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इस तरह जगेगा हिन्दू, तो घटेगा नहीं

by
Oct 4, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Oct 2005 00:00:00

रमेश पतंगे

संपादक,

साप्ताहिक विवेक (मुम्बई)

इस वर्ष 2 से 16 फरवरी तक महाराष्ट्र में चार समरसता यात्राओं का आयोजन किया गया था। नासिक में 2 फरवरी को रा.स्व.संघ के सरकार्यवाह श्री मोहनराव भागवत तथा “स्वामी समर्थ भक्त मंडल, डिंडोरी” के श्री अण्णा साहब मोरे की उपस्थिति में इस यात्रा का शुभारंभ हुआ। नासिक के सुप्रसिद्ध कालाराम मंदिर में प्रमुख पुजारी महामण्डलेश्वर श्री सुधीरदास ने इस यात्रा की सफलता हेतु रामयज्ञ का आयोजन किया। चूंकि पहले से यज्ञ-कार्यक्रम सामाजिक समरसता मंच के कार्यक्रमों की सूची में नहीं था, अतएव यात्रा पूर्व ऐसी धार्मिक विधि सम्पन्न होनी चाहिए या नहीं, यह प्रश्न उत्पन्न हो गया। परंतु इस कालाराम मंदिर की जैसी विशिष्ट सामाजिक पृष्ठभूमि है, उसे ध्यान में रखते हुए यह कार्यक्रम करने का निर्णय लिया गया।

सन् 1930 में डा. बाबा साहब अम्बेडकर ने इसी कालाराम मंदिर में प्रवेश के लिए सत्याग्रह किया था। अछूत भी हिन्दू ही हैं, भगवान राम सभी हिन्दुओं के देवता हैं, इसलिए “राम के मंदिर में स्पृश्य हिन्दुओं के साथ हमें भी प्रवेश मिलना चाहिए”, सत्याग्रह के पीछे की उनकी यह धारणा थी। परन्तु उस समय के सनातनी लोगों और मंदिर के पुजारियों को यह बात अमान्य थी। तब इस मंदिर के प्रमुख पुजारी थे रामदास जी महाराज, जिन्होंने इस विरोध का नेतृत्व किया। अस्पृश्य मंदिर में प्रवेश न करने पाएं, इसलिए मंदिर की ओर जाने वाले सभी मार्ग बंद कर दिए गए। यह आंदोलन पांच साल चला। लेकिन सफल न हो पाया। तब 1935 में डा. बाबा साहब अम्बेडकर ने येवला में यह घोषणा की-“मेरा जन्म हिन्दू के रूप में हुआ है मगर मेरी मृत्यु हिन्दू के रूप में नहीं होगी।” बाद में, 1956 में उन्होंने नागपुर में बौद्ध पंथ स्वीकार किया। कालाराम मंदिर के वर्तमान पुजारी श्री सुधीरदास उन्हीं रामदासजी के पौत्र हैं। उनके दादाजी ने डा. अम्बेडकर के आन्दोलन के समय जो ऐतिहासिक भूल की थी, उसका कैसा विपरीत परिणाम हुआ, यह उन्होंने महसूस किया है। इसीलिए उन्होंने स्वयं यज्ञ का आयोजन किया। पूजन पर बैठे लगभग हम सारे कार्यकर्ता गैरब्राह्मण समाज के, कुछ शूद्र तो कुछ अस्पृश्य कही जाने वाली जाति के थे। संघ संस्कारों के कारण हमारे मन से जात-पात की भावना पूरी तरह मिट चुकी है। लेकिन यहां इस बात का विशेष रूप से उल्लेख करने का इतना ही कारण है कि अब यह जात-पात की भावना मंदिर के पुजारियों के मन से भी मिट चुकी है। यह बहुत बड़े सामाजिक परिवर्तन का परिचायक है।

इस सामाजिक परिवर्तन के दो महान शिल्पकार हैं। एक हैं डा. बाबासाहब अम्बेडकर और दूसरे हैं संघ संस्थापक डा. हेडगेवार। सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में डा. अम्बेडकर का नामोल्लेख करना स्वाभाविक है। सामाजिक परिवर्तन का संघर्ष डा. अम्बेडकर का जीवनकार्य था। जबकि डा. हेडगेवार का नाम सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में न तो महाराष्ट्र में लिया जाता है, न ही देश में। इसलिए यह प्रश्न अवश्य पूछा जा सकता है कि सामाजिक परिवर्तन का श्रेय डा. अम्बेडकर के साथ डा. हेडगेवार को भी आप कैसे देते हैं? महाराष्ट्र के नई सोच वाले विचारकों का तो यह पसंदीदा प्रश्न है। इसीलिए सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में डा. हेडगेवार का अलौकिक कार्य समझ कर हमें उसका आकलन अवश्य करना चाहिए।

