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दीनानाथ मिश्रखामोश कातिल”एक रुपए में 40 किलो चावल” की बात मुझे मेरे दादा ने बताई थी। लेकिन उन्होंने मुझसे यह बात तब कही थी, जब पहला विश्व युद्ध हो चुका था और दूसरा होने ही वाला था। वह अपने दौर की महंगाई की चर्चा कर रहे थे। तब तक दूसरा विश्व युद्ध भी गुजर चुका था और नए चावल आठ आने सेर बिकने लग गया था। तब नए पैसे और किलो में बात नहीं होती थी। मगर स्वयं मैंने इस भाव से चावल खरीदा है। और आज बासमती चावल 40 रुपए किलो पर पहुंच गया है। अन्य किस्म के चावल कुछ सस्ते भी हैं। अभी तक पिछली शताब्दी की बात की थी। अब पिछले दस वर्षों की बात कर रहे हैं। इस दौर में 1993-94 को आधार वर्ष मानते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अगर 1993-94 में एक रुपए में सौ नए पैसे की चीज खरीद सकते थे तो अब 2004 में अर्थात् दस साल बाद एक रुपए में 52 नए पैसे की चीज खरीद सकते हैं। अर्थात रुपए की क्रय शक्ति घटकर करीब-करीब आधी रह गई है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर आप 1993 में अवकाश प्राप्त कर चुके थे और आपको सात हजार रु. प्रतिमास की पेंशन मिलती थी, तो आज दस साल बाद वह घटकर साढ़े तीन हजार हो गई है। भले ही आपके हाथ में सात हजार रुपए के नोट होंगे, लेकिन जब आप उन्हें खर्च करेंगे तो साढ़े तीन हजार रुपए जितनी चीज खरीदेंगे।महंगाई होती ही ऐसी है। खामोश कातिल की तरह। पिछले साल इसी मौसम में जितनी सब्जियां आप तीस रुपए में खरीदते थे, उतनी सब्जियों को खरीदने में चालीस रुपए लगते हैं। अरहर की जो दाल 38 रुपए में बिकती थी, आज वह 42 रुपए की ऊंचाई पर पहुंच गई है। पिछले साल घर से दफ्तर व दफ्तर से घर आने-जाने में अगर सोलह रुपए लगते थे तो आज चौबीस रुपए लगते हैं। डीजल फिर महंगा हुआ है। उसकी मार आनी बाकी है। महीने, दो महीने में ही घर से दफ्तर व दफ्तर से घर के बीच आपकी तीस रुपए की जेब कट सकती है। पिछले छह सालों तक राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी। महंगाई की प्रतिशत बढ़ोत्तरी (मुद्रा स्फीति) चार प्रतिशत के इर्द-गिर्द रही थी। फिर हुआ “कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ।” छह महीने में महंगाई की रफ्तार दोगुनी हो गई। गत 30 अगस्त को यह दर 8.2 प्रतिशत थी।अगर डा. मनमोहन सिंह की आर्थिक पंडिताई और वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम की हाथ की सफाई इसी तरह चलती रही तो अगले बजट के साथ एक साल की महंगाई की बढ़ोत्तरी दस प्रतिशत हो जाए तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होगा। क्योंकि मैं राज्यों और केन्द्र के घाटे की अर्थव्यवस्था को देख रहा हूं। ब्याज दरों के साथ खिलवाड़ देख रहा हूं। कभी नाक सीधे पकड़ी जाती है तो कभी हाथ घुमाकर। धनी किसानों को भी मुफ्त बिजली देकर चुनाव जीतने वाली पंजाब सरकार ने तब तौबा की जब घाटा बेतहाशा बढ़ गया। यही महाराष्ट्र में होगा। जिन्हें चार-पांच हजार रुपए में घर चलाना पड़ता है, उनकी तो तीन चौथाई से ज्यादा आमदनी खाने-पीने की चीजों पर ही खर्च होती है।सवाल खड़ा होता है कि मंहगाई के कारण कटौती करें तो कहां करें? बच्चे के दूध में? हफ्ते में एक-दो बार आने वाले गरम मसाले की पुड़िया की विलासिता में या हफ्ते की बजाए दो हफ्ते तक बिना धोए कपड़े से काम चलाकर? लोगों की हालत “भूल गए राग रंग, भूल गए छकड़ी, तीन चीज याद रही, नून, तेल, लकड़ी” वाली होती है। खामोश कातिल एक तरफ से ही वार नहीं करता। अब देखिए ब्याज दर महंगी हो गई। मकान बनाने के लिए सस्ते ब्याज का प्रोत्साहन था, वह जाता रहा। लोहा महंगा हो गया। सीमेंट की तो और भी लम्बी छलांग है। बड़े निर्माण के कदम ठिठक गए। रोजगार घटने लगा। देख लिया आपने, “कांग्रेस का हाथ, खामोश कातिल के साथ”।इधर के दौर में कम से कम महीने में एक दिन तो मेरे घर गृह युद्ध होता ही है। मैं हर महीने की पहली तारीख को घरेलू सामान के लिए “गृहमंत्री” को दस हजार रुपए देता हूं। जून में जब ऐसा हुआ तो “गृहमंत्री” ने दस हजार की गड्डी उठाकर पटक दी। “आपको मालूम भी है तेल, घी,दाल, सब्जी वगैरह के भाव? खुद खरीद कर लाओ। मुझसे दस हजार रुपए में नहीं चलेगा।” मैं देवी जी के तेवर देखकर डर गया। उनकी मांग स्वीकार करते हुए सौदेबाजी चालू की। अन्त में बारह हजार पर बात तय हुई। अक्तूबर में फिर गृह युद्ध हुआ। हमारी गृहलक्ष्मी झांसी की लक्ष्मीबाई बनकर तन गर्इं। समझौता चौदह हजार में हुआ। हमारे ड्राइवर साहब जब पेट्रोल पम्प की तरफ मुड़ते थे, तब मैं जेब में पांच-पांच सौ के दो नोट निकालता था और टंकी भर जाती थी। और अब, जब पेट्रोल पम्प को देखता हूं तो आतंकित होकर पहले से ही तीन नोट निकाल लेता हूं। उसमें से कुछ बच जाएं तो भला, और न बचें तो भला। इधर कमर में बड़ा दर्द रहता है। मैं डाक्टर साहब को दिखलाने गया। उन्होंने देखा और फिर कहा, “आजकल कमर दर्द की यह बीमारी आम है, क्योंकि जबसे कांग्रेस आई है, कमरतोड़ महंगाई है।”28
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