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मंथन

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May 10, 2003, 12:00 am IST
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दिंनाक: 10 May 2003 00:00:00

मोरोपंत पिंगले

असामान्य योजक, महान संगठक!

— देवेन्द्र स्वरूप

पूज्य गुरुजी के साथ (मध्य में) श्री मोरोपंत। चित्र में सबसे बाएं हैं कोल्हापुर के तत्कालीन प्रख्यात फिल्म निर्माता निर्देशक श्री भालजी पेंढारकर सन् 1989 में जब अयोध्या में राममंदिर के निर्माण के लिए देशभर में शिला पूजन के कार्यक्रम हुए, 3 लाख गांवों में राम मंदिर के लिए शिलादान और शिला पूजन कार्यक्रम हुआ, प्रति परिवार केवल सवा रुपए की राशि और प्रति गांव केवल एक शिला देने की मांग रखी गयी, देश की विशाल सन्त शक्ति इस अभियान में कूद पड़ी तब प्रसिद्ध पत्रकार स्व. गिरिलाल जैन ने अपने एक लेख में लिखा था कि जिस मस्तिष्क ने लोक जागरण की इस अभिनव कल्पना को जन्म दिया और शिलापूजन कार्यक्रम की तैयारी की, उस मस्तिष्क को भावी पीढ़ियां एक असामान्य प्रतिभा (जीनियस) के रूप में स्मरण रखेंगी।इसके पूर्व 1982-83 में पूरे भारत में एकात्मता यात्रा की योजना बनायी गयी। इस कार्यक्रम में गंगा माता और भारत माताकी आराधना के लिए गंगाजल और भारत माता के चित्र के साथ तीन मुख्य यात्राएं- एक हरिद्वार से कन्याकुमारी, दूसरी काठमांडू के पशुपतिनाथ मंदिर से रामे·श्वर धाम तक, तीसरी बंगाल में गंगा सागर से सोमनाथ तक तय की गयी। मार्ग में भिन्न-भिन्न स्थानों से सैकड़ों छोटी-छोटी यात्राओं का संगम इन बड़ी यात्राओं में होना था। लगभग 50,000 किलोमीटर का फासला तय करने वाली इन यात्राओं को बीच में एक निश्चित समय पर नागपुर नगर में प्रवेश करना था। किसी को वि·श्वास नहीं था कि और ये यात्राएं निर्धारित समय पर नागपुर पहुंच सकेंगी। पर यह चमत्कार घटित हुआ। क्योंकि इसके पीछे मोरोपंत का योजक मस्तिष्क कार्य कर रहा था। उन्होंने प्रत्येक बड़ी यात्रा और प्रत्येक छोटी यात्रा के प्रत्येक पड़ाव की समयसारिणी की सूक्ष्मतम रूपरेखा पहले अपने मस्तिष्क में और फिर कागज पर तैयार कर दी थी। उन्होंने कपड़े पर तीनों यात्राओं की समयसारिणी के साथ भारत का मानचित्र तैयार कराया था, जिसे देखकर उस समय दिल्ली के राज्यपाल जगमोहन

कुछ वर्ष पूर्व एक कार्यक्रम में (बाएं से) श्री मोरोपंत,

श्री रज्जू भैया व श्री प्रह्लाद अभ्यंकर

मुम्बई में जनकल्याण बैंक के एक कार्यक्रम में

तत्कालीन विपक्ष के नेता श्री मनोहर जोशी

के साथ श्री मोरोपंत पिंगले

आश्चर्यचकित रह गए थे। उन्होंने आश्चर्य से कहा कि यह अद्भुत योजना किस मस्तिष्क की उपज है। यह तो भारत के लोक मानस को स्पंदित करने वाला अद्भुत कार्यक्रम है। जिन लोगों को शंका थी कि तीनों यात्राएं नागपुर में निर्धारित समय पर एक साथ नहीं पहुंच पाएंगी, वे यह देखकर चमत्कृत रह गए थे कि उनकी शंकाओं को निर्मूल करके वे यात्राएं समय पर वहां पहुंच गयीं। इन यात्राओं में पौने सात करोड़ देशवासियों ने भाग लिया। और इस एक कार्यक्रम ने वि·श्व हिन्दू परिषद् को अखिल भारतीय जन संगठन का रूप दे दिया।

