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सुरेश सोनीपुराणों की सीखप्राचीन समय में गांव-गांव में पुराण कथाओं का आयोजन होता था। पुराणों का प्रचार करने वाले सूत कहलाते थे। पुराणों में भी वर्णन आता है, एकदा नैमिषारण्ये ऋषि मुनि एकत्रित हुए और बोले, “सूत जी, सुनाइये यह घटना कैसे हुई, क्यों हुई?” तो उत्तर में सूत जी बोलते थे। यही परम्परा भारत के गांव-गांव में प्रचलित रही और इन पुराण कथाओं के द्वारा सामाजिक जीवन को श्रेष्ठतम बनाने की प्रक्रिया चलती रही थी। कोई भी श्रेष्ठ तत्व उच्चारण मात्र से जीवन में गहरा असर नहीं कर पाता, जैसे वेदों में कहा गया है- “सत्यं वद्”, पर यह उतना गहरा असर नहीं करता। परन्तु जब सत्य के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले राजा हरिश्चन्द्र की कथा सुनते है तो यह तत्व गहराई के साथ जीवन में उतरता है। दूसरा अगर दु:खी है तो स्वयं कष्ट उठाकर उसका दु:ख दूर करना चाहिए, यह तत्व मन को उतना प्रभावित नहीं करता परन्तु राजा रन्तिदेव की कथा सुनते हैं कि कैसे रन्तिदेव ने 46 दिन भूखे रहने पर भी अपना भाग द्वार पर आए भिक्षुक को दे दिया अथवा शिवि ने कबूतर की रक्षा के लिए स्वयं अपने शरीर को देने की तैयारी की, तो यह परोपकार का तत्व जीवन में उतरता है। इस प्रकार सभी तत्वों को समाज जीवन में उतारने का प्रयास पुराणों के माध्यम से हुआ। पुराणों की कथाओं में तत्वज्ञान रहता था-व्यवहारशास्त्र, समाजशास्त्र, राजनीतिक उतार-चढ़ाव, इहलौकिक और पारलौकिक दृष्टि से दान, तप का महत्व, तीर्थयात्राएं, विभिन्न धार्मिक स्थल, चार धाम, बावन शक्तिपीठ, द्वादश ज्योतिर्लिंग, पवित्र नदियां आदि सबके माहात्मयों का वर्णन आता रहता था, इससे समाज को एक दिशा मिलती थी।पुराणों का वैशिष्ट्य : आज आवश्यकता इस बात की है कि पुराणों में निहित तथ्यों का विश्लेषण कर युगानुकूल रूप में आज के समाज के सामने रखा जाए। पुराणों के रूपकों द्वारा प्रतिपादन की शैली में निहित सार को समाज के सामने रखा जाए। इस दृष्टि से जैसे-जैसे पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर पुराणों की ओर देखते हैं तो आज दुनिया के वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित होते हैं। कुछ तथ्य नीचे दिए जा रहे हैं ताकि वर्तमान पीढ़ी अपने पूर्वजों की विरासत से परिचित हो सके।सन् 1850 तक अफ्रीका महाद्वीप यूरोपवासियों के लिए दुर्बोध्य था। यदि कोई यह कहता कि उसमें आदमी रहता है, तो वे हंसते थे। आगे चलकर नील नदी की खोज करने की दिशा में कार्य आरम्भ हुआ। ब्रिटिश संशोधक जानस्पीकी 1856 में नील नदी की खोज की दिशा में आगे बढ़ा तथा 1852 में उसकी खोज पूरी हुई। 1863 में उसने अपनी सम्पूर्ण खोज का वृतान्त एक पुस्तक में लिखा जिसका नाम था “जर्नल आफ दि डिस्कवरी आफ दि सोर्स आफ दि नाइल।”जानस्पीकी को इस खोज में पुराणों से बहुत सहायता मिली। इसका वर्र्णन वह अपनी पुस्तक में इस प्रकार करता है-कर्नल रिग्बी ने मुझे एक मूल्यवान निबंध मानचित्र के साथ दिया, जो नील नदी तथा चांद के पहाड़ से सम्बंधित था। वह निबंध कर्नल विलफोर्ड का लिखा हुआ था, जो उसने हिन्दुओं के पुराणों के आधार पर तैयार किया था। यह आश्चर्य की बात है कि हिन्दुओं को नील नदी के उद्गम का ज्ञान है। इसलिए यह बात स्पष्ट है कि प्राचीन हिन्दुओं का अफ्रीका के विभिन्न भागों से सम्बंध था।” ऐसा समझने में हमें किसी प्रकार का भ्रम नहीं होना चाहिए। (जर्नल आफ दि डिस्कवरी आफ दि सोर्स आफ दि नाइल-पृष्ठ-13)नील नदी के बारे में इजिप्शन लोगों की जानकारी की हंसी उड़ाते हुए जानस्पीकी लिखता है-“नील नदी सम्बंधी हमारे सारे ज्ञान का केन्द्र हिन्दू हैं…. बाकी मिस्र के भूगोलवेत्ताओं की बातें पाखण्ड और अनुमान हैं।”ब्रिटिश साम्राज्य के बारे में कहा जाता था कि वह साम्राज्य इतना विशाल है कि उसमें सूर्य अस्त नहीं होता, परन्तु यह विशेषण हजारों वर्ष पूर्व महाराजा मान्धाता के राज्य के संदर्भ में भारत में प्रयुक्त हुआ था। विष्णुपुराण में उल्लेख आता है-यावत्स्र्य उदेत्यस्त यावच्च प्रतितिष्ठति।तत् सर्वं युवनाश्वस्य मान्धातु: क्षेत्रमुच्यते।।अर्थात् जहां सूर्य उदय होता है और जहां अस्त होता है वह सम्पूर्ण क्षेत्र युवनाश्व के पुत्र मान्धाता का है।(पाक्षिक स्तम्भ)(लोकहित प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” से साभार।)26
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