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सुभाष कश्यप<p style=font-weight:bold;text-align:cen

by
Oct 4, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Oct 2005 00:00:00

सुभाष कश्यप

संविधानविद् एवं

पूर्व लोकसभा महासचिव

वक्त की आहट को पहचानें

अगर व्युत्पत्तिमूलक दृष्टि से विचार किया जाए तो हिंदू, इंदू, इंडिया, इंदी, हिंदी या हिंद-सभी समान रूप से मूल शब्द सिंधु (इंड्स) से जुड़े हुए हैं। अब पाकिस्तान में बहने वाली सिंधु नाम की यह महान नदी पवित्र मानसरोवर से निकलकर भारत के एक छोटे से भू-भाग पर बहती है। सिंधु के पार रहने वाले निवासियों को हिंदू नाम विदेशियों ने दिया था, क्योंकि अरब सिंधु को हिंदू के रूप में ही उच्चारित कर सकते थे। कालांतर में यूनानियों ने सिंधु को “इंडस” कहा और यह देश पश्चिम में इंडिया के रूप में प्रसिद्ध हो गया। यह पहचान सिंधु-पार रहने वाले समस्त निवासियों के लिए थी, जिसका उनके संप्रदाय या नस्ल से कोई संबंध नहीं था।

वेद, उपनिषद्, महाभारत और रामायण को रचने वाले प्राचीन ऋषि-मुनि और श्रीराम तथा श्रीकृष्ण जैसे हिंदू महापुरुष मात्र हिंदू, मुस्लिम या ईसाई न होकर निर्विवाद रूप से हम सभी भारतीयों के पूर्वज थे। विभिन्नता और अनेकता की तमाम बातों के बावजूद हमें इस तथ्य पर विश्वास करने और गर्व करने की आवश्यकता है। पांच हजार साल से भी अधिक प्राचीन, एकता में अनेकता के भारतीय सिद्धांत के अनुरूप भारत एक देश है और यहां के निवासी एकजन हैं। एक सभ्यता के रूप में अद्भुत जुड़ाव, प्रकृति प्रदत्त क्षेत्र, समान सामाजिक संस्थान, साझा दृष्टिकोण और मूल्य के साथ ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अनुभूति, एक भौगोलिक और सांस्कृतिक इकाई के रूप में भारत की व्यापकता और शाश्वत चेतना का आधार है।

ऐतिहासिक रूप से एकरूपीय समाजों के अभ्यस्त पश्चिमी विद्वानों के लिए भारतीय यथार्थ की अधिकांश विशेषताओं को स्वीकार करना सहज नहीं था, क्योंकि यह एकता और शक्ति की दिशा की ओर ले जाने वाले एक विशेष प्रकार के बहुलवाद, जिसमें नाना प्रकार के समृद्धकारक एकरूप में गुंथे हुए थे, के कारण था। सदियों से ही संस्कृति समग्रता प्रदान करने वाली एक महान शक्ति रही है जबकि राजनीति ने अधिकतर विभाजन का ही काम किया। प्राचीन काल में ऐसा ही था और आज भी स्थिति कोई भिन्न नहीं है।

अनेक प्रकार की भिन्नताओं से समृद्ध भारत में कभी भी एक नस्ल, संप्रदाय और भाषा के आधार पर एक जातीय समाज नहीं रहा। यह देश हमेशा बहुजातीय, बहुनस्लीय, बहुभाषायी और विभिन्न संप्रदायों की क्रीड़ाभूमि रहा। भारतीय समाज के समृद्ध बहुलवाद का आधार उसका खुलापन और कुछ हद तक सहिष्णुता की परंपरा थी। नि:संदेह भारत इस बात का श्रेय ले सकता है कि यहां दुनिया का हर संप्रदाय पहुंचा और फला-फूला। जहां कभी भी यहूदियों को प्रताड़ित नहीं किया गया और पारसियों को शरण के साथ सम्मान भी मिला। और यह सब हिंदुत्व की संस्कृति के कारण संभव हो सका, जिसने हजारों वर्षों से विभिन्न नस्ल, जाति या संप्रदाय के आधार पर बिना किसी भेदभाव के सबको फलने-फूलने दिया।

भारत को अंग्रेजी शासन से अपनी आजादी हासिल करने की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी। स्वतंत्रता संग्राम के नेता सांप्रदायिक आधार पर देश के विभाजन को रोकने में तो विफल रहे परंतु देश की आजादी की कीमत विभाजन के रूप में स्वीकार करने के बावजूद भारतीय नेताओं ने हिन्दुओं और मुसलमानों के दो राष्ट्र होने के सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया। सांप्रदायिक आधार पर देश के विभाजन के बावजूद उन्होंने प्रतिक्रियावादी संविधान के गठन की अपेक्षा हर भारतीय नागरिक, चाहे वह किसी भी संप्रदाय का हो, को पूरे और एक समान स्वतंत्रता तथा अधिकार प्राप्त होने की बात सुनिश्चित की। यहां तक कि उन्होंने एक कदम आगे बढ़कर मजहबी, नस्लीय और अन्य अल्पसंख्यकों को कुछ विशेष अधिकार प्रदान किए जो कि बहुसंख्यक समाज को भी उपलब्ध नहीं थे।

