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भुला ही दी कश्मीरी हिन्दुओं की<p style=font-weight:

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Aug 8, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Aug 2004 00:00:00

भुला ही दी कश्मीरी हिन्दुओं की

घाटी वापसी

खुले आसमान के नीचे पत्थर का चूल्हा बनाकर भोजन बनाती हुईं एक विस्थापित मां-घाटी में कितनी ही जमीन और घर-आंगन छोड़ आने के बाद यूं अपमानित जीवन जीने को विवश

इस चीथड़ा हुए तम्बू की तरह तार-तार हो रहे हैं कश्मीरी हिन्दुओं के घाटी वापसी के सपने-उधमपुर के एक विस्थापित शिविर में दो विस्थापित महिलाएं और बच्चे

पिछले एक दशक में कश्मीर के हिन्दू विस्थापितों की घाटी वापसी को लेकर नेताओं द्वारा वायदे तो लम्बे-चौड़े किए गए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर कोई ठोस प्रयास नहीं दिखे। लाखों-करोड़ों की योजनाएं भी घोषित की गईं, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात रहा।

कश्मीर मामले के पर्यवेक्षकों का कहना है कि ये सब दावे और घोषणाएं जनता के सामने अपना चेहरा चमकाने के लिए किए गए। असलियत यह है कि विस्थापितों की वापसी के सभी दरवाजे बंद हैं और घाटी में उनकी संपत्ति की सुरक्षा के लिए कोई खास कोशिश भी नहीं की जा रही है।

जम्मू, दिल्ली, चण्डीगढ़ व अन्य स्थानों पर सरकारी आंकड़ों के अनुसार 50 हजार विस्थापित परिवार हैं। वे अपने पीछे घाटी में 30 हजार घर, दुकान के अलावा लाखों कनाल कृषि भूमि और बाग-बगीचे छोड़ आए थे। ज्यादातर मामलों में कट्टरवादियों ने उनकी इस सम्पत्ति पर या तो यूं ही कब्जा कर लिया है अथवा कौड़ियों के दाम खरीद लिया है। विडम्बना है कि जो लोग 1947 में बंटवारे के समय जम्मू-कश्मीर से पाकिस्तान चले गए उनकी संपत्ति की निगरानी के लिए बनाया गया सरकारी विभाग अब तक काम कर रहा है, जबकि घाटी से देश के अन्य भागों में पलायन को मजबूर किए गए हिन्दुओं के घर-संपत्ति की देखभाल के लिए कोई सरकारी संस्था या विभाग नहीं है।

पिछले 13 सालों में घाटी के विभिन्न सरकारी दफ्तरों और पुलिसबल में कम से कम एक लाख नई भर्तियां हुई हैं, लेकिन शायद एक भी कश्मीरी हिन्दू को नौकरी में भर्ती नहीं किया गया। उनके पलायन के समय राज्य सरकार के अधीन कार्यरत 13 हजार कर्मचारियों ने घाटी छोड़ी थी जिनमें से अधिकांश या तो गुमनाम हैं या परलोक सिधार चुके हैं।

तीन साल पहले प्रदेश सरकार ने राज्य के पढ़े-लिखे कश्मीरी युवकों की घाटी में विशेष भर्ती की योजना बनाई थी। लगभग 15 हजार उच्च शिक्षा प्राप्त कश्मीरी हिन्दू युवकों ने तमाम परेशानियां और विपत्तियां सहते हुए नौकरी के लिए आवेदन किए थे। तीन साल हो चुके, एक भी कश्मीरी हिन्दू को नौकरी पर नहीं रखा गया और खबर तो यह भी है कि उनके आवेदन पत्र दफ्तर के रिकार्ड से गायब हैं।

आखिर क्या इससे प्रदेश सरकार की मंशा की कलई नहीं खुल जाती? उसकी कथनी और करनी में कितना फर्क है!

पिछले 14 साल से ज्यादा समय से शिविरों में रह रहे विस्थापितों की मदद और अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए केन्द्र की ओर से 15 हजार करोड़ रुपए दिए जा चुके हैं। इसके अलावा केन्द्र सरकार 100 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष विस्थापितों की आर्थिक सहायता की मद में देती है। लेकिन सवाल यह है कि इस तरह की दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति कब तक बनी रहेगी? विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह के हालात में कश्मीरी हिन्दुओं की घाटी वापसी के आसार दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहे हैं। उस घाटी से उनका नाता धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है जहां कभी वे ही अधिसंख्य निवासी थे। प्रतिनिधि

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