एक कार्यक्रम में मोरोपंत पिंगले का अभिनंदन करते हुए

स्वामी सत्यमित्रानंद जी महाराज

6 दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में (बाएं से) श्री मोरोपंत पिंगले,

श्री हो.वे.शेषाद्रि व श्री कुप्.सी. सुदर्शन

मोरोपंत पिंगले ही उस मस्तिष्क का नाम है जिसने इस कार्यक्रम की कल्पना की, उसकी सूक्ष्मतम रूपरेखा तैयार की और उस रूपरेखा को एक कपड़े पर मानचित्र का रूप दे दिया। कैसी थी मोरोपंत की कार्य पद्धति, इसका अनुभव मुझे व्यक्तिश: हुआ। उन दिनों मैं दीनदयाल शोध संस्थान के निदेशक का दायित्व संभाल रहा था। मा. नानाजी देशमुख के साथ मिलकर हम लोगों ने सोचा कि संघ के स्वयंसेवक द्वारा देशभर में चल रहे सेवा एवं रचनात्मक प्रकल्पों से जुड़े कार्यकर्ताओं की एक कार्यशाला दिल्ली में आयोजित की जाए। इस विचार को मूत्र्तरूप देने से पहले संघ के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों का मार्गदर्शन लेना आवश्यक लगा। मोरोपंत जी एकात्मता यात्रा की योजना के सिलसिले में दिल्ली आए हुए थे। उन्होंने कहा कि साउथ एक्सटेंशन के धर्म भवन में कार्यकर्ताओं की बैठक में जा रहा हूं। वह बैठक खत्म होने के बाद मैं बिल्कुल खाली हूं। तुम लोग वहीं धर्म भवन आ जाओ। उनके दिए समय पर नाना जी और मैं वहां पहुंच गए। बैठक समाप्ति के निकट थी। बैठक समाप्त होते ही मोरोपंत अपनी सहज प्रसन्न मुद्रा में बोले कि बस, अब मेरा काम खत्म हुआ। आगे का सब कार्य ये कार्यकर्ता करेंगे। मैं मुक्त हूं। और उन्होंने हमसे हमारे विषय पर बात शुरू कर दी। तीनों यात्राओं के नागपुर पहुंचने के पूर्व ही मोरोपंत नागपुर पहुंच चुके थे, वे इन यात्राओं में कहीं नहीं थे। और अन्य नागपुरवासियों के समान ही उन्होंने भी यात्राओं को नागपुर में प्रवेश करते देखा। यह थी उनकी कार्यपद्धति, सब कुछ करके, उससे अलग, कहीं सामने नहीं, अपने लिए कोई श्रेय नहीं। बिल्कुल ब्राहृ की तरह, जो सब कुछ करता है और कुछ नहीं करता। जो सब सृष्टि का रचयिता है पर स्वयं कहीं नहीं है, ओझल है।

मोरोपंत डा. हेडगेवार द्वारा गढ़े गए कार्यकर्ताओं का जीवंत उदाहरण थे। वे बड़े हैं, अधिकारी हैं, असामान्य हैं, ऐसा आभास उन्होंने कभी नहीं होने दिया। उनके पास जाओ तो लगता था वे तुम्हारी बात सुनने के लिए ही खाली बैठे हैं, उनका निश्छल हास्य आपकी सब चिन्ताओं को दूर कर देता था। वे स्वयं कार्य नहीं करते थे, कार्य के द्वारा कार्यकर्ता खड़े करते थे। वे कभी तत्वज्ञान की ऊंची-ऊंची बातें नहीं करते थे। गंभीर दार्शनिक मुद्रा में तो उन्हें शायद ही कभी किसी ने देखा हो। उनके बौद्धिक में किसी के लिए सोना संभव ही नहीं था। वे इतने हल्के-फुल्के ढंग से चुटकुलों और कथाओं के साथ अपनी बात रखते थे कि उनके बौद्धिक के बीच श्रोताओं के हंसी के फौव्वारे छूटते रहते थे और कोई सोना चाहे तो भी सो नहीं सकता था।