सभ्यताओं का संघर्ष नामक बहुचर्चित पुस्तक के लेखक सैम्युअल हंटिंग्टन ने एक और विचारोत्तेजक पुस्तक “हू ऑर वी?” लिखी है। यह पुस्तक सवाल करती है कि हम कौन हैं? अमरीकी राष्ट्रीय पहचान का मूल अन्य लोगों से किस प्रकार भिन्न है? हंटिंग्टन का दो टूक शब्दों में साफ निष्कर्ष है कि अमरीकी जनता निश्चित रूप से धार्मिक है और अमरीकी राष्ट्रीय पहचान का मूल आंग्ल-प्रोटेस्टेंट संस्कृति है और संप्रदाय और राष्ट्रीयता एक-दूसरे के सहचर हैं। अमरीका एक चर्च की आत्मा वाला देश है। एक समान इतिहास, परंपरा, संस्कृति, नायक और खलनायक, विजय और पराजय से पारिभाषित होने वाली यह आत्मा, उसके मस्तिष्क की रहस्यमयी शिराओं में बसती है। हंटिंग्टन का मानना है कि आज अमरीकी पहचान के समक्ष एक गंभीर संकट मुंह बांये खड़ा है। इस पहचान को गैर-अश्वेत, गैर-आंग्ल-प्रोटेस्टेंट अप्रवासियों की घुसपैठ के कारण पैदा होने वाले जनसांख्यिकीय असंतुलन और दुनिया भर में इस्लामी आतंकवाद के उदय के कारण खतरा पैदा हो गया है। उनके अनुसार, अमरीकी पहचान के क्षरण को केवल अमरीकी-चाहे वे किसी भी जाति अथवा नस्ल के हों, ही रोक सकते हैं। इस क्षरण को रोकने के लिए उन्हें नए सिरे से स्वयं को सदियों से अमरीकी इतिहास की आंग्ल-प्रोटेस्टेंट संस्कृति, परंपरा और मूल्यों के प्रति दोबारा प्रतिबद्ध होना पड़ेगा। दुनिया भर में धर्म के पुनरुत्थान को देखते हुए अमरीकी नागरिकों के अपनी राष्ट्रीय पहचान और राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए दोबारा धर्म की ओर लौटने पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

हंटिंग्टन की मूलभूत रचना और अमरीकी राष्ट्रीय पहचान के विषय में उनके विचार के प्रति ध्यान आकर्षित करने का मेरा उद्देश्य हमारे समक्ष भी यही एक सवाल खड़ा करना है, हम कौन हैं? भारत की राष्ट्रीय पहचान क्या है? अगर हंटिंग्टन के विचार के तर्क को भारत पर लागू किया जाए तो इस विचार पर तत्काल उग्र हिंदू राष्ट्रवाद का ठप्पा चस्पा कर दिया जाएगा। इसके लिए, अमरीका के स्थान पर भारतीय और आंग्ल-प्रोटेस्टेंट अथवा प्रोटेस्टेंट के स्थान पर हिंदू अथवा हिंदुत्व को रखने की आवश्यकता है। ऐसी कोई भी कोशिश करने वाले व्यक्ति की छद्म-उदारवादी बुद्धिजीवी तत्काल पंथनिरपेक्षता-विरोधी हिन्दू सांप्रदायिक कहकर आलोचना करेंगे।

हम वास्तविकता का सामना करें, और वह यह है कि हिंदू पहचान और बहुसंख्यक समाज अलगाववादी आंदोलनों की शक्तिशाली चुनौती, ऊंची प्रजनन दर और घुसपैठ से उनके जनसंख्या अनुपात में वृद्धि से खतरा महसूस कर रहा है। इस पंथनिरपेक्षता को छद्म उदारवादी बुद्धिजीवियों और सांप्रदायिक अथवा पंथनिरपेक्ष नारों के सहारे अपने वोट बैंक को पक्का करने के लिए व्याकुल राजनीतिज्ञों से खतरा है। किसी भी प्रकार से पंथनिरपेक्ष सिद्धांतों में आस्था न रखने वाले सांप्रदायिक संगठनों और सांप्रदायिक प्रतिष्ठानों से भी खतरा है। इसमें कोई शंका नहीं कि हिंदुत्व, प्राचीन काल से लेकर अभी तक कि अपनी यात्रा में अनेक बाह्र प्रभावों से समृद्ध हुआ है पर इस दौरान उसने अपनी मूल पहचान अक्षुण्ण बनाए रखी है।

