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सेकुलर बिरादरी का मातम
उम्मेद सिंह बैद
इशरत जहां की मां और बहन-19 साल की बेटी किसके साथ, कहां, कितने दिन को जाती है-
पता नहीं। पता सिर्फ इतना है कि वह “निर्दोष” है।
क्या शानदार कथानक है हिट फिल्म के लिए। इसमें छह अलग-अलग कहानियां हैं- जो एक मोड़ पर आकर मिल जाती हैं। बिल्कुल “डरना मना है” या फिर फिल्म “युवा” की तरह।
श्री रामगोपाल वर्मा इस कहानी पर मजेदार फिल्म इसी साल बनाकर प्रदर्शित कर सकते हैं। उनकी फिल्म निर्माण इकाई में काम बहुत तेजी से जो चलता है। पहले उस मोड़ की चर्चा जहां आकर सभी छह कहानियां मिलती हैं।
14 जून, सोमवार की शाम अमदाबाद का गुप्तचर विभाग पुलिस को सूचित करता है कि महाराष्ट्र से एक गाड़ी में कुछ आतंकवादी अमदाबाद आ रहे हैं- निशाने पर हैं मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी। पुलिस गाड़ी की पहचान करती है। गाड़ी का पीछा करती है और उसमें सवार चारों आतंकवादियों को मार गिराती है।
मीडिया अपना सारा ध्यान इसमें मारी गई एक लड़की पर केन्द्रित करता है और लड़की इशरत जहां की कहानी शुरू हो जाती है। मुंब्रा की एक मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की, जिसके पिता की मृत्यु हो चुकी है, खालसा कालेज में बी.एस.सी. में पढ़ती है। कालेज के प्रधानाचार्य श्री अजीत सिंह, पंजीयक के.एन.सी. नायर और उसके मुहल्ले के लोग आश्चर्यचकित हैं कि इशरत का आतंकियों से कोई सम्बंध हो सकता है।
गालियां पड़ीं तो चेक वापस लिया
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता वसंत देवघरे अपनी सेकुलरवादिता दिखाने की होड़ में इशरत के मारे जाने की खबर लगते ही मुंब्रा में उसकी मां के पास पहुंच गए। वहां न केवल परिवार वालों के साथ बैठकर “आंसू” बहाए, बल्कि मीडिया के पहुंचते ही आहत परिवार को एक लाख रुपए देने की बात कर दी।
इसकी जानकारी जैसे-जैसे लोगों तक पहुंची, चारों ओर से देवघरे पर लांछन लगने लगे। उनकी हरकतों का विरोध तब और प्रचण्ड हो गया जब घटना के दूसरे ही दिन गुप्तचर ब्यूरो ने इशरत के आतंकवादियों से जुड़े होने के सूत्र इशरत की ही डायरी से उघाड़ने शुरू किए।
अंतत: मुंह छुपाते फिर रहे देवघरे को एक लाख रुपए का अपना चेक वापस लेना पड़ा।
सी.बी.आई. क्यों?
