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जब बच्चे गाएं "कमबख्त इश्क"<p style=font-weight:bol

by
Jan 8, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jan 2004 00:00:00

जब बच्चे गाएं “कमबख्त इश्क”

तो दोषी माता-पिता को मानें?

छोटे पर्दे पर क्या दिखाया जा रहा है, कभी सोचा है आपने?

डा. नताशा अरोड़ा

मनोरंजन का सस्ता-सुलभ साधन होने के कारण फिल्में सदा ही भारतीय जन-जीवन को प्रभावित करती रही हैं। किन्तु नई तकनीक के बाद टेलीविजन युग ने मनोरंजन के इस माध्यम का हुलिया कुछ ऐसा बदला है कि तमाम मनोरंजक श्रेणी के कार्यक्रम किसी न किसी रूप में फिल्मी गीतों से सराबोर रहते हैं। और तो और, किस नायक का पसंदीदा भोजन क्या है, किस नायिका को कौन सा रंग पसंद है- आदि चर्चाएं भी अब महत्व रखती हैं। नन्हीं प्रतिभाओं को अवसर प्रदान करने के नाम पर प्रसारित किए जाने वाले कार्यक्रमों में फिल्मी गानों के लटकों-झटकों से भरपूर नन्हे पांव- “कम्बख्त इश्क” – “हाय जवानी” – “मुझको राजा जी माफ करना”- पर नाचते दिखते हैं। दर्शक दीर्घा में इन नौनिहालों के माता-पिताओं के गर्व से सीने फूल जाते हैं। ऐसे ही कार्यक्रमों से प्रभावित होकर अच्छी शिक्षण संस्थाओं में भी मेलों आदि के आयोजन के बीच होने वाली नृत्य गान प्रतियोगिताओं में नर्सरी तक के बच्चे “डोला रे डोला… मन डोला” पर कमर लचकाते दिख जाते हैं और उनको यह सब सिखाने वाली माताएं बलिहारी जाती हैं।

ऐसे ही दूसरे बेहद पसंदीदा कार्यक्रम हैं फिल्मी अन्ताक्षरी के। फिल्मी गीतों की अन्ताक्षरी ने घरों में तो प्रवेश कर ही लिया है, अब वे पाठशालाओं में भी आधिपत्य जमा बैठी हैं। मुझे याद है, जब हम पढ़ा करते थे तो सहपाठियों में अन्ताक्षरी के लिए कविताएं याद करने की होड़ लगी रहती थी। कबीर-सूर-तुलसी-मीरा-केशवदास-बिहारी-भूषण से लेकर जयशंकर प्रसाद – मैथिलीशरण गुप्त आदि तक। आज बच्चों के सामने चर्चा करो तो वे हंसते हैं, “किस जमाने की बात कर रही हो?” कौन थे ये भूषण-प्रसाद? हां, मीराबाई का नाम सुना है और तुलसी वही रामायण वाले ना? उनकी कविताओं की अन्ताक्षरी? डरावने या जासूसी धारवाहिकों ने भी सारे बंधन तोड़ दिए हैं।

ऐसा नहीं है कि टेलीविजन पर अच्छे कार्यक्रमों का अभाव है। ऐसा भी नहीं है कि शिक्षण संस्थाएं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में स्तरीय प्रदर्शन नहीं करतीं। दुर्भाग्य से टेलीविजन पर हल्के स्तर के प्रदर्शन अपनी रोचक व रोमांचक प्रस्तुति के आकर्षक इन्द्रजाल में बच्चे तो क्या बड़ों को भी बांध लेते हैं। धन कमाने की बेतहाशा दौड़ क्या निर्माता, क्या चैनल किसी को भी अपने जमीर में झांकने का मौका नहीं देती। फिर भी इन्हीं के बीच चंद अच्छे गीत व कार्यक्रम अपनी रोचकता के कारण जुगनुओं की भांति छुटपुट झलक दिखा हमारी आशा की डोर को टूटने नहीं देते। एक अजब-सा सुकून मिलता है जब “कमबख्त इश्क” के स्थान पर बच्चे उतने ही उत्साह से “मां तुझे सलाम” भी गुनगुनाते हैं।

संस्कृति पर हावी होते तथाकथित सांस्कृतिक कार्यक्रम, वैचारिक कल्पनाशीलता को इस हद तक दूषित करते जा रहे हैं कि सभी प्रकार के अपराध व घृणित कृत्य करते शिक्षित किशोरों/युवाओं, यहां तक कि छिछोरी हरकतें करते प्रौढ़-वृद्ध, मनचलों व शिक्षकों द्वारा छात्राओं के साथ कुत्सित व्यवहार की खबरें रोज की अखबारी सुर्खियां बन चुकी हैं। जिम्मेदार कौन? गिरती नैतिकता की जिम्मेदारी केबल टी.वी., फिल्मों या फिर आमतौर पर शिक्षा संस्थाओं पर डाल दी जाती है। कुछ हद तक यह सत्य भी है, पर क्या इससे हमारा उत्तरदायित्व कम हो जाता है? बच्चों को टी.वी. पर कुछ भी देखने की छूट देकर हम राहत की सांस लेते हैं ताकि हम कार्यालय/घर के काम निबटा सकें, या दोस्तों से गपशप कर सकें, किटी पार्टी या ताश पत्ते खेल सकें। यानी गिरती नैतिकता के लिए अभिभावक भी उतने ही दोषी हैं जितनी हमारी सामाजिक, शैक्षिक और प्रशासनिक व्यवस्था।

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