असली सवाल यह है कि क्या पंथनिरपेक्ष संविधान के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों को संरक्षण प्रदान करने के नाम पर, सांप्रदायिक आधार पर उन्हें विशेष राजनीतिक सुविधाएं देना अराजकतावाद नहीं है? क्या अल्पसंख्यक संप्रदायों को एक राजनीतिक समूह, जिसे वोट बैंक कहा जाता है, में परिवर्तित होने की अनुमति दी जानी चाहिए? किसी भी लोकतंत्र में यह एक आश्चर्यजनक और अत्यंत खतरनाक बात है जब बहुसंख्यक समाज अपने को खतरे में और धीरे-धीरे हारता हुआ महसूस करे। अगर बहुसंख्यक वास्तव में स्वयं को अपमानित महसूस कर रहे हैं, बेशक आज यह बात जाहिर न हो रही हो, तो वह दिन दूर नहीं जब इसकी अभिव्यक्ति विस्फोटक ज्वालामुखी के रूप में होगी। इसका व्यावहारिक और यथार्थवादी उपाय इस समस्या की जड़ पर कुठाराघात करना होगा। सन् 1948 में स्वयं जवाहरलाल नेहरू ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अपने दीक्षांत भाषण में कहा था, आप मुस्लिम हैं और मैं हिंदू हूं। हम बेशक अलग धार्मिक आस्थाओं में विश्वास करते हांे पर इससे आपका उस सांस्कृतिक विरासत पर हक कम नहीं हो जाता, जो आपकी भी उतनी ही है जितनी की मेरी। इससे पहले भी पं. नेहरू ने एक बार कहा था कि अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों पर हावी होने अथवा बहुसंख्यकों को नीचा दिखाने की स्वीकृति नहीं दी जा सकती। आखिरकार, बहुसंख्यकों के भी कुछ अधिकार हैं।

भारत हिंदू मूल्यों और बहुलता के कारण एक पंथनिरपेक्ष देश है और जब तक यहां 80 प्रतिशत हिंदू बहुसंख्यक होंगे, यह पंथनिरपेक्ष बना रहेगा। अब सवाल यह है कि अब हिंदुओं को यह अनुभूति क्यों होने लगी है कि उन्होंने अकेले ही पंथ निरपेक्षता का असहनीय सलीब उठा रखा है?

हाल के वर्षों में पंथनिरपेक्षता और हिंदुत्व को लेकर कुछ विशेष प्रश्न सामने आए हैं? इनमें से कुछ सवालों ने गलत या सही पर, शहरी और ग्रामीण जनसंख्या के बड़े तबके के मन-मस्तिष्क को हिलाकर रख दिया है। इसलिए यह पूछा जाने लगा है कि अगर पाकिस्तान की तर्ज पर बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों का अनुपात उलट जाता है और कुछ राज्यों में बहुसंख्यक अल्पसंख्यक बन जाते हैं तो पंथनिरपेक्षता के हमारे सिद्धांत और मूल्यों का क्या होगा? क्या भारत में या उससे बाहर कोई मुस्लिमबहुल राज्य पंथनिरपेक्ष है? जनगणना के ताजा आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि शेष जनसंख्या की तुलना में मौजूदा बहुसंख्यक समुदाय का अनुपात तेजी से घट रहा है और इसके घटकर 50 प्रतिशत से भी कम होने की स्थिति में, देश में लोकतंत्र तो समाप्त होगा ही हिंदुत्व को भी अपना अस्तित्व कायम रखना कठिन हो जाएगा। हालांकि कुछ लोग ही, भविष्य की इस खतरनाक तस्वीर से सहमत होंगे पर इसमें कोई शक नहीं कि ऐसी आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं। हिंदू संस्कृति के अनिश्चित भविष्य को लेकर हिंदू समाज के भीतर ही भीतर एक असंतोष पनप रहा है। विदेश में किसी के लिए भी, इस हिंदुत्व को समझे बिना भारत को समझना कठिन होगा। ऐसे ही, देश के भीतर सभी प्रकार के राजनीतिक झुकावों या पार्टी हितों के लिए वोट बैंक की चिंता को छोड़े बिना, हिंदुत्व के वैश्विक मूल्यों, सांस्कृतिक जीवन के लिए उसकी अद्भुत खोज और सभी संप्रदायों के प्रति समभाव के विचार की प्रशंसा करने की बात तो सोची ही नहीं जा सकती है। आज के समय की आवश्यकताओं के अनुरूप, हिंदुत्व को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भों में स्पष्ट रूप से नए सिरे से पारिभाषित करने का समय आ गया है। हिंदुत्व और पंथनिरपेक्षता दोनों को राजनीति से बचाने की आवश्यकता है। हमें हिंदुत्व की पहचान के लिए राजनीति से ऊपर उठकर सामाजिक-आर्थिक संदर्भ में एक ऐसा स्वरूप विकसित करना होगा जो कि भारत को बेहतर रूप से समझने में सहायक सिद्ध हो। इस प्रक्रिया में ही, आधुनिक राष्ट्र-राज्य में बहु-सांस्कृतिक और बहु-जातीय आबादी में समन्वय बनाए रखने के लिए कुछ विचार और व्यावहारिक ढांचों का विकास करना होगा।

(हाल ही में नई दिल्ली में हिन्दुत्व पर आयोजित एक सम्मेलन में दिए गए भाषण के मुख्य अंश)

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