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स्त्री

by
Oct 10, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Oct 2004 00:00:00

हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भतेजस्विनीस्त्रीतेजस्विनीमंगलम्, शुभ मंगलम्कितनी ही तेज समय की आंधी आई, लेकिन न उनका संकल्प डगमगाया, न उनके कदम रुके। आपके आसपास भी ऐसी महिलाएं होंगी, जिन्होंने अपने दृढ़ संकल्प, साहस, बुद्धि कौशल तथा प्रतिभा के बल पर समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत किया और लोगों के लिए प्रेरणा बन गयीं। क्या आपका परिचय ऐसी किसी महिला से हुआ है? यदि हां, तो उनके और उनके कार्य के बारे में 250 शब्दों में सचित्र जानकारी हमें लिख भेजें। प्रकाशन हेतु चुनी गयी श्रेष्ठ प्रविष्टि पर 500 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।साइकिल वाली बाईफुटपाथ से चौराहे तक-श्रीति राशिनकरमेरी हमदम, मेरी दोस्त-साइकिल के साथनिर्मला पाठकचर्च गेट (मुम्बई) में चौराहे पर सफेद साड़ी, पैरों में जूते, सिर पर टोपी पहने और मुंह में सीटी दबाए यातायात को नियंत्रित करती महिला की चुस्ती-फुर्ती देखकर लोग दांतों तले उंगली दबा लेते थे। यह किसी और की नहीं, उन्हीं निर्मला पाठक की बात है, जो कभी मुम्बई में फुटपाथ पर रहती थीं। जिन्होंने किसी समय अखिल भारतीय साइकिल प्रतियोगिता में 136 पुरुष प्रतियोगियों में तीसरा स्थान प्राप्त किया था। पढ़ाई के नाम पर जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। जो अपनी किशोरावस्था में चार आने कमाकर भाई-बहनों का पेट भरने के लिए लोगों के घर लीपती थीं। जब फुर्सत मिलती तो अखाड़े में चली जातीं, वहां लाठी चलाना, बंदूक चलाना सीखतीं थीं। फिर वह दौर भी आया जब उनकी शादी एक साधारण से परिवार में हुई। यहीं उन्होंने दाई का काम सीखा लेकिन ससुराल वालों के दुव्र्यवहार के कारण उन्हें जल्दी ही पति से अलग होना पड़ा। जिन्दगी अपनी तरह से जीने के लिए उन्होंने साइकिल का दामन थाम लिया। यह बात अलग है कि उनके पास अपनी साइकिल न थी। अपनी साइकिल तो तब भी न थी जब उन्होंने साइकिल प्रतियोगिता में भाग लिया था। वह तत्कालीन रेलमंत्री श्री एस.के.पाटिल के पास गर्इं तो उन्होंने एक साइकिल उपलब्ध करवाई। बस फिर साइकिल ही जिन्दगी बन गई, आंधी हो, पानी हो, चिलचिलाती धूप हो या हाड़ कंपा देने वाली ठंड, साइकिल पर सवार निर्मला पाठक जगह-जगह “कूरियर” पहुंचातीं। एक कूरियर कम्पनी में उन्हें नौकरी मिल गई थी। रोज 42 किलोमीटर साइकिल चलाने वाली निर्मला पाठक देश की पहली ऐसी महिला बनीं, जिन्होंने कूरियर पहुंचाने का काम किया। मुम्बई में लोग उन्हें साइकिल वाली बाई कहने लगे। अब तक वह चार लाख किलोमीटर साइकिल चला चुकी हैं।फिर तो जीवन में अनेक मोड़ आए। यूं ही एक बार स्वतंत्रता सेनानी वीर सावरकर से मुम्बई में भेंट हुई तो उन्होंने निर्मला के भीतर छुपे समाजसेवी भाव को देख उन्हें पारसी अस्पताल में आया का काम दिलवा दिया।जिंदगी की राह बड़ी कठिन थी, जीने के लिए पापड़ बेलने ही नहीं पड़े, बेचने भी पड़े। कुछ समय के लिए मीठी गोलियां और पापड़ बेचे। लेकिन हिम्मत कभी नहीं हारी। ससुराल छोड़ी थी तो इन्दौर से सीधे मुम्बई आ गर्इं। अंजानी राहें। बस यूं ही फुटपाथ पर दिन बीतने लगे। एक-दिन, दो-दिन, दो महीने, चार महीने, छह महीने तब 1962 के आखिर में कहीं एक छत नसीब हुई। वह इसलिए संभव हुआ कि जब फुटपाथ पर थीं, तो एक दिन आचार्य अत्रे की नजर उन पर पड़ गई, उन्होंने निर्मला को पढ़ने और अभिनय के लिए प्रेरित किया। बाद में पैसा कमाने के लिए फिल्मों में अभिनय किया, नृत्य भी किया। पारिश्रमिक के रूप में हाथ आते थे सिर्फ 12 रुपए। उन्हीं दिनों फिल्म अभिनेता राजेन्द्र कुमार मिले, उन्होंने निर्मला पाठक में समाज सेवा का भाव देखा और उन्हें इसी दिशा में काम करने की सलाह दी। 250 फिल्मों में काम करने के बाद उन्होंने वह राह भी छोड़ दी। फिर तो और भी कई आयाम तय किये। कई काम किये, लेकिन सबसे ज्यादा लोकप्रियता उन्हें “ट्रेफिक वार्डन” के रूप में मिली। 36 वर्षों तक मुम्बई में “ट्रैफिक वार्डन” के रूप में काम करने वाली निर्मला जी ने कितनों को जीवन में दिशा दिखाई।गत बारह वर्षों से वह इन्दौर के लोगों को अपनी सेवाएं दे रही हैं। सुबह नौ बजे से रात ग्यारह बजे तक आंधी, पानी, धूप, ठंड में इन्दौर की व्यस्ततम सड़कों पर अब भी वह अपनी नि:शुल्क सेवाएं दे रही हैं। निर्मला पाठक का जन्म 12 अगस्त, 1926 में इन्दौर के एक अत्यंत गरीब परिवार में हुआ था। परिवार में सात भाई और एक बहन निर्मला-जैसे-तैसे गुजारा होता था। मां के साथ घर-घर में काम करने लगीं। दिन-रात जुटे रहने का यह सिलसिला 78 वर्ष की आयु होने पर भी रुका नहीं है। अब भी भोर में पांच बजे उठ जाती हैं और दिनभर काम में जुटी रहती हैं। जिंदगी भर दोपहिया साइकिल का दामन थामे रहीं निर्मला तिपहिया रिक्शे वालों की हमदर्द हैं। इन्दौर के 20,000 रिक्शे वालों को वह अपना पुत्र मानती हैं। बड़े गर्व से कहती हैं, “वे सब मुझे मां कहते हैं और मैं उन पर ममता लुटाने की कोशिश करती हूं।”अस्सी वर्ष की होने को आयीं निर्मला जी का दमकता चेहरा, स्नेहिल व्यवहार, अदम्य शक्ति-आखिर क्या राज है? पूछने पर पता लगता है कि वह खाने में सिर्फ दूध और दही लेती हैं। प्रतिदिन आधा किलो दही खाती हैं। निर्मला जी का व्यक्तित्व इन पंक्तियों का साकार रूप है। “जीवन चलने का नाम…”। और अंतिम सांस तक यह जीवन किसी के काम आए, यही ध्येय लेकर जी रही हैं निर्मला पाठक।21

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