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कही-अनकही अगर लड़कियां

by
Aug 6, 2003, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Aug 2003 00:00:00

बाजी मारती रहींद दीनानाथ मिश्रइस बार भी दसवीं और बारहवीं की परीक्षा में वही हुआ जिसका खतरा था। लड़कियों ने बाजी मार ली। परिणाम वाले दोनों दिनों के अखबारों में प्रसन्नवदनाओं की मुस्कुराती फोटो छपीं। बाजी भी ऐसी वैसी नहीं जीती उन्होंने, जैसे 19-20 का फर्क हो। सफल छात्राओं का प्रतिशत 10-20 प्रतिशत ज्यादा हो तो निष्कर्ष बिल्कुल साफ हो जाता है। बाबा आदम के जमाने से यह माना जाता रहा है कि औरतों में अक्ल नहीं होती और होती है तो बहुत कम। पुरुषों के मुकाबले आधी होती है। इसका तो मजहबी सबूत भी है। पाकिस्तान जाकर देख लीजिए। एक पुरुष की गवाही दो औरतों की गवाही के बराबर मानी जाती है।एक और मजहब है। वह शताब्दियों तक मानता रहा कि औरतों में आत्मा ही नहीं होती। जब आत्मा ही नहीं होगी, तो अक्ल भी नहीं होगी। बनाने वाले ने स्त्रियों को एक पसली से बना दिया। एक पसली वाली स्त्री, बहुत सी पसलियों वाले पुरुष के सामने किसी भी मामले में क्या खाकर टिक सकेगी? गलती हमारे यहां भी हुई। अगर हमने पढ़ने-लिखने का मंत्रालय किसी देवता को सौंपा होता तो आज लड़कों को शर्मिन्दगी नहीं उठानी पड़ती। हमने मंत्री बना दिया सरस्वती को। उन्हें विद्या की देवी कहा। आज विद्या की देवी सरस्वती ही पक्षपात पर उतर आई हैं। इसलिए बेचारे फेल होने वाले लड़कों का प्रतिशत ज्यादा रहता है। दाल में कुछ काला जरूर है वरना साल दर साल यही तमाशा नहीं चलता। लोग बेवजह लड़कों पर आवारगी और भटकन का आरोप लगाते हैं। मुझे तो लगता है कि लड़कियां ही जानबूझ कर उनको भटकाती हैं। वे बेचारे उनके पीछे भटकते रहते हैं, खुद पढ़ती रहती हैं और बाजी मार ले जाती हैं। और यह तब है जब मां-बाप दोनों जन्म के पहले से ही लड़कों को ज्यादा लाड़-प्यार करते हैं। बेटे की पढ़ाई-लिखाई पर दोनों ही टकटकी लगाए रहते हैं। बेटी तो पराए घर की अमानत होती है सो उस पर स्वाभाविक रूप से आस नहीं लगाई जाती। मगर फिर भी परीक्षाओं में लड़कियां पीट रही हैं और लड़के पिट रहे हैं। दस-बीस साल ऐसे ही चला तो मां-बाप की पुत्र कामना कम होती जाएगी। हो सकता है समाज शास्त्र करवट ले और कन्यादान की जगह वर-दान की परम्परा चल जाए। लड़कियां ब्याह कर दूल्हे को अपने घर लाने लगें। इधर महिला सशक्तिकरण चल ही रहा है। सबसे बड़ा सशक्तिकरण तो पढ़ाई-लिखाई और प्रशिक्षण का होता है।अभी पिछले दिनों कम्प्यूटर इंजीनियरिंग की एक छात्रा ने एक छोटी सी बात पर बारात को लात मार कर बेरंग लौटा दिया। निशा नाम की इस लड़की ने दो हजार बारातियों-सरातियों के धूमधाम भरे आयोजन के बीच रंग में भंग डाल दिया। हुआ यह कि ठीक शादी के पहले लड़के वालों ने 12 लाख रुपए के अतिरिक्त दहेज की मांग कर दी। कार-वार, टी.वी.-शी.वी., फ्रिज-व्रिज, म्यूजिक-व्यूजिक सिस्टम अगैरह-वगैरह तो वह दे ही रहे थे। बल्कि हर चीज के दो-दो सेट दे रहे थे। इसीलिए मैंने कार-वार लिखा है। जब लड़के वाले ने दिल इतना खुला देखा तो 12 लाख रुपए के लिए उनका दिल और मचल गया। नतीजा हुआ कि निशा शर्मा का नाम अखबारों और चैनलों पर छा गया। बधाइयां, पुरस्कार, सम्मान अलंकरण वगैरह का तांता लग गया। एक हफ्ते में जाने कहां से कई और लड़कियों में भी हिम्मत आ गई। उन्होंने भी दहेज के सवाल पर बारात लौटा दी।इन इम्तिहानों में लड़कियां अगर इसी तरह लड़कों को पीटती रहीं तो लड़कियों को दहेज मिलेगा और लड़के वाले देंगे। वैसे भी लड़कियां कम ही हैं। कहीं सौ में दस कम हैं, तो कहीं पन्द्रह। बेटे को कुंवारे रखने से ज्यादा अच्छा होगा दहेज देकर बेटे के हाथ पीले कर दें। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने बच्चे के साथ मां का नाम लिखना अनिवार्य कर दिया है। पहले बाप का नाम लिखना अनिवार्य था। लड़कियां इसी तरह बाजी मारती रहीं तो दक्षिण से मातृ-सत्तात्मकता की आंधी चलेगी। केरल में कुछ-कुछ मातृ-सत्तात्मकता तो पहले से ही है। मैं लड़कों को चेतावनी देना चाहता हूं। अभी संभलो, वरना आने वाले दौर में लड़कियां तुमको छेड़ेंगी और तुम बस में दुबके रहोगे। पुलिस थाने में भी सुनवाई नहीं होगी। वहां की अफसर भी कोई न कोई किरण बेदी होगी।14

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