कभी-कभी यह सोचकर आश्चर्य होता है कि मोरोपंत को हिन्दू समाज की प्रकृति और मानसिकता की कितनी गहरी समझ थी। लोक जागरण और लोक संग्रह के नए-नए कार्यक्रमों की योजना उनकी इस समझ में से निकली थी। इससे भी बड़ी विशेषता यह थी कि लोकजागरण के विशाल कार्यक्रमों की सूक्ष्मतम संगठनात्मक रचना खड़ी करने में वे निष्णात थे। वे संगठन शास्त्र के मर्मज्ञ थे। कितने लोगों को पता है कि वि·श्व हिन्दू परिषद् का विशाल अखिल भारतीय जनाधार खड़ा करने के पीछे मोरोपंत जी की योजक बुद्धि और संगठन कुशलता का ही मुख्य योगदान है।

1981-82 में जब तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में कुछ हरिजन परिवारों का सामूहिक धर्मान्तरण देश के लिए चुनौती बनकर आया तो मोरोपंत को वि·श्व हिन्दू परिषद् के मार्गदर्शन का दायित्व सौंपा गया। उस चुनौती का सामना करने के लिए हिन्दू समाज में देशव्यापी जागरण की लहर तुरन्त खड़ा करना आवश्यक था। तभी मोरोपंत ने एकात्मता यात्राओं की योजना तैयार की, विराट हिन्दू सम्मेलनों की श्रृंखला की रूपरेखा बनायी और 1984 से श्रीराम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन को देशभर में गांव-गांव और जन-जन तक पहुंचाने, अनेक पंथों में बिखरी संत शक्ति को इस आंदोलन से जोड़ने और उस संत शक्ति के विशाल अनुयायी वर्ग को इस आंदोलन में सम्मिलित करने की दृष्टि से एक के बाद दूसरे अभिनवों कार्यक्रमों की कल्पना की, इन कार्यक्रमों को परंपरागत प्रतीकों के माध्यम से जन भावनाओं से जोड़ा। अयोध्या आंदोलन को इतना व्यापक रूप देने और वि·श्व हिन्दू परिषद् को उसका शक्त माध्यम बनाने में मोरोपंत जी के असामान्य योगदान की पूरी कहानी यहां लिखना संभव नहीं है। पर वह अवश्य ही देश के सामने आना आवश्यक है।

मोरोपंत की दृष्टि पूरी तरह रचनात्मक थी। केवल संगठन और जनान्दोलनों के क्षेत्र में ही उनकी इस रचनात्मक दृष्टि के दर्शन नहीं होते, बौद्धिक क्षेत्र में भी उन्होंने इस रचनात्मक दृष्टि का परिचय दिया। संघ के प्रथम प्रचारक बाबा साहेब आपटे के प्रति उनके मन में अनन्य श्रद्धा थी। आपटे जी की रुचि भारतीय इतिहास के पुनर्लेखन में थी। इसलिए मोरोपंत ने बाबा साहेब आपटे स्मारक समिति की स्थापना की और उसके तत्वावधान में इतिहास संकलन योजना तैयार की। इस योजना के अन्तर्गत उन्होंने भारत के प्रत्येक जिले का इतिहास लिखने की कल्पना सामने रखी। उन्होंने भारतीय काल-बोध को ईस्वीं सन् से मुक्त करके कलि संवत से जोड़ने का भगीरथ प्रयास किया, भारतीय काल गणना पर अनेक शोधपरक ग्रंथ तैयार कराए। मालवा क्षेत्र में अपने प्रारंभिक प्रचारक जीवन के सहयोगी एवं प्रसिद्ध पुरातत्वविद् स्व. हरिभाऊ वाकणकर को साथ लेकर प्राचीन सरस्वती नदी के पुण्य प्रवाह की खोज यात्रा का विराट कार्यक्रम बनाया और स्वयं हिमायल से गुजरात के समुद्र तट तक वे इस यात्रा में सम्मिलित रहे। आपटे स्मृति ग्रंथ के लिए उन्होंने सातवीं शताब्दी से 18वीं शताब्दी तक विदेशी आक्रमणों और दास्ता के विरुद्ध भारतीय प्रतिरोध एवं जिजीविषा की कथा को विषय के रूप में चुना और इसे आयोजित करने का दायित्व मुझे सौंपा। इतिहास संकलन समिति के वर्तमान महामंत्री डा. राजेन्द्र कुशवाहा, डा. सुरजीत कौर जौली, कु0 चारु मित्तल, श्रीमती रचना चौबे और डा. अनिल त्यागी आदि इतिहासकारों के दल ने दो वर्ष तक इस प्रकल्प पर अथक परिश्रम किया और उस विषय पर पुरानी विद्वत्ता द्वारा लिखित सैकड़ों लेखों व दस्तावेजों को इकट्ठा किया। मुझे बहुत लज्जा है कि मैं मोरोपंत की इस इच्छा को उनके जीवन काल में मूत्र्त रूप नहीं दे पाया और संकलित सामग्री को डा. कुशवाहा को सौंपकर निश्चिन्त हो गया। वे अब उसे अन्तिम रूप देने में लगे हैं पर अब मोरोपंत तो उसे अपनी भौतिक आंखों से नहीं देख पाएंगे। उसका प्रकाशन अब उनके प्रति श्रद्धांजलि ही होगी।

