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गवाक्ष

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Dec 12, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 12 Dec 2004 00:00:00

शिव ओम अम्बर

डा. महीप सिंह

दुष्यन्त कुमार

हिन्दी गजल के पुरोधा

वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है,

माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है।

“साये में धूप” की प्रस्तुत पंक्तियां कवि दुष्यन्त कुमार का ही व्यक्ति-चित्र हमारे समक्ष उपस्थित नहीं करतीं, हर ईमानदार कवि की नियति को निरूपित कर देती हैं। माथे पर चोट का गहरा निशान इस बात का प्रमाण है कि कवि ने व्यवस्था को क्रुद्ध किया है, सत्ता के हाथों को चाबुक उठाने के लिए विवश किया है। सत्य के प्रवक्ता को माथे पर चोट, पीठ पर चाबुक और सीने पर आघात सहने के लिए तत्पर रहना ही चाहिए।

आपातकाल के अंधेरों के खिलाफ दुष्यन्त की गजलें बगावत की मशाल बनकर लहक उठीं। एक जमाने में गजल शब्द का उच्चारण करते ही सड़क पर दुपट्टा लहराकर चलने वाली किसी शोख नाजनीन का बिम्ब उभरता था, शाही दरबारों के मखमली कालीनों पर बड़े अदब से कदम रखकर आदाब करने वाली तहजीब का नाम गजल हुआ करता था। किन्तु अब ऐसा नहीं है। गजल आज सामान्य जन के सुख-दु:ख की प्रवक्ता है, उसके संघर्ष में उसकी सहचारिणी है तथा उसके उल्लास और अवसाद की, उसके अमर्ष तथा आक्रोश की आख्यायिका है। दुष्यन्त कुमार ने गजल की धारा को युगीन आवश्यकता के अनुरूप एक नया मोड़ दिया और प्रीति के हस्ताक्षरों से अंकित रहने वाली पाटली विधा को अग्नि-सूक्तों की संचयिका बना दिया। हिन्दी गजल को अद्भुत लोकप्रियता दिलाने वाले दुष्यन्त कुमार इस पुरातन विधा के अधुनातन यज्ञ-सत्र के पुरोधा सिद्ध हुए। हिन्दी में गजलें तो पहले भी कही जा रही थीं और आज भी उनकी संरचना का क्रम अबाध है, किन्तु दुष्यन्त कुमार की गजलों ने सफलता के अभिनव मानक ही बना दिए। विद्वतजनों की वार्ताओं में दुष्यन्त के अशआर उद्धरण बनकर दीप्त हुए तो सामान्य जन ने उनमें संवाद के नए मुहावरे तलाश कर लिए। कालजयी साहित्य का एक प्रमुख लक्षण यह भी है कि उसे सर्वकालिक होने से पूर्व समकालीन होना पड़ता है। दुष्यन्त की ईमानदार तड़प हर सहृदय के चित्त में बिजली की कौंध बनकर जगमगाती थी, जगमगाती है-

अभिव्यक्ति मुद्राएं

समय-समय की बात है समय-समय का योग,

लाखों में बिकने लगे दो कौड़ी के लोग।

-माणिक वर्मा

कभी खुशी में तो कभी दु:ख में गीले नेत्र,

आसूं की अभिव्यक्ति के अलग-अलग हैं क्षेत्र।

-आचार्य भगवत दुबे

प्रेम-गीत जिसमें लिखे जिसमें रखे गुलाब,

अलमारी में बन्द है अब वह खुली किताब।

-प्रदीप दुबे प्रदीप

सबके हाथों बरछियां सबके तन पर घाव,

करते कहां शिकायतें देते किसे सुझाव।

-जय चक्रवर्ती

शासन के वट-वृक्ष का भारत में ये हाल,

बैठे हैं हर डाल पर बीस-बीस बेताल।

-जयकुमार रुसवा

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।दिसम्बर के महीने में अक्सर दुष्यन्त स्मृति पर्वों का आयोजन होता है। मुझे याद है ऐसा ही एक समारोह आकाशवाणी, शिवपुरी की तरफ से कुछ वर्ष पूर्व आयोजित किया गया था। इसे दो सत्रों में बांटा गया था। प्रथम सत्र में हिन्दी गजल के वर्तमान परिदृश्य पर चिन्तन-अनुचिन्तन चला था जिसका संचालन कमलेश्वर जी के द्वारा किया गया था और रात्रि में गजल गोष्ठी हुई थी। बशीर बद्र साहब से लेकर डा. कुंअर बेचैन तक सभी ने अपनी-अपनी प्रतिनिधि गजलों का पाठ किया था। वहां से लौटते समय मेरे चित्त में दुष्यन्त की ये पंक्तियां बार-बार उभर रही थीं-

मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे।

मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएंगे।

थोड़ी आंच बची रहने दो थोड़ा धुआं निकलने दो,

कल देखोगी कई मुसाफिर इसी बहाने आएंगे। । । । । ।

महीप सिंह जी की पीड़ा

साहित्यिक सांस्कृतिक प्रतिनिधिमण्डलों की सद्भावना यात्राएं विविध देशों के मध्य चलती रहती हैं। इस वर्ष दस भारतीय भाषाओं के लेखकों का प्रतिनिधिमण्डल चीन की दो सप्ताह की यात्रा पर रहा। ये भारतीय भाषाएं इस प्रकार हैं-हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, बंगला, उड़ीसा, गुजराती, कन्नड़, तेलुगू, तमिल और खासी। इस प्रतिनिधिमण्डल के नेता थे तेलुगू के डा. कृष्णमूर्ति। महीप सिंह जी इस यात्रा में शामिल थे और उसके संस्मरण इधर उनके आलेखों में प्रतिबिम्बित हुए हैं। उन्होंने पीड़ा की नि:श्वास के साथ इस तथ्य को रेखांकित किया है कि विदेश में सामान्यत: यह धारणा है कि हिन्दुस्थान से आने वाला हर व्यक्ति वहां की राष्ट्रभाषा हिन्दी में बोलता होगा अथवा उसका ज्ञान तो रखता ही होगा। चीन में जाकर यह पता लगा कि वहां लेखकगण चीनी भाषा के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के जानकार नहीं थे, अंग्रेजी उनके लिए विश्व-सम्पर्क भाषा नहीं है। दुभाषिये उन्हें उनकी ही भाषा में भारतीय लेखकों की बात समझाते रहे। बीजिंग विश्वविद्यालय में 1970 में प्राच्य भाषा अध्ययन केन्द्र स्थापित हुअा था। वहां इस समय हिन्दी, उर्दू और बंगला का विधिवत् अध्ययन-अध्यापन होता है। लगभग सभी जगह यह अपेक्षा की जाती थी कि भारतीय प्रतिनिधिमण्डल की संवाद की भाषा हिन्दी होगी। बींजिंग विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों ने स्पष्ट रूप से निवेदन भी किया कि वे चाहते हैं कि उनके हिन्दी जानने वाले छात्रों के समक्ष हिन्दी में ही वक्तव्य दिए जाएं। किन्तु डा. महीप सिंह इस विडम्बना की तरफ राष्ट्र का ध्यान आकर्षित करते हैं कि भारत से जाने वाले लेखकों के पारस्परिक संवाद की भाषा ही अंग्रेजी नहीं थी, प्रतिनिधिमंडल के मुखिया का भयावह दुराग्रह था कि कहीं भी हिन्दी का औपचारिक प्रयोग न हो, कोई भी वक्तव्य हिन्दी में न दिया जाए।

महीप सिंह जी की पीड़ा से जुड़ते हुए मैं इस देश के पाखण्डप्राण सत्ताधीशों से निवेदन करना चाहता हूं कि इस प्रकार पग-पग पर हिन्दी को अपमानित करने के स्थान पर वे घोषित रूप से अंग्रेजी को ही मातृभाषा, पितृभाषा और राजभाषा तथा राष्ट्रभाषा का संवैधानिक स्थान दिला दें ताकि अनर्गल आचरण के ये दंश हमें बार-बार न सहने पड़ें।

प्रमोद तिवारी की पंक्तियां

पिछले दिनों विविध काव्य समारोहों में कानपुर के कवि प्रमोद तिवारी की अभिव्यक्तियां सुनकर मुग्ध होता रहा। लगभग दस वर्ष तक परिदृश्य से अनुपस्थित- सा रहने के बाद प्रमोद पुन: जैसे प्रकट हुए हैं और हर सहृदय के चित्त में स्थान बना रहे हैं। “राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं” को गाने वाला उनका गीत अपनी तरह का एक अनूठा गीत है जो बड़ी ही सहजता से जीवन के गहन मर्म को वाणी देता है। उनके कुछ नए अशआर व्यक्ति को जीवन की चुनौतियां स्वीकारने तथा स्वाभिमान के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं-

हम तो पिंजरों को परों पर रात-दिन ढोते नहीं,

आदमी हैं हम किसी के पालतू तोते नहीं।

क्यों अंधेरों की उठाये घूमते हो जूतियां,

क्यों चरागों को जलाकर चैन से सोते नहीं।

बधाई, प्रमोद जी।

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