समाज परिवर्तन आसान काम नहीं है। समाज परिवर्तन का अर्थ है समाज के लोगों के विचार और आचरण में मूलगामी परिवर्तन लाना। केवल ऊ‚परी व्यवस्था में परिवर्तन लाने से यह कार्य सिद्ध नहीं हो सकता। समाज परिवर्तन का अर्थ है समाज की मानसिकता में परिवर्तन। एक कहावत है- केवल कलम बदलकर हाथों की लिखावट नहीं बदल सकते हैं। इसी प्रकार व्यवस्था परिवर्तन के नारे कितने ही क्यों न लगाए जाएं, जब तक मानसिकता में परिवर्तन नहीं होता तब तक नारों की ध्वनि कानों में गूंजने के अलावा कुछ भी नहीं होगा।

“समाज परिवर्तन होना चाहिए”, इसका ढिंढोरा पीटने वाले महाराष्ट्र में पहले से ही बहुत लोग थे, अब तो गली-गली में उनकी पैदावार बढ़ने लगी है। ऐसे ढोलपीटू लोग समाज में परिवर्तन नहीं ला सकते। समाज में परिवर्तन लाने के लिए समाज सामूहिक रूप से जो विचार करता है, उसमें परिवर्तन लाना होता है। इसी प्रकार एक-एक व्यक्ति के मन में भी परिवर्तन लाना होता है। सामूहिक रूप से परिवर्तन लाने का कार्य डा. बाबा साहब अम्बेडकर के आन्दोलन ने किया। चवदार तले, महाड का सत्याग्रह, कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह, पर्वती का सत्याग्रह आदि अनेक संघर्ष समाज मन में परिवर्तन लाने के प्रयास थे।

एक-एक व्यक्ति के मन पर संस्कारों का प्रभाव डालकर व्यक्ति परिवर्तन और ऐसे परिवर्तित व्यक्तियों के द्वारा समाज संगठन का मार्ग डा. हेडगेवार ने अपनाया था। डा. हेडगेवार ने व्यक्तियों के मन में कौन-से संस्कार रोपे? उनके द्वारा स्थापित संस्कारों के बारे में सूत्र रूप में बताना हो तो वे इस प्रकार हैं-

मैं विशाल हिन्दू समाज का अंगभूत घटक हूं।

इस हिन्दू समाज से मेरा जीवंत सम्बंध है। यह अंगागिभाव का नाता है।

समाज मेरे लिए नहीं बल्कि मैं समाज के लिए हूं।

हम में कोई छोटा-बड़ा नहीं है, कोई हीन नहीं है, कोई भी पतित नहीं है।

यह सारा समाज ही मेरा विशाल परिवार है। इस विशाल परिवार का मैं एक सदस्य हूं।

समाज के सुख में मेरा सुख है और समाज के दु:ख में मेरा दु:ख है।

सभी प्रकार से समाज की सेवा करना मेरा परम कर्तव्य है। समाज के लिए जीना मुझे सीखना चाहिए।

तत्वों के अनुसार मुझे अपना आचरण रखना चाहिए। मेरा चारित्र शुद्ध रहना चाहिए।

डा. हेडगेवार ने व्यक्ति-व्यक्ति में संस्कार जगाने वाली कौन-सी कार्यपद्धति दी? उनका स्वयं का व्यवहार कैसा था? समाज के अनुकूल जीवन कैसे जीना चाहिए, इसका वे आदर्श थे। स्वयं के जीवन में से उन्होंने चारित्र का महान आदर्श खड़ा किया। वे जैसा कहते थे, वैसा करते थे। उन्होंने संस्कार देने वाली संघ शाखा की कार्यपद्धति निर्मित की। प्रतिदिन संस्कार जगाना आवश्यक होता है, इसलिए दैनंदिन संघशाखा का महत्व बताया। रा.स्व.संघ की स्थापना के बाद अपने केवल पन्द्रह वर्षों के अत्यल्प जीवनकाल में उन्होंने मानसिक परिवर्तन का एक महान चमत्कार कर दिखाया।