महान संघटक का वैशिष्ट्य यह होता है कि वह अपने प्रत्येक कार्यकर्ता की रुचि, प्रवृत्ति और मन:स्थिति का ध्यान रखता है। प्रत्येक कार्यकर्ता के मन में यह वि·श्वास जगाता है कि वही उनका स्नेहपात्र है। मोरोपंत ने श्री माधवराव गोलवलकर के निधन के पश्चात् सात खंडों में श्री गुरुजी समग्र का संयोजन किया। ये खंड कालक्रमानुसार बनाए गए हैं। किन्तु मुझे आश्चर्य हुआ जब एक दिन मोरोपंत ने मुझे भी गुरुजी समग्र के अलग से जिल्द बंधे खंड दिए। इन खंडों में मूल समग्र की सामग्री को विषयानुसार संजोया गया है। मोरोपंत को लगा कि इसे पुस्तकें जमा करने का शौक है, इसलिए इसे यह भेंट अच्छी लगेगी। वे जब भी दिल्ली आते तो कोई न कोई पुस्तक मुझे अवश्य देते। कभी सरस्वती पर, कभी आर्य समस्या पर। आखिर, मोरोपंत जी भी चले गए। इस सोमवार (21 सितम्बर) की मध्यान्ह अपनी जन्मभूमि नागपुर में वे 85 वर्ष की आयु में वे जर्जर काया के पिंजड़े से मुक्त हो गए। यह एक समर्पित ध्येयनिष्ठ तपस्वी की यात्रा थी। इन 85 वर्षों में से 62 वर्ष तो उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्णकालिक जीवनव्रती कार्यकर्ता (प्रचारक) के नाते कठोर साधना की। संघ-गंगा के भगीरथ डा. हेडगेवार के हाथों उनके अपने सांचे में ढले मोरोपंत संगठन शास्त्र के मर्मज्ञ, आत्मविलोपी साधना के असामान्य उदाहरण थे। अपनी इस आत्मविलोपी कार्यपद्धति के कारण वे कठिन से कठिन परिस्थिति में असाधारण कर्तृत्व प्रगट कर पाते थे। उस कर्तृत्व को देखकर ही अनुमान लग जाता था कि इसके पीछे कहीं न कहीं मोरोपंत विद्यमान हैं। 1948 में गांधी-हत्या के बहाने संघ पर प्रतिबंध लगा तो मोरोपंत महाराष्ट्र में सह प्रान्त प्रचारक थे। अपनी योजकता और संगठनकुशलता के बल पर स्वयं भूमिगत रहते हुए उन्होंने महाराष्ट्र से 11,000 सत्याग्रहियों को जेल जाने की प्रेरणा दी। 1975 में आपातकाल में भी वे भूमिगत रहकर ही देशभर में संघ के संगठनतंत्र का सम्पर्क सूत्र बने रहे। मुझे स्मरण है कि उन दिनों मुझे भूमिगत प्रचार-बुलेटिन तैयार कराने का दायित्व दिया गया था। एक दिन प्रात: मुझे मोरोपंत का बुलावा आया। मैं उनके भूमिगत निवास पर गया। उसके पहले दिन ही उन्होंने देशभर के भूमिगत कार्यकर्ताओं की बैठक ली थी। उनसे भूमिगत आंदोलन की गतिविधियों के वृत्त एकत्र किए थे, वे वृत्त मुझे सौंपकर उन्होंने कहा कि इनमें से जो सामग्री उचित एवं उपयोगी लगे उसे निकाल कर अपने बुलेटिन में इस्तेमाल कर लेना। रात को मित्रद्वय भानुप्रताप शुक्ल और रामशंकर अग्निहोत्री मेरे घर पर उस सामग्री का अध्ययन करने और बुलेटिन की रूपरेखा बनाने के लिए एकत्र हुए। यह अलग बात हे कि उसी रात को पुलिस ने मेरे घर पर पहुंचकर मुझे धर दबोचा।