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने घटना की सी.बी.आई. जांच की मांग को सिरे से नकारते हुए कहा कि महाराष्ट्र पुलिस इस मामले की उपयुक्त जांच कर रही है और अनेक तथ्य उसके पास हैं अत: सी.बी.आई. से जांच कराने की कोई जरूरत नहीं है। उल्लेखनीय है कि गुजरात कांग्रेस के नेता अमरसिंह चौधरी ने सबसे पहले सी.बी.आई. जांच की बात की थी।
पुलिस को इशरत की जो डायरी मिली, उसमें कुछ महत्वपूर्ण सुराग मिले। सलीम भी मारे गए उन चार आतंकवादियों में से एक है और पाकिस्तानी नागरिक है। सलीम और उसके दूसरे पाकिस्तानी साथी लश्करे-तोइबा के लिए काम कर रहे थे। यह भी गुप्तचर विभाग का लम्बे समय की जानकारी का निष्कर्ष है, महाराष्ट्र पुलिस और गुजरात पुलिस सबकी जानकारी है।
यहीं से दूसरी कहानी शुरू होती है- जावेद की। मुठभेड़ में मारे गए जावेद की कहानी बड़ी जटिल और घुमावदार है। एक मुस्लिम लड़की साजिदा से प्रेम हो गया तो वह मत बदलकर मुसलमान बन गया। पिता गोपीनाथ का कहना है कि मेरा बेटा कभी भी आतंकवादी नहीं हो सकता। मैं भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री सबसे गुजारिश करूंगा कि मुझे आतंकवादी का पिता होने के कलंक से मुक्त कराये। तीन बच्चों के पिता जावेद के साथ इशरत की मां इशरत को कहीं भी भेज देती है, उसे कभी पता नहीं होता कि जावेद इशरत को कहां और कितने दिन के लिए ले जा रहा है।
15 जून के बाद जब सबका ध्यान जावेद के आतंकवादी सम्बंधों पर जाना चाहिए था लेकिन मीडिया की कृपा से सारा ध्यान इशरत की कहानी पर चला गया। बार-बार यही बात सुनाई देने लगी कि इशरत एकदम निर्दोष थी और गुजरात पुलिस ने फर्जी मुठभेड़ में बेचारी को मार डाला। गुजरात कांग्रेस अध्यक्ष अमरसिंह और सेकुलर पत्रकार कुलदीप नैयर ने तो 16 जून को ही घोषणा कर दी कि यह नरेन्द्र मोदी की छवि को बनाने के लिए की गयी झूठी मुठभेड़ है। इस सारे शोर में जावेद की कहानी तो गायब ही हो रही है। उसका तीसरा नाम है सैय्यद अब्दुल वाहिद। इशरत के सिवाय तीनों के नकली पहचान पत्र एवं एक सेटेलाइट फोन भी था जब्त समान में। रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव भी कूदे बयानबाजी में, कहा कि इस पूरे घटनाक्रम की नए सिरे से जांच होनी चाहिए। फिलहाल इस कहानी के नायक जावेद के साथ सारे सेकुलरवादी, मीडिया और मानवाधिकार आयोग पूरे दम से खड़े हैं। अगली कहानी पाकिस्तान, लश्करे-तोइबा और भारत विरोधी षडंत्र की। पता नहीं 1993 के बाद जावेद का सम्पर्क कब और किस तरह पाकिस्तानी सलीम और अन्य आतंकियों से होता है- पता नहीं कैसे लश्करे तोइबा जावेद के सोच और संस्कारों को बदल कर भारत विरोधी बनाती है और पता नहीं कितनी बार विदेश यात्रा से वापस लौटकर जावेद ने पार्टी के कारनामों को अंजाम दिया होगा। गुजरात पुलिस के नेता साथ-साथ पुणे पुलिस ने भी बताया है कि मुठभेड़ में मरे दो पाकिस्तानियों में से एक जावेद के घर भी ठहरा था। पाकिस्तान के नेता बहुत खुश हैं भारत के राजनीतिक दांवपेचों से। शायद मोहम्मद अली जिन्ना भी इस विचित्र अवस्था की कल्पना नहीं कर सकते थे कि भारत को तोड़ने के अभियान में स्वयं भारत के कुछ लोग उनकी इस तरह मदद कर सकते हैं।