डा. हेडगेवार ने संघ के स्वयंसेवकों के मन में जो परिवर्तन किए, उन्हें सूत्रबद्ध रूप से हम इस प्रकार कह सकते हैं-

स्वयंसेवकों के मन में से जाति-भावना मिटा डाली।

स्वयंसेवकों के मन से छुआछूत का भाव मिटा डाला।

स्वयंसेवकों को समग्र हिन्दू समाज से भावात्मक रूप से एकात्म किया।

भाषा एवं प्रांत के अभिमान से स्वयंसेवकों को मुक्त किया।

स्वयंसेवकों का दृष्टिकोण राष्ट्रीय बनाया।

स्वयंसेवकों के मन को विशाल बनाकर अपने समाज के सभी महापुरुषों के बारे में आत्मीय भाव निर्माण किया।

स्वयंसेवकों में सभी को साथ लेकर चलने की व्यापक दृष्टि निर्मित की।

अपना धर्म, अपना इतिहास, अपने जीवन मूल्य, अपने मानबिन्दु, अपने श्रद्धास्थान आदि के विषय में प्रखर स्वाभिमान जाग्रत किया।

डा. हेडगेवार ने समाज की मानसिकता में जो परिवर्तन किये, उसके परिणाम स्वरूप जिस-जिस क्षेत्र में भी स्वयंसेवक गए, उस- उस क्षेत्र में उन्होंने व्यापक आधार का निर्माण करके कार्य खड़ा किया। समरसता मंच और उसके द्वारा इस यात्रा का आयोजन इसका उदाहरण है। समरसता मंच ने समरसता यात्रा में जो रथ बनाया, उस रथ पर ज्योतिबा फुले, डा. अम्बेडकर, राजर्षि शाहू, गाडगे जी महाराज और डा. हेडगेवार की प्रतिमाएं रखीं। मंच के सभी कार्यकर्ताओं के मन में अगर केवल डा. हेडगेवार की ही प्रतिमा रखने का विषय आता तो वह स्वाभाविक ही होता। लेकिन यह तो “डा. हेडगेवार की वैचारिक पराजय” जैसी बात हो जाती। “यह समाज अपना है और इस समाज के सभी महापुरुष भी अपने ही हैं” इस महावाक्य की अवज्ञा हो जाती।

इस समरसता यात्रा के प्रवास में, येवला की जिस भूमि पर डा. अम्बेडकर ने जो उद्घोषणा की थी, “हिन्दू के रूप में मैंने जन्म तो लिया है मगर हिन्दू के रूप में मेरी मृत्यु नहीं होगी”, उस भूमि का हम वंदन कर आए। डा. अम्बेडकर का यह वाक्य हमें हिन्दू समाज नाशक नहीं लगा क्योंकि डा. अम्बेडकर का जीवन वैसा नहीं था और उनका कृति रूप आचरण भी कहीं से हिन्दू समाज के विरुद्ध नहीं था। वास्तव में इस वाक्य के पीछे जो मूल भावना थी उसे हम आज यदि समझ सकते हैं तो यह समझने वाला विशाल मन डा. हेडगेवार ने तैयार किया।

इस यात्रा के दौरान न्यायमूर्ति रानडे की जन्मभूमि, देवी अहिल्याबाई का जन्मस्थान, सावित्रीबाई फुले का मूल गांव, रमाबाई अम्बेडकर का मूल गांव, डा. हेडगेवार का मूल गांव, गाडगे जी महाराज का ऋणमोचन स्थल, डा. अम्बेडकर के मूल गांव आदि सभी स्थानों के दर्शन किए गए।

समाज परिवर्तन निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। एक अणु का विभाजन होने के उपरांत वह दूसरे अणु का विभाजन कराता है। अर्थात् विभाजन की श्रृंखला शुरू हो जाती है। इस विभाजन प्रक्रिया से अणु में सुप्त प्रचंड ऊर्जा बाहर निकल आती है। ऐसी ही समाज परिवर्तन की अणुप्रक्रिया डा. हेडगेवार ने 1925 में शुरू की थी। अब श्रृंखला प्रक्रिया में उसका रूपांतरण हो रहा है। इस प्रक्रिया से समाज परिवर्तन की प्रचंड ऊर्जा प्रकट होगी। नासिक के कालाराम मंदिर में आत्मप्रेरणा से रामयज्ञ का आयोजन करके सुधीरदास पुजारी ने इसी बात का सुखद सन्देश दिया है।

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