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चर्चा सत्र

by
Nov 19, 2011, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 19 Nov 2011 16:34:13

चर्चा सत्र

उमर की वोट राजनीति की भेंट न चढ़ें सेना के विशेषाधिकार इस षड्यंत्र को समझ

मे.जन. (से.नि.) गगनदीप बख्शी

रक्षा विशेषज्ञ

हमारे देश में विदेशी पैसे पर मौज करने वाली कई गैर सरकारी संस्थाएं एक व्यापक षड्यंत्र का हिस्सा बन गई हैं। उन्होंने भारतीय सेना के विरुद्ध एक तीखा नफरती अभियान शुरू किया है। इसका एकमात्र मकसद है सेना का मनोबल तोड़ना, इसे “राक्षस” की संज्ञा देना और सेना के आपरेशनों के न्यायिक आधार पर पूर्णत: सवालिया निशान लगा देना। याद रहे कि भारतीय सेना हमारे देश का अंतिम और निर्णायक हथियार है जो तभी इस्तेमाल किया जाता है जब कानून-व्यवस्था सुचारू रखने की तमाम कोशिशें नाकाम रहती हैं। सेना ने पूर्वोत्तर राज्यों, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में सराहनीय भूमिका निभाई है। सेना विद्रोहों और बगावतों को रोकने में सबसे कारगर हथियार सिद्ध हुई है। इसमें संदेह नहीं कि जब तक जम्मू-कश्मीर में सेना तैनात है तब तक वहां जमे बैठे अलगाववादी तत्व देश को तोड़ने में सफल नहीं हो सकते। लेकिन अब यह गहरा षड्यंत्र रचा जा रहा है भारतीय सेना का मनोबल तोड़ने और उसके आपरेशनों के न्यायिक आधार को ही पूर्णत: खत्म कर देने का। इसके अंतर्गत तमाम सेकुलर टीवी चैनलों और अखबारों में भारतीय सेना पर आरोपों की झड़ी लगाते हुए छाया-युद्ध छेड़ दिया गया है। आए दिन सेना पर अत्याचार, व्यभिचार और न जाने क्या-क्या मनगढ़ंत आरोपों की बौछार की जाती है। लेकिन इस सबके बीच भारतवर्ष के लोग यह पूर्णत: जानते हैं कि 1990 से अब तक भारतीय सेना के 5108 अफसर, जेसीओ और जवान जम्मू-कश्मीर में अपने जीवन की कुर्बानी दे चुके हैं। कृतज्ञता तो दूर, इस देश में उनके खिलाफ अभद्र भाषा बोली जा रही है। अफसोस यह है कि ज्यादातर आरोप सफेद झूठ हैं। भारतीय मानवाधिकार आयोग ने सेना के विरुद्ध 1518 आरोपों की जांच करवाई। उनमें से 97 फीसदी सरासर झूठ और बेबुनियाद साबित हुए। जो 2.3 प्रतिशत सत्य पाए गए उनके आधार पर सेना ने 104 अफसरों, जेसीओ और जवानों के “कोर्ट मार्शल” कर कड़ी सजा सुना दी।

सब आरोप सफेद झूठ

आरोप है कि सशस्त्र सेनाओं के विशेषाधिकार (एएफएसपीए) जरूरत से ज्यादा सख्त हैं और सैनिकों को मनमानी करने का अधिकार देते हैं, जिसका सेना तथाकथित दुरुपयोग कर रही है। यह एकदम निराधार आरोप है। अगर हम एएफएसपीए की तुलना अमरीका के पेट्रियट कानून या यूरोप के अन्य देशों में पारित कानूनों से करें तो यह उनसे कहीं ज्यादा नरम है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने आतंकवाद के विरुद्ध तमाम देशों को सख्त कानून पारित करने का निर्देश दिया है। भारत एकमात्र देश है जहां आतंकवाद के विरुद्ध पारित किए गए कानूनों को सख्त करने के बजाए रद्द कर दिया गया है। “टाडा” और “पोटा” जैसे कानून रद्द कर दिए गए हैं। अब कुछ गैर सरकारी संस्थाओं ने अपना निशाना एएफएसपीए पर साधा है। हैरत की बात है कि ये तत्व आतंकवादियों और अलगावादी तत्वों के मानवाधिकारों की दुहाई देते नहीं थकते। पर सेना को बदनाम करने का उन्होंने अच्छा-खासा अभियान चला रखा है, जो अब चरम पर पहुंच चुका है। मानवाधिकारों की दुहाई देकर तथाकथित उदारवादी तत्व समस्त आतंकवादी गुटों का सामरिक एकीकरण अभियान चला रहे हैं। अपने आपको बुद्धिजीवी कहलाने वाले तत्वों ने हमारे देश में ऐसा वातावरण तैयार किया है जिसमें देशभक्ति को एक गाली समान समझा जाता है। इसे “जाहिल भीड़ के उन्माद” की संज्ञा दी जा रही है। अपने देश को तोड़ने के हर अलगाववादी प्रयास का समर्थन आज के ऐसे “बुद्धिजीवियों” का फैशन सा बन गया है। विदेशी पुरस्कारों की लालसा में पगलाए ये तत्व अपने देश के टुकड़े-टुकड़े कर देने पर आमादा हो गए हैं। प्रशांत भूषण पहले भ्रष्टाचार के मुद्दे को लेकर पूरे मीडिया पर छा गए। उसके एकदम बाद उन्होंने अपने विदेशी झुकाव का प्रदर्शन किया। वह कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग दुहराने लगे। क्या वजह है कि ये तथाकथित बुद्धिजीवी भारतवर्ष को तोड़ने के लिए इतने तत्पर हो गए हैं? हैरानी की बात तो यह है कि आज हमारी केन्द्र सरकार ही लाचार सी होकर इन्हें प्रोत्साहन देने पर तुली हुई है।