अगली कहानी पुलिस की है। अभी-अभी प्रदर्शित हुई फिल्म “देव” ने पुलिस की छवि को नई ऊंचाइयां दी हैं। 15 जून के इस मोड़ पर गुजरात पुलिस और महराष्ट्र पुलिस, दोनों की जुगलबंदी ने कम-से-कम मोदी को बचा लिया। बड़ा मुश्किल काम था, क्योंकि महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार है जो गुजरात की भाजपा सरकार को जरा भी पसंद नहीं करती। 14 जून को मिली सूचनाएं विश्वस्त थीं, अत: 15 जून की प्रात:काल से ही मुंब्रा से अमदाबाद पहुंचने वाले सभी सड़क मार्गों पर बहुत चुस्त, होशियार और भरोसे के आदमी तैनात किये गए। स्पष्ट आदेश थे- 1. गाड़ी में हथियार और विस्फोटक सामग्री है, अत: भीड़भाड़ वाली जगह पर मुठभेड़ से बचना है। 2. किसी भी अवस्था में उन्हें बचकर भागने नहीं देना है। 3. सभी पुलिस दल परस्पर सूचनाएं देते रहें, मुख्यालय से लगातार सम्पर्क रखें। गाड़ी दिखाई दी। पुलिस ने पीछा किया। जावेद ने शायद गाड़ी को तेज भगाया हो। गोलियां चलीं और इस मुठभेड़ में गाड़ी के चारों सवार ढेर हो गए। पुलिस ने फौरन सारा सामान अपने कब्जे में कर लिया। इस बीच हम पांचवीं कहानी यानी राजनेताओं पर चलते हैं। चौदहवीं लोकसभा के चुनावों में भाजपा (राजग सहित) अप्रत्याशित रूप से हार गई। एकदम साफ छवि वाले प्रधानमंत्री को भी बेमेल गठबंधन की राजनीति और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दबाव में उन विवादास्पद सांसदों को मंत्रिमंडल में लेना पड़ा जिन पर अभियोग चल रहे हैं।
सेकुलरों का तकाजा है कि इशरत इस षडंत्र में शामिल नहीं थी जबकि पुलिस और बाकी लोगों का प्रश्न है कि फिर वह इस दल के साथ क्या कर रही थी? उनका अमदाबाद की तरफ इतना सज- धजकर यात्रा करने का मकसद क्या था? मानवाधिकार आयोग.. कहानी का अंतिम ओर छटवां कोना। सबसे महत्वपूर्ण और निर्णायक पक्ष। प्रजातंत्र का मौलिक सूत्र है कि हर नागरिक की स्वतंत्रता और उसके संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा होनी चाहिए। संविधान के इस मौलिक सूत्र की गारण्टी है मानवाधिकार आयोग। लेकिन दुर्भाग्य से अपने जन्मकाल से ही इसकी पहचान “मुस्लिम अधिकार आयोग” की बन गई है। एक आश्चर्य और भी है। सामान्यत: न्यायालय अथवा आयोग में कोई सहायता मांगने जाये, तभी वे कोई सहायता करने को तैयार होते हैं, जबकि ऐसी मुठभेड़ों के अवसर पर मानवाधिकार आयोग स्वयं अपने से चलकर हस्तक्षेप करने को तत्पर हो जाता है! सिर्फ इसलिए कि मरने वाले मुसलमान थे, वे आतंकवादी थे, उनके पास विस्फोटक हथियार मिले, उनकी डायरियों में खुफिया षडंत्र की सूचनाएं मिलीं- वे मुसलमान थे ना.. इसलिए उनकी रक्षा आवश्यक है! मानवाधिकार आयोग ने गुजरात पुलिस पर कृपा करके उसे छह हफ्ते का समय दिया कि वह यह साबित करे कि मरने वालों में कोई निर्दोष नहीं था।
जो आतंकवादी तंत्र भारत की संसद तक पर हमला करने का साहस और तैयारी रखता हो, उस तंत्र के जबड़ों से खींचकर सबूत जुटाना है गुजरात पुलिस को। 15 जून का घटनाक्रम ही एकमात्र बिन्दु नहीं है, जहां ये छह कहानियां मिलती हों, या बनती हों। यह छह भुजाओं वाला षट्कोण तो वास्तव में एक बड़ा षडंत्र है, जिसमें भारत फंसा है, उलझा है, भटक रहा है। कोई सातवीं कहानी- कोई सातवां कोण- कोई सातवीं भुजा ही आकर यह षडंत्र तोड़े तो बात अलग है।
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