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जर्मनी और मस्जिदेंजर्मनी में मस्जिदों की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है और साथ ही बढ़ रही हैं स्थानीय नागरिकों की चिंताएं। वे भयभीत हैं कि ये मस्जिदें बनने से न केवल वहां की सभ्यता व संस्कृति प्रभावित होगी बल्कि कट्टरवाद भी फैल सकता है।जर्मनी में 2002 में 77 मस्जिदें थीं जो एक वर्ष बाद 2003 में बढ़कर लगभग दुगुनी अर्थात् 141 हो गईं। इसके अलावा और 154 मस्जिदें बनाने की भी योजना है। जर्मनी में जन्मे पर मूल रूप से तुर्की के गुल्सेक, जिन्होंने हाल ही में एक मस्जिद बनवाई है, कहते हैं, “मैं जर्मनी वालों को इस्लाम के बारे में बतलाना चाहता हूं ताकि उनके पूर्वाग्रह दूर हो जाएं।” यूरोप में आजकल मस्जिदें भय का केन्द्र बन गई हैं। जब से चर्च में लोगों का जाना कम हुआ है, मस्जिदों के प्रति शंकाएं बढ़ी हैं। 11 सितम्बर, 2001 को अमरीका के विश्व व्यापार केन्द्र पर हुए आतंकवादी हमले के बाद अधिकांश यूरोपवासियों को मस्जिदें उपासना स्थल की बजाय कट्टरवाद की शरणस्थली दिखने लगीें। हालांकि स्थानीय मुसलमानों का तर्क है कि इन नई मस्जिदों से इस्लाम को समझना आसान हो सकेगा और ये मस्जिदें इस्लाम के राजनीतिक स्वरूप से अलग हटकर होंगी।सरकार इन मस्जिदों पर कड़ा नियंत्रण रखने की तैयारी में है। वह बड़ी मस्जिदों के निर्माण पर अंकुश लगाए हुए है। शहर के अधिकारी ऐसे निर्माणों को रोकने के लिए “वीटो” का अधिकार चाहते हैं, जिनसे नगर की रचना प्रभावित होती है।मौके की तलाशपंजाब में लोकसभा चुनाव में मतदाताओं द्वारा बुरी तरह नकार दिये जाने के बाद कांग्रेसी नेताओं में बड़ा-छोटा सिद्ध करने का दौर चल रहा है। मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह और उपमुख्यमंत्री राजिन्दर कौर भट्ठल निराशाजनक प्रदर्शन का दोष एक-दूसरे पर मढ़ रहे हैं। पर भीतर के सूत्रों का कहना है कि यह तो मात्र एक बहाना है। इन दोनों नेताओं के बीच तो तभी से पटरी नहीं बैठी, जब से राज्य में कांग्रेस सत्तारूढ़ हुई है। लगभग डेढ़ साल पहले केन्द्रीय नेतृत्व ने इन दोनों के बीच सुलह कराने का प्रयास किया था और श्रीमती भट्ठल को उपमुख्यमंत्री की कुर्सी देकर चुप रहने को कहा था। किन्तु पंजाब की राजनीति के धुरंधरों का मानना है कि वह तो जबरदस्ती का सौदा था। दरअसल श्रीमती भट्ठल अपने से कनिष्ठ कैप्टन को मुख्यमंत्री के रूप में पचा नहीं पा रही हैं। वह मौके की तलाश करती रहती हैं। लिहाजा प्रदेश में पार्टी की यह हार उनके लिए खुद को बड़ा नेता साबित करने का अच्छा अवसर है। वह दिल्ली तक कैप्टन की छीछालेदर करने पर उतारू हैं। कुछ कांग्रेसियों का तो यह भी कहना है कि दोनों नेता अब एक-दूसरे को किसी राज्य का राज्यपाल बनवाकर सियासी मैदान से निकाल बाहर करने में लगे हुए हैं। वहीं पार्टी नेतृत्व चिन्तित है कि अकालियों का सामना करने के लिए इन दोनों धुर-विरोधियों के अलावा किसे आगे किया जाए।ये अनदेखी क्यों?केन्द्र में सत्तारूढ़ हुई कांग्रेसनीत गठबंधन सरकार में उड़ीसा राज्य से एक भी मंत्री न बनाया जाना राज्यभर में चर्चा का विषय बन गया है। उड़ीसा के आम नागरिक तो इस बात पर रोष व्यक्त कर ही रहे हैं, वहां का बुद्धिजीवी वर्ग भी इस विषय पर चर्चा कर रहा है। इतना ही नहीं, राज्य के प्रमुख दैनिक समाचारपत्रों में कांग्रेस की इस “अनदेखी” और “उदासीनता” पर संपादकीय टिप्पणियां और आलेख भी प्रकाशित हुए हैं। उड़ीसा के प्रमुख समाचारपत्रों – समाज, धरित्री, प्रजातंत्र और उड़ीसा भास्कर ने अपने मुखपृष्ठ पर उड़ीसा के किसी नेता को केन्द्रीय मंत्रिमंडल में स्थान न दिए जाने को कांग्रेस नेतृत्व की उड़ीसा के प्रति अनदेखी बताया है। अखबारों का कहना है कि स्वतंत्रता के बाद पहली बार केन्द्रीय मंत्रिमंडल में उड़ीसा का प्रतिनिधित्व नहीं है। धरित्री का कहना है कि उड़ीसा के ही कुछ नेताओं ने अपनी महत्ता बनाए रखने के लिए यहां से एक योग्य व्यक्ति के मंत्री बनने की संभावनाएं धूमिल कर दीं। प्रदेश कांग्रेस के ही कुछ लोग टांग-खिंचाई में लगे हैं।उल्लेखनीय है कि प्रदेश के 21 लोकसभा स्थानों में से केवल एक स्थान पर कांग्रेस जीत पाई है। यह स्थान है कोरापुट, जहां से पूर्व मुख्यमंत्री गिरधर गमांग चुनाव जीते हैं।34
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