क्या सेना के विशेषाधिकार गैर कानूनी और असंवैधानिक हैं? इस मुद्दे पर भारत के उच्चतम न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की पीठ अपना साफ निर्णय सुना चुकी है। उसने एएफएसपीए को संविधान के दृष्टिकोण से खरा पाया। यही नहीं, जिन विकट परिस्थितियों में सेना अपने अभियान चला रही है उसे देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने एएफएसपीए की धारा 4 और 6 को और भी कड़ा कर दिया। साफ है उच्चतम न्यायालय को एएफएसपीए जरूरत से ज्यादा सख्त नहीं, अपितु कमजोर लगा था और उसने उसे और कड़ा करने के आदेश दिए। क्या विदेशी पैसों पर पले हमारे गैर सरकारी संगठन अपने को सर्वोच्च न्यायालय से भी ऊपर समझते हैं?

वे सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बावजूद इस अधिनियम की निंदा करते नहीं थकते। उनका एकमात्र एजेंडा जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना के आतंकवाद विरोधी आपरेशनों पर अंकुश लगाना है ताकि वह इस देश को टूटने से न बचा सके। उन्हें लगता है देश को तुड़वाकर ही वे मैगसेसे, बुकर्स जैसे पुरस्कार पाने की लालसा पूरी कर सकेंगे।

सामान्य नहीं परिस्थितियां

जहां तक एएफएसपीए को जम्मू-कश्मीर के गिने-चुने जिलों से हटाने की उमर की अलगावपरस्त मांग का सवाल है तो ऐसा करना एक भारी भूल होगी। अभी स्थिति पूर्णत: सामान्य नहीं हुई है। पाकिस्तान की फौज और आईएसआई के 42 में से 34 आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर पूर्णत: सक्रिय हैं। करीब 2500 आतंकवादी उनमें अब भी जिहादी प्रशिक्षण पा रहे हैं। 800 आतंकवादी “लांच पैड्स” पर तैनात हैं। इस साल अभी तक करीब 230 आतंकवादियों ने नियंत्रण रेखा को पार करने का प्रयास किया है। कश्मीर में इस वर्ष अभी तक 50 से अधिक आतंकवादी हमारे सुरक्षा बलों ने मार गिराए हैं। तो हम स्थिति को सामान्य कैसे मान लें? भारतीय सेना की सामरिक महत्व की सड़क श्रीनगर और बडगाम जिलों से गुजरती है। अपने रसद कारवांओं को बचाने हेतु सेना को हर रोज इस सड़क और इसके आसपास तीन किलोमीटर के क्षेत्र को सुरक्षित रखना पड़ता है। श्रीनगर विमानतल की सुरक्षा भी नितांत आवश्यक है। आतंकवाद के समस्त सूत्रधार पहाड़ों में नहीं, अपितु श्रीनगर शहर की गलियों में रहते हैं। यहीं से रसद और पैसा प्रमुख आतंकवादी संगठनों को पहुंचाया जाता है। कुछ जिलों से एएफएसपीए हटाना उन्हें आतंकवादियों की आरामगाह बनाने का काम करेगा। वे वहां जमा होकर सेना के दबाