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तो नागरिक कानून क्यों?
-प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा
प्रवक्ता एवं सांसद, भाजपा
जनसंघ के निर्माण से लेकर अब तक हमारे प्रत्येक घोषणा-पत्र में समान नागरिक संहिता की बात कही जाती रही है, हमने इसे सैद्धान्तिक रूप से स्वीकार किया है। समान नागरिक कानून हमारे लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वि·श्व के लगभग 180-185 देश, जो संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य हैं, सभी में एक समान नागरिक कानून है। मैंने स्वयं मोरक्को, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, ईरान, पाकिस्तान आदि कई मुस्लिम देशों की यात्रा की है और पाया है कि वहां भी शरीयत के अनुसार कानून का पालन नहीं होता। कई मुस्लिम देश ऐसे भी हैं जहां एक पत्नी के रहते दूसरी महिला से विवाह पर प्रतिबंध है। ट्यूनीशिया में तो स्पष्ट कानून है कि दूसरा विवाह हो ही नहीं सकता, जबकि वह पूर्णतया मुस्लिम देश है। जब मुस्लिम देशों ने भी शरीयत को छोड़कर अपने कानून बनाए हैं तो भारत में भी इसका पालन करने में आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
दूसरी बात,भारत हो या पाकिस्तान, वहां अपराध कानून शरीयत के अनुसार नहीं हैं। शरीयत में कहा गया है कि जो चोरी करे उसका हाथ काट दिया जाए। जो व्यभिचार करे उसे पत्थर मार-मार कर मौत के घाट उतार दिया जाए। जब शरीयत का यह अपराध कानून स्वीकार नहीं किया जाता तो सामान्य नागरिक कानून स्वीकार करने में क्या आपत्ति है? परन्तु कट्टरपंथी मुस्लिम वर्ग ने तय कर रखा है कि वे इसे नहीं मानेंगे और इसमें छद्म धर्मनिरपेक्ष पार्टियां उनका समर्थन करती हैं।
दुर्भाग्य से इस समय संसद में भारतीय जनता पार्टी का बहुमत नहीं है। राज्यसभा में तो हमारा बहुमत है ही नहीं, लोकसभा में भी हमारे कुछ सहयोगी इससे सहमत नहीं हैं। वोट बैंक की राजनीति के कारण सभी को मुस्लिम वोट बहुत बड़ी संख्या में दिखाई देते हैं। इसलिए वे जो बात न्यायपूर्ण है, संविधान-सम्मत है और सर्वोच्च न्यायालय भी जिसे तीन बार कह चुका है, उसे मानने को तैयार नहीं हैं। इन हालात में भाजपा अधिक से अधिक यही कर सकती है कि हम इस पर बहस चलाएं और बहस बहुत दिनों से चल ही रही है। पर हम जानते हैं कि बहस के बाद मतदान में हमारा बहुमत नहीं होगा, इसलिए हम नियम 184 के तहत बहस नहीं चाहते। क्योंकि सरकार के प्रस्ताव का बार-बार सदन में गिरना शुभ संकेत नहीं होता। संसद में संख्या बल कम होने की मजबूरी के कारण हम सैद्धान्तिक रूप से स्वीकार किए गए अपने उस प्रस्ताव को पारित नहीं करा पा रहे हैं, जिसको लागू करने का सुझाव सर्वोच्च न्यायालय ने भी दिया है।
संसद में हमारा प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस, जो छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी है और मुसलमानों का तुष्टीकरण जिसका सबसे प्रमुख उद्देश्य है, वह किसी भी दशा में इस प्रस्ताव को पारित नहीं होने देंगे। उन्होंने स्पष्ट कह भी दिया है कि जब तक मुसलमानों के बीच से इस तरह की मांग न उठे और वे इसके लिए तैयार न हों, तब तक इसे लागू नहीं करना चाहिए।
हालांकि अयोध्या और समान नागरिक कानून- ये दोनों मामले बिल्कुल अलग-अलग हैं। अयोध्या का मामला धार्मिक मामला है, जबकि यह मामला कर्मकाण्ड का है। यहां सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह संविधान के नीति निर्देशक तत्व के अनुरूप है। जबकि अयोध्या उसी तरह का धार्मिक मामला है जिस तरह हजरत मोहम्मद पैगम्बर साहब के बाल का मामला था। हमने कभी यह यह आपत्ति नहीं की कि वह पैगम्बर साहब का बाल है या नहीं, हमने कभी आपत्ति नहीं की कि ईसा मसीह मरियम के पुत्र थे या नहीं। यह उनकी आस्था का प्रश्न है। ऐसे ही अयोध्या भी आस्था का प्रश्न है। इसीलिए वि·श्व हिन्दू परिषद् कहती है कि आस्था के प्रश्न न्यायालय को नहीं तय करने चाहिए। जबकि समान नागरिक कानून आस्था का नहीं, संवैधानिक प्रश्न है।
सारी दुनिया देख रही है कि भारत में ही हिन्दुओं की जनसंख्या कम होती जा रही है। सन् 1951 से लेकर सन् 2001 तक 50 वर्षो में हिन्दुओं की जनसंख्या 88 प्रतिशत से घटकर लगभग 80-81 प्रतिशत हो गयी। दूसरी तरफ मुसलमान 8 प्रतिशत से बढ़कर 13-14 प्रतिशत हो गए। अर्थात् 7-8 प्रतिशत हिन्दू घटे और 5-6 प्रतिशत मुस्लिम बढ़े। इसी षड्यंत्र के द्वारा हिन्दुस्थान को एक इस्लामी मुल्क बनाने की जो साजिश है, इसी कारण कट्टरपंथी समान नागरिक संहिता को स्वीकार नहीं करते। यह घोर आपत्तिजनक और भेदभावपूर्ण है कि देश में दो तरह के कानून चलें। कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति का ही यह परिणाम है कि मुस्लिम समाज इस मुद्दे पर अकारण जिद पर अड़ा हुआ है। इसी कारण से मुस्लिम कट्टरवाद बढ़ रहा है। द
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