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की पोलमीडियाके ये अलीबाबा-ए. सूर्यप्रकाशवरिष्ठ विश्लेषकचुनाव का समय आते ही दुनिया भर के चुनाव सर्वेक्षण, चुनावी आकलन और रुझान देखने में आते हैं। किसी स्थान पर चुनाव का दौर सम्पन्न होने के बाद “एक्जिट पोल” यानी चुनाव बाद के तुरन्त सर्वेक्षण प्रकाशित होते हैं। जहां तक चुनाव पूर्व सर्वेक्षण की बात है तो उसमें किसी को एतराज नहीं होना चाहिए, वे होने चाहिए, उसमें कुछ गलत नहीं है। परन्तु “एक्जिट पोल” प्रत्येक चरण के मतदान के बाद प्रकाशित न करके सभी चरणों के पूरा होने के बाद प्रकाशित होने चाहिए।14वीं लोकसभा के लिए चुनाव आयोग ने चार चरणों-20 अप्रैल, 26 अप्रैल, 5 और 10 मई- में मतदान कराने का निर्णय लिया था। मेरे अनुसार एक-डेढ़ माह तक चुनाव प्रक्रिया चलती रहे, यह चुनाव आयोग में परिपक्वता की कमी झलकाता है। चार चरणों में प्रत्येक चरण के बीच 5-6 दिनों का अंतर समझ से परे है। देश में पहले भी चुनाव कराए जाते थे। एक या दो चरणों में वे सम्पन्न होते थे। लेकिन यह एक-डेढ़ माह तक चुनाव कराना किसी दृष्टि में उचित नहीं है। चुनाव आयोग को अधिक सक्षम होना चाहिए। चुनावआयोग आखिरकार जनता के प्रति जवाबदेह होता है अत: वह जो करता है उसकी जवाबदेही बनती है।”एक्जिट पोल” की बात करें तो जैसा मैंने पहले कहा, प्रत्येक चरण के बाद उनका प्रकाशन सही नहीं है। साथ ही, इतने अधिक, करीब आधा दर्जन संस्थाओं के “एक्जिट पोल” देखने में आ रहे हैं। सभी एक-दूसरे से इतने भिन्न कि एक बार के लिए देखने वाला भी विस्मित हो जाता है। अंतत: वे सारे तथ्यहीन लगने लगते हैं।चुनाव सर्वेक्षणों का इतिहास देखें तो पिछले लगभग 20 वर्ष से ये सर्वेक्षण और आकलन किए जा रहे हैं। इंग्लैंड और अमरीका जैसे विकसित लोकतंत्रों में चुनावी सर्वेक्षण कमोबेश असलियत के नजदीक होते हैं क्योंकि वहां का समाज लगभग एक जैसा होता है यानी भिन्नताएं नहीं होतीं। परन्तु भारत में विविधताओं भरा समाज होने के कारण सर्वेक्षणों के लिए नमूना चुनना उतना आसान नहीं होता। सर्वेक्षणकारों के सामने यह एक बड़ी समस्या होती है। उनमें क्षमता तो बहुत होती है परन्तु चूंकि यहां समाज की बनावट इतनी जटिल है कि सही जानकारी निकाल पाना टेढ़ी खीर होता है। इसलिए इस विधा को पूर्णत: कारगर होने में अभी समय लगेगा।भारत में चुनाव आकलन, सर्वेक्षण अभी नई प्रक्रिया है। व्यवसाय और प्रचार पाने की ललक के कारण बड़ी संख्या में लोग इससे जुड़ गए हैं। लेकिन इस क्षेत्र में उनकी कितनी समझ है, कितना अनुभव है, यह संदिग्ध ही है। ज्यादातर सर्वेक्षणकर्ता नए हैं जिनमें उतनी गहरी समझ नहीं है और संभवत: आकलनों में भारी अनियमितताएं इस कारण भी होती हैं। दूसरे, इंग्लैण्ड और अमरीका जैसे समरूप समाजों में भी सर्वेक्षणकर्ता गलत सिद्ध होते रहे हैं। अत: इस देश में उनके गलत सिद्ध होने की संभावनाएं अधिक रहती हैं।किसी स्थान विशेष से नमूना चुनने के बाद जब ये सर्वेक्षणकर्ता नतीजे निकालते हैं तो सर्वप्रथम विभिन्न राजनीतिक दलों को मिलने वाले मत प्रतिशत की जानकारी होती है। अगर नमूना सही है तो उस मत प्रतिशत से किसी पार्टी को मिलने वाली सीटों का अंदाजा निकाला जा सकता है। लेकिन मत प्रतिशत से सीटों का अनुमान लगाने में ज्यादातर सर्वेक्षणकर्ता असफल रहते हैं। मान लीजिए एक पार्टी को 40 प्रतिशत मत मिल रहे हैं और दूसरी को 38 प्रतिशत। लेकिन इस 2 प्रतिशत अंतर के कारण पहली पार्टी को कितनी सीटें मिलेंगी और दूसरी को कितनी इसका फार्मूला कभी डगमगा जाता है। अंग्रेजी में “एक्स्ट्रापोलेशन” कहते हैं।