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धूप सीढ़ियों पर विकल, लेटी थकी निढाल,
मंदिर वाले ताल का, मन हो गया गुलाल।
हंसी, संदली धूप क्या, बिखरे मोती टूट,
गुदना गोदे प्रीत के, मौसम बोले झूठ।
करवट बदलें चादरें, जागें सुघड़ गिलाफ,
सलवट-सलवट हांफते, इक मखमली लिहाफ।
धूप, धौंकती धौकनी, चमके सतलड़ हार,
घेरदार ये घाघरा, बैठा सड़क बुहार।
जागी आंखों देखती, इक सपने रंगीन,
धूप लड़कियों की तरह, अपने में तल्लीन।
हवा भैरवी गा रही, भरती धूप अलाप,
पत्तों की शहनाइयां, बाज रहीं चुपचाप।
दिन की तपती मेड़ पर, बिछे मूंगिया शंख,
कुछ सहमे सकुचाय से, उगे धूप के पंख।
बैठ नदी के घाट पर, धूप धो रही पांव,
भौचक होकर देखती, बड़, पीपल की छांव।
द दिनेश शुक्ल
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