर वे अनुसूचित जाति अथवा जनजाति से हों तो भी उन्हें आरक्षण की सुविधा (क्योंकि ईसाइयत में मतांतरित करने वाले आरक्षण का लाभ उठाने की गरज से मतांतरण का खुलासा नहीं करने की बात कहते हैं) से हाथ नहीं धोना पड़ेगा।हिन्दुत्वनिष्ठ विचारों के वाहक के सांस्कृतिक और बौद्धिक प्रकोष्ठों को यह बात पूरी तरह खुलकर और आक्रामक ढंग से रखनी होगी कि सभी संप्रदाय समान शिक्षा नहीं देते। हमें अंतर दिखाकर यह बताना होगा कि किस तरह इस्लाम और ईसाइयत के विचार, हिंदुत्व से बेहतर नहीं हैं। और इस बात का भी खुलासा करना होगा कि कैसे ये दोनों संप्रदाय और वामपंथ अपने ही विचार, अपने पैगंबर तथा ईश्वर को अंतिम सत्य मानकर मानव संघर्ष के बीज अंकुरित कर रहे हैं। हमें यह बताना होगा कि यह सोच और विचार मानवता के विरुद्ध है।अगर हम सार्वजनिक रूप से अपने हिंदुत्व की विश्व दृष्टि में बिना किसी हिचक के पूरी निष्ठा से विश्वास नहीं रखते तो हिंदुओं को ईसाई बनाने के अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र का मुकाबला नहीं किया जा सकता। वाममंथी, हिंदुत्व का विद्रुपीकरण करके और उसे ही समस्त गरीबी और अन्याय का एकमेव कारण बताकर ईसाइयत की राह को आसान कर रहे हैं। पिछले साल (अक्तूबर 2004 में) आंध्र प्रदेश में प्रतिबंधित पी.डब्ल्यू.जी. के प्रमुख रामकृष्ण ने हैदराबाद में दलितों और ईसाई संगठनों की ओर से आयोजित एक समारोह में कहा था कि हिंदुत्व को मिटाए बिना सामाजिक न्याय को नहीं प्राप्त किया जा सकता।अयोध्या मुद्दे पर सोमनाथ से निकली लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा की वजह से मंडल आयोग के कारण उत्पन्न जातिगत विद्वेष निश्चित रूप से कम हुआ और अयोध्या में बाबरी ध्वंस होने से सभी भाजपा समर्थकों को खुशी हुई पर उसके बाद अयोध्या के विषय में कुछ नहीं किया गया। यहां तक कि उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर पुरातत्वविदों द्वारा किए गए उत्खनन कार्यों की रपट भी प्रकाशित नहीं हुई। अब हम अयोध्या में राम जन्मस्थान की बात कर रहे हैं? आखिर हम फिर इस बात का क्या उत्तर दें कि भाजपा ने सत्ता में रहते हुए मन्दिर निर्माण के संदर्भ में क्या किया? भाजपा को इस विषय पर आत्मचिंतन करना चाहिए और सार्वजनिक रूप से यह बात घोषित करनी चाहिए कि वह हिंदू राष्ट्र का समर्थन करती है जो कि अपनी मूल मान्यताओं के कारण स्वभावत: पंथनिरपेक्ष है, साथ ही यह घोषणा भी करे कि राज्य का कोई पंथ नहीं होगा और सरकार सभी संप्रदायों को समान आदर देगी तथा मुसलमानों और ईसाइयों को कोई वरीयता नहीं दी जाएगी और इन्हें दी जाने वाली सुविधाओं से हिंदुओं को वंचित नहीं किया जाएगा।संविधान में अनुच्छेद 29 और 30 के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों को शैक्षिक संस्थान खोलने की सुविधा का अल्पसंख्यकों द्वारा दुरुपयोग हो रहा है और इन संस्थानों से होने वाली आय का इस्तेमाल हिंदुओं के मतांतरण के लिए हो रहा है। आंध्र प्रदेश में 1.4 प्रतिशत आबादी वाले ईसाई अपने शिक्षण संस्थानों की लगभग 95 प्रतिशत सीटें हिंदुओं को बेच रहे हैं। ये संस्थान अपने रिकार्ड में हिंदू छात्रों की जानकारी के बिना उन्हें ईसाइयों के रूप में दर्ज करके, अमरीका में बैठे अपने आकाओं से मतांतरण के नाम पर मोटी रकम ऐठते हैं। अकेले इंजीनियरिंग महाविद्यालयों से ईसाई संगठन हिन्दुओं से 90 करोड़ और मुस्लिम संस्थान हिन्दुओं से 120 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष एकत्र करते हैं और स्वाभाविक रूप से यह सारा धन हिंदुत्व को कमजोर करने के लिए व्यय किया जाता है। इसके साथ यह भी जरूरी है कि हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों को हिंदू मंदिरों के प्रबंधन में सरकारी दखल को समाप्त करने के लिए आंदोलन करना चाहिए। उदाहरण के लिए आंध्र प्रदेश में हिन्दू धर्मादा बोर्ड में क्रिप्टो ईसाई, हिंदुत्व के शत्रु तथा अनास्थावान लोग भर दिए गए हैं। ये लोग चर्चों, ईसाई विद्यालयों के पक्ष में हिंदू मंदिरों की जमीन को सौंपने की कोशिश में लगे हैं। और तो और अब बड़े स्तर पर इन जमीनों को उन गरीब हरिजनों, जो कि ईसाइयत में मतांतरित हो चुके हैं (पर आरक्षण की सुविधा समाप्त होने के भय से अपनी पहचान छिपाए हुए हैं) को देने की बात हो रही है। अब राष्ट्रवादी हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों और उसके वैचारिक राजनीतिक दल भाजपा के लिए आत्मचिंतन करके समस्त भ्रमों को दूर करने का समय आ गया है। उन्हें जीवन के विविध क्षेत्रों-विचार, संस्कृति, आर्थिक नीति, विकास, शिक्षा, जनसंख्या, राष्ट्रीय सुरक्षा, अंतरराष्ट्रीय संबंध, उद्योग और रोजगार-में विशेषज्ञता प्राप्त करके सार्वजनिक बहस छेड़कर एक आंदोलन शुरू करना होगा और जनता को यह विश्वास दिलाना होगा कि हम भारत के विकास के लिए हिंदुत्व के साथ एक समन्वित नीति और दृष्टि भी रखते हैं।NEWS

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