लेकिन इतना सब जोड़-बाकी कर लेने के बाद प्रत्येक सर्वेक्षण में आंकड़े अलग-अलग कहानी कहते दिखते हैं। मेरा मानना है कि हर व्यक्ति का एक खास राजनीतिक झुकाव होता है यानी किसी पार्टी के प्रति नरम तो किसी के प्रति कड़क। इसीलिए जब कोई चुनावी सर्वेक्षणकर्ता किसी नतीजे को राजनीतिक चश्मे से देखता है तो वहां गड़बड़ी हो जाती है। इसलिए सीटों का आकलन करने में वे एक-दूसरे से बहुत दूर दिखाई देते हैं। समस्या है राजनीतिक चश्मा।अब बात करते हैं 20 और 26 अप्रैल के पहले दो चरणों के बाद आए “एक्जिट पोल” की। इन “एक्जिट पोल” को देखकर तो लोग दांतों तले अंगुली दबा लेंगे। पहले चरण के मतदान के बाद कर्नाटक की 15 सीटों में से जी न्यूज के “एक्जिट पोल” ने राजग को 4 सीटें दीं और कांग्रेस गठबंधन को 5 सीटें। एन.डी.टी.वी. ने भाजपानीत गठबंधन को 11 और कांग्रेस गठबंधन को 3 सीटें दीं। आज तक ने क्रमश: 11 और 4 सीटें दीं। जरा जी न्यूज और एन.डी.टी.वी. के आकलनों में अंतर पर गौर करें। इतना उलटा आकलन कैसे? इसे देखकर कोई क्या अंदाज लगाए? किसको सही मानें? आंध्र प्रदेश में 21 सीटों पर पहले चरण के मतदान के बाद एन.डी.टी.वी. ने अपने “एक्जिट पोल” में भाजपानीत गठबंधन को 3 और कांग्रेस गठंबधन को 17 सीटें दीं, सहारा ने क्रमश: 11 और 9 सीटें दीं। सहारा ने वहां कांटे का मुकाबला दिखाया जबकि एन.डी.टी.वी. एकतरफा रुझान दिखाता है। महाराष्ट्र में प्रथम चरण के बाद एन.डी.टी.वी. क्रमश: 15 और 8 सीटें देता है, स्टार टी.वी. क्रमश: 7 और 17 सीटें देता है। दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। हम किस पर भरोसा करें? मैं यह नहीं कहता कि सभी सर्वेक्षणकर्ता अपने नतीजों में अपने राजनीतिक झुकाव का पुट भर देते हैं। लेकिन कुछ ऐसा कर सकते हैं, करते भी हैं। उदाहरण के लिए, पिछले विधानसभा चुनावों में सर्वेक्षणकर्ताओं ने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ कांग्रेस को दे दिए थे। लेकिन दोनों जगह भाजपा बहुमत से जीती। कोई जमीनी हकीकत से इतना दूर कैसे हो सकता है, यह देखने में आया था। परिणाम ही उलट गए। अत: कई सर्वेक्षणकर्ताओं की नीयत पर शक होना स्वाभाविक है। थोड़ा-बहुत ऊंच-नीच समझ में आ सकती है, पर परिणाम ही उलट जाएं, यह संभव नहीं। अगर प्रक्रिया उचित रही है और आकलन सही-सही किया है तो इतने निश्चयात्मक रूप से कैसे कह सके कि दोनों राज्यों में कांग्रेस जीत रही थी? यही कारण है कि वर्तमान चुनावों में आ रहे “एक्जिट पोल” की सत्यता पर संदेह होता है और कई बार तो लगता है कि उन पर अपना वक्त बरबाद करने की जरूरत नहीं है।पहले चरण के मतदान के बाद कर्नाटक के संदर्भ में एन.डी.टी.वी. का कहना था कि लोकसभा के लिए भाजपा के प्रति रुझान है तो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रति। दूसरे चरण के बाद उसी चैनल का कहना था कि लोकसभा के लिए रूझान भाजपा की तरफ ही है परन्तु विधानसभा के लिए रूझान अनिश्चित है। लेकिन पहले-चरण के बाद इसी चैनल ने अपना निष्कर्ष निकाला था कि कृष्णा की छवि अच्छी है, काम किए हैं, कृष्णा के मुकाबले कोई अन्य नेता उभर कर नहीं आया है, आदि इसलिए लोग विधानसभा के लिए कृष्णा को ही वोट देंगे।दूसरे चरण के मतदान के बाद लोकसभा में जी न्यूज ने भाजपा गठंबधन को 125 सीटें दीं तो आज तक ने 144 और सहारा ने 155 सीटें। तीनों में बहुत अंतर था। कोई 125 बताता है तो कोई 155। इससे क्या निष्कर्ष निकालें? कांग्रेस गठबंधन को आज तक 51, जी न्यूज 54, स्टार न्यूज 68-80 सीटें देता है। कहने का तात्पर्य है कि इतना बड़ा अंतर है। अन्य दलों के लिए भी दूसरे चरण के बाद सीटों का आकलन अंतर दर्शाता है। स्टार 19-31 देता है, सहारा 24, आज तक 32 और जी न्यूज 64 सीटें देता है। 19 और 64 सीटों में कितना अंतर है। जैसा मैंने पहले कहा, सिर्फ चुनावी सर्वेक्षणकर्ता ही राजनीतिक चश्मा नहीं लगा लेते बल्कि अखबारों के शीर्षक लिखने वाले भी राजनीतिक चश्मा लगाए रहते हैं। उदाहरण के लिए, पहले चरण के मतदान के “एक्जिट पोल” का ब्यौरा द हिन्दुस्तान टाइम्स ने पहले पन्ने पर छापा था। उसमें 140 सीटों (जबकि 139 सीटों पर ही मतदान हुआ था) का आकलन दिया गया था। उसमें स्टार ने भाजपा गठबंधन को 80 सीटें दी थीं, जी न्यूज ने 69-73, आज तक ने 93 और सहारा ने 82 सीटें दी थीं। 140 सीटों की आधी 70 सीटें होती हैं। अगर पहले चरण में किसी दल को 71 सीटें मिलती हैं तो इसका अर्थ निकलता है कि वह दल जीत रहा है। इन सभी चैनलों ने भाजपा को 10 से अधिक सीटें दी थीं यानी जीत भाजपा के पक्ष में थी। लेकिन अखबार का शीर्षक था- “नो क्लियर विनर आफ्टर राउंड वन” (पहले दौर के बाद कोई स्पष्ट विजेता नहीं)। जबकि इसके ठीक नीचे ब्यौरा कुछ और बता रहा था। लेकिन शीर्षक उस शीर्षक लेखक का राजनीतिक रुझान स्पष्ट कर देता था। पत्रकार का अपना व्यक्तिगत दृष्टिकोण हो सकता है, वह किसी दल को पसंद या नापसंद कर सकता है, इसमें किसी को आपत्ति नहीं है। परन्तु जब उस पत्रकार का व्यक्तिगत पूर्वाग्रह पत्रकारिता में झलकता है तो उसे सही कैसे माना जा सकता है? कुछ अखबारों में बहुत वर्षों से वामपंथियों का प्रभाव बना हुआ है। उन्हें अपना वामपंथी चश्मा उतारकर चीजों को सही प्रकार तौलना चाहिए।मैं अपना अनुभव बताता हूं। 1983 के आंध्र प्रदेश विधानसभा चुनावों की रपट लेने के लिए मैं स्वयं आंध्र प्रदेश में घूमा था। उस समय एन.टी. रामाराव ने राजनीति में प्रवेश किया ही था और तेलुगु देशम की स्थापना की थी। मार्च, 1983 में विधानसभा चुनाव होने थे। उस समय मैं कर्नाटक भी गया था जहां कांग्रेस के गुंडुराव मुख्यमंत्री थे। 1983 में कांग्रेस पहली बार कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हारी थी। वहां रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में सरकार बनी थी। आंध्र प्रदेश में रामाराव मुख्यमंत्री बने थे। चुनाव के दौरान आंध्र के गांव-गांव में रामाराव के समर्थन में उत्साह का माहौल दिखा था। लोग कांग्रेस को सबक सिखाने को उतावले थे। जबकि दिल्ली में “द हिन्दुस्तान टाइम्स” के वरिष्ठ पत्रकार आंध्र जाकर रपट भेजते हैं- “राजीव वेव इन आंध्रा” (आंध्र में राजीव लहर)। मैं चकित रह गया। मुखपृष्ठ की रपट इतनी उलटी छापी गई थी। क्या जनता नासमझ हैं? यह तो मूर्खता की हद थी। मैंने ऐसी पक्षपातपूर्ण पत्रकारिता बहुत देखी है। यह सरासर गलत है।मीडिया के इन अलीबाबाओं द्वारा वर्तमान चुनावों में प्रस्तुत “एक्जिट पोल” बजाय इन सर्वेक्षणों पर विश्वास पैदा करने के उनकी साख ही गिराते हैं। कुछ चुनावी विश्लेषक अपने राजनीतिक पूर्वाग्रह को अलग रखकर काम क्यों नहीं कर सकते? लोग चुनावों के बाद सभी अखबारों, चैनलों और सर्वोक्षणों को सामने रखकर असली के परिणाम मिलाकर देखें और जिसका “एक्जिट पोल” सच्चाई से कोसों दूर हो उसकी असलियत पहचानें।भारत में अभी भी चुनाव सर्वेक्षण और विश्लेषण के क्षेत्र में बहुत सुधार और परिपक्वता की जरूरत है। भारत जैसे बहुरंगी और जटिल समाज में चुनाव के समय जटिलताएं और बढ़ जाती हैं। ऐसे में अंधेरे में तीर मारते रहने के कारण “एक्टिजट पोल” एक तमाशा बनकर रह गए हैं। उम्मीद है समय गुजरने के साथ फर्जी सर्वेक्षण संस्थाओं के आकलनों से अखबार खुद को दूर रखेंगे।?(आलोक गोस्वामी से बातचीत पर आधारित)6
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