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संस्कृति सत्य<p style=font-weight:bold;text-align:c

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Apr 7, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 07 Apr 2004 00:00:00

संस्कृति सत्य

वचनेश त्रिपाठी

क्रांतिवीर बलभद्र सिंह

वह साहसी किशोर

सन् 1858 की 13 जून थी। लखनऊ-फैजाबाद मार्ग पर नवाबगंज नगर से 1 मील दूर क्रांतिकारी सेना के 16 हजार सैनिकों ने अग्रेजों की सेना का पथावरोध करने हेतु मोर्चा लगा रखा था। इस सेना के नायक थे चहलारी (बहराइच) नरेश बलभद्र सिंह। ये 33 गांवों के एक सामान्य जमींदार श्री पालसिंह के पुत्र थे। 18 वर्ष के थे, विवाह हो चुका था। इनका जन्म गांव में हुआ था, गांव का नाम था मुरौआडीह (बहराइच)। ब्रिटिश कमाण्डर ब्रिगेडियर होपग्राण्ट एक दिन पूर्व ही 12 जून, 1858 को रातोंरात लखनऊ से एक बड़ी फौज लेकर कानपुर रवाना हुआ। अंग्रेजों की सेना का रास्ता रोकने और उससे युद्ध करने हेतु बलभद्र सिंह के अधीन जो 16 हजार क्रांतिकारी सेना रास्ते में पड़ाव डाले बैठी थी, उसमें नाई-बारी-गाड़ीवान-साईस आदि हर वर्ग के लोग शामिल थे, मुसलमान भी अंग्रेजों से युद्ध के लिए तत्पर थे। इस युद्ध में जो 125 क्रांतिवीर बलिदान हुए, उनमें से 90 शहीदों के नाम इतिहास में दर्ज हैं और उनका विस्तृत उल्लेख मिलता है।

अपनी क्रांतिवीर सेना के साथ इन सभी क्रांतिवीरों ने बलभद्र सिंह के नेतृत्व में 13 जून, 1858 को चारों ओर से घेराबंदी कर उस समय अंग्रेजी सेना पर धावा बोल दिया, जब वह नदी पार कर आगे बढ रही थी। ब्रिगेडियर होपग्राण्ट के साथ कई अन्य अंग्रेज सेनाधिकारी कर्नल डेली, जिसके अधीन वेल्स हार्स और हडसन हार्स, सर विलियम रसेल के अधीन 7वीं हार्स तोप पलटन, राइफल ब्रिगेड की पहली-दूसरी बटालियनें और 5वीं पंजाब पैदल पलटन प्रमुख थीं। लखनऊ की क्रांतिकारी रानी बेगम हजरत महल ने ही महादेवा के “राम चबूतरे” पर क्रांतिकारियों की एक विशाल सभा में बलभद्र सिंह को नवाबगंज के युद्ध मोर्चे के सेनानायक का दायित्व सौंपा था। क्रांतिकारी सेना अंग्रेजी सेना का रास्ता रोककर भीषण युद्ध कर रही थी, तभी अंग्रेजों की दो और पलटनें वहां मदद के लिए आ धमकी, जिससे क्रांतिकारी सेना उसके मुकाबले छोटी पड़ गई-फिर भी देह में अंतिम बूंद रहने तक क्रांतिकारी सैनिक अंग्रेजों से जूझते, उन्हें काटते-मारते और स्वयं बलिदान होते रहे। ब्रिगेडियर होपग्राण्ट क्रांतिकारी सैनिकों और विशेषकर उस सेना के सेनापति बलभद्र सिंह के शौर्य को देखकर चकित-स्तब्ध था। उसने स्वयं की लिखी पुस्तक “इन्सीडेन्ट्स ऑफ दि सिपाय वार” में लिखा भी कि “युद्ध तो मैंने कई देखे, पर ऐसा युद्ध पहली बार ही देखा कि वे सैनिक मरकर भी विजय पाने का हौसला रखते थे।” होपग्राण्ट ने चार तोपें और लगाकर 7 नम्बर को नई आई पलटन को बलभद्र सिंह की तरफ बढ़ा दिया। अंतत: लड़ते-लड़ते 18 वर्षीय वीर क्रांतिनायक बलभद्र सिंह बाराबंकी से 2 किलोमीटर दूर बरीग्राम के युद्ध स्थल पर बलिदान हो गए, उनके इर्द-गिर्द 125 क्रांतिवीरों की लाशों का अंबार था। बाराबंकी में मनाये जाने वाले अमर शहीद बलभद्र सिंह के बलिदान दिवस पर मैं भी दो बार वहां जा चुका हूं। बलभद्र सिंह ने 11 गोरों को तो एक ही जगह मार गिराया था। आज भी लोग गाते हैं, “ग्यारह साहेब ठौरे मारेसि, औ गोरेन की गिनती नाय।” गांव के बालक कबड्डी खेलते हुए शहीद बलभद्र सिंह को अपनी इन पंक्तियों में याद करना आज भी नहीं भूलते कि, “चल कबड्डी चहलारी, जहं बलभद्र सिंह बलधारी।”

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