बात मोरोपंत की है कि प्रत्येक संघर्षकाल में भूमिगत रहे, जेल जाने का यश उन्होंने कभी नहीं कमाया। जेल यात्रा यश देती है और पचास झंझटों दे मुक्ति भी। किन्तु मोरोपंत ने सरल रास्ता कभी नहीं पकड़ा, यश की कोई कामना कभी नहीं की। वे गुमनामी में रहकर अपनी संगठन साधना में ही लगे रहे। छह-सात वर्ष पूर्व उन्हें पक्षाघात हुआ। उस समय वे अकेले थे, किन्तु बड़े धैर्य के साथ उन्होंने उसका सामना किया और अपनी ध्येय-निष्ठा व जिजीविषा के बल पर उस पर विजय पायी। विश्राम नहीं किया। लगातार काम में लगे रहे, दौरा भी करते रहे। लोगों की चिन्ता करते रहे। इसी मार्च महीने में प्रात:काल नागपुर से मुझे फोन आया। मोरोपंत बोल रहे थे। आवाज लड़खड़ा रही थी, शब्द स्पष्ट नहीं थे। बोले तुम्हारी सोसायटी में वह जो रहता है उसने पं. सातवलेकर के स्वाध्याय आश्रम से वैदिक वाड्मय पर विशेष छूट देने का अनुरोध किया है। उससे कहना मैंने व्यवस्था कर दी है, वस वह मंगा ले। उन्हें नाम ठीक से याद नहीं था पर मैं समझ गया कि वे डा. श्याम बहादुर की बात कर रहे हैं। मैंने कहा कि मोरोपंत आप तो पुणे में विश्राम कर रहे थे। यहां नागपुर में कैसे? बोले प्रतिनिधि सभा की बैठक के लिए आया था, वापस चला जाऊं गा। फिर बस एक बार मुम्बई और एक बार पार ही जाना है। फिर वापस पुणे। पर ऐसा हुआ नहीं। कार्य की तड़प ने उन्हें विश्राम लेने नहीं दिया। वे मुम्बई, पुणे और नागपुर आते-जाते रहे। मुम्बई से एक दिन डा. रवीन्द्र रामदास का फोन आया कि मोरोपंत आपटे जी के जन्म शताब्दी समारोह की रूपरेखा बनाने में लगे हैं। आपटे जी के बारे में कोई भी पुस्तक आपके पास हो तो भेजो। उस दिन दिल्ली में आपटे जन्म शताब्दी समारोह समिति की पहली बैठक में पता लगा कि मोरोपंत ने नागपुर में देशभर के कार्यकर्ताओं के साथ बैठक 2 समारोह वर्ष की पूरी रूपरेखा बनवा दी। ये हैं मोरोपंत। गीता के स्थितप्रज्ञ कर्मयोगी के साक्षात उदाहरण। उनकी पावन स्मृति आनेवाली पीढ़ियों के सामने, आदर्शों के लिए आत्मविलोपी साधना का प्रेरणास्तंभ बन कर खड़ी रहेगी। इस स्मृति को शत-शत प्रणाम्। (25-9-2003)

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