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कोलकाताभारतीय संस्कृति संसद मेंनाद ब्राह्म हुआ साकारकार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए नवोदित कलाकारगत 11 सितम्बर को कोलकाता में भारतीय संस्कृति संसद के तत्वावधान में एक अद्भुत कार्यक्रम की सृष्टि नाद-वाद्य यन्त्रों द्वारा की गई। मुख्य बात यह थी कि इसमें 9 प्रकार के वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया गया और उनमें सभी वाद्य भारतीय मूल के थे। सुशिर वाद्य-बांसुरी, हारमोनियम तथा नगमा संगत के रूप में थे। तीन घंटे तक दर्शकों को बांधे रखने वाले इस कार्यक्रम में वाद्य संगीत का प्रभावकारी स्वरूप उभर कर आया। निर्देशक थे युवा संगीतज्ञ श्री मल्लार घोष, जिन्होंने अपने पिता स्वनामधन्य स्व. ज्ञानप्रकाश घोष की सुरभित परंपरा को न केवल जीवित रखा, बल्कि उसे आगे भी बढ़ाया है। उल्लेखनीय है कि स्व. ज्ञानप्रकाश घोष ने संस्कृति संसद के लिए अनेक कालजयी संगीत कार्यक्रमों की संरचना पिछले 50 वर्षों में की थी। बंगाल ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय पटल पर ज्ञान बाबू संगीत की दुनिया में प्रतिष्ठित थे। नाद संगीत का यह कार्यक्रम भा.सं. संसद के प्रेक्षागार में संगीतप्रेमी दर्शकों के विशाल समूह के समक्ष सम्पन्न हुआ।कार्यक्रम की परिकल्पना 4 भागों में की गई थी- प्रणाम, सृष्टि, उत्सव और श्रद्धा। मल्लार घोष, कौशिक भट्टाचार्य तथा राजीव विश्वास की तबला लहरी को सुनते हुए यह भान हो रहा था मानो बिरजू महाराज और गोपीकृष्ण जी की कत्थक जुगलबंदी हो रही हो। गोपाल बर्मन के श्री खोल को सुनते हुए जैसे स्वयं चैतन्य महाप्रभु कीर्तन मुद्रा में नाच रहे हों। बबलू विश्वास ने 3 वाद्यों की बानगी प्रस्तुत की- ढोलक, बंगलाढोल तथा पखावज। सोमनाथ राय ने घट्टम, खंजीरा तथा नक्कारा से सभागार को निनादित किया। निर्माल्य डे की बांसुरी की तान तो जैसे राधाकृष्ण के महारास को ही प्रस्तुत कर रही थी। निर्माल्य ने अपने दादा सुप्रसिद्ध संगीत निर्देशक आलोक डे की साधाना की याद ताजा करवा दी।सभी युवा पीढ़ी के कलाकरों की यह रचना भारतीय संगीत के प्रति फिर से एक बार आश्वस्त करती है कि पश्चिमी धमाचौकड़ी की उछलकूद के विपरीत अपना यह संगीत कितना मधुर है, प्यारा है, रसभीना है, शाश्वत है और साथ ही युवा पीढ़ी के हाथों सुरक्षित भी है। विमल लाठ22
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