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सत्ता पर कब्जा बनाए रखने की माकपा नीति<p style=font

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Dec 12, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 12 Dec 2004 00:00:00

सत्ता पर कब्जा बनाए रखने की माकपा नीति

घुसपैठिए अपने, अपने पराए!

-सत्यप्रकाश लाल

प. बंगाल में यूं बसती जा रही हैं घुसपैठियों की बस्तियां

बंगलादेश-भारत सीमा पर बाढ़ लगाने, घुसपैठ रोकने, घुसपैठियों की पहचान करने और उन्हें वापस बंगलादेश भिजवाने आदि के मुद्दे पर पश्चिम बंगाल के प्राय: सभी राजनीतिक दल मुखर रहे हैं, यहां तक कि सत्तासीन वाममोर्चा भी। लेकिन वास्तविकता तो यह है कि इन वामपंथियों के लिए भारत के ही दूसरे राज्यों से आकर पश्चिम बंगाल में बसे भारतीय नागरिक शत्रु लगते हैं, जबकि बंगलादेशी घुसपैठियों को पश्चिम बंगाल में बसाने के लिए माकपा जी तोड़ कोशिश करती रही है। इसके अनेक उदाहरण हैं।

मतदाता सूची में संशोधन के नाम पर पिछले पचास वर्ष से यहां रह रहे सच्चिदानंद सिंह व उनकी पत्नी आशा देवी सहित उनके पूरे परिवार का नाम काट दिया गया है। जबकि वह सरकारी कर्मचारी हैं। उनके पिता भी सरकारी कर्मचारी थे। इस सम्बंध में माकपा नेताओं का कहना था- जाने दीजिए, अगली बार फिर अपना नाम जुड़वा लीजिएगा। ऐसा प्रतीत होता है मानो इन राजनेताओं के लिए यह कोई बड़ी बात न हो। दूसरी ओर, अगर यह बात किसी बंगलादेशी के साथ घटी होती तो ये किसी भी प्रकार मतदाता सूची में उसका नाम जुड़वाकर उसे स्थायी निवासी बताने का प्रयत्न करते हैं। इसका ज्वलन्त उदाहरण कृष्णानगर संसदीय क्षेत्र के कृष्णगंज इलाके में देखने को मिला।

1998 में वहां तीन मतदाताओं अजित विश्वास, चम्पा विश्वास व कल्पना विश्वास को लेकर काफी शोरगुल मंचा था कि ये सभी बंगलादेशी घुसपैठिए हैं। जांच-पड़ताल के बाद इन तीनों का नाम 1999 में मतदाता सूची से हटा दिया गया। लेकिन सन् 2004 आते-आते फिर एक बार इन तीनों का नाम इस सूची में आ गया। फलस्वरूप सभी विरोधी दलों ने इसका जमकर विरोध किया।

प्रश्न यह है कि जिसका नाम बंगलादेश घुसपैठियों के रूप में चिन्हित कर 1999 में मतदाता सूची से काट दिया गया उसे तो बंगलादेश सरकार को सुपुर्द कर देना था। फिर चार साल तक वे लोग पश्चिम बंगाल में कैसे रह गए? इनके रक्षा कवच कौन बने हैं। इन प्रश्नों के उत्तर के लिए थोड़ी गहन छानबीन की जाए तो यही स्पष्ट होता है कि राज्य सरकार के ही समर्थक इनको बसाने का बीड़ा उठाए हुए हैं। ये माकपा कार्यकर्ता अपने शासन के प्रभाव से इन घुसपैठियों का नकली राशन कार्ड बनाकर प्रत्येक पांच वर्ष में इलाके बदल-बदल कर मतदाता सूची में नाम लिखवाते रहते हैं। इसके बाद इन्हें पूर्ण रूप से भारतीय करार दे दिया जाता है। अगर किसी प्रकार बाद में यह पता चलता है कि ये बंगलादेशी हैं और विरोधी राजनीतिक दल इस पर ज्यादा शोरगुल करते हैं तो फिर इनका इलाका बदलकर किसी अन्य क्षेत्र में नाम जोड़ दिया जाता है। दूसरे इलाके से लोगों को अन्य क्षेत्रों में लाकर मतदाता सूची की संख्या को पूरा कर दिया जाता है। इस सम्बंध में चम्पा विश्वास का ही कहना था- “हम लोग बंगलादेश से आए हैं। यहां सी.पी.एम. की मदद से ही 1998 में हम लोगों को मतदाता पहचान पत्र मिला था। लेकिन बाकी सारे दलों के शोर के कारण हम लोगों का मतदाता पहचान पत्र वापस ले लिया गया।” कृष्णनगर सदर महकमा शासक अजय सन्यामत यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं कि यह अभियोग हमने पहली बार सुना है।

बहरहाल, माकपा की ऐसी वोट मानसिकता के दो मूलभूत कारण हैं। पहला, स्वाभावानुसार प्रत्येक व्यक्ति में अपने पूर्वज की धरती के प्रति एक खिंचाव होता है। भारत में माकपा एक ऐसा ही राजनीतिक दल है जिसके अधिकतर नेताओं व कार्यकर्ताओं के पूर्वज बंगलादेश से सम्बंधित रहे हैं, चाहे भूतपूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु हों या वर्तमान मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य। इसलिए बंगलादेशी घुसपैठियों को भारतीय नागरिकता दिलवाना माकपा कार्यकर्ताओं का शायद कत्र्तव्य बनता है। दूसरे, विभिन्न मत-पंथों के मतदाता तो बंटे हुए हैं, ऐसे में अल्पसंख्यक मतदाताओं तथा बंगलादेशियों को अगर अपने पक्ष में रखा जाए तो किसी भी ताकत नहीं कि उस दल को सत्ताच्युत्त कर सके। पश्चिम बंगाल में यही हो रहा है। माकपा के लिए बंगलादेशी घुसपैठिए तो अपने में हैं, देश के सम्मानित नागरिक पराए। सत्ता राजनीति का इस विषम स्थिति तक आना चिंता का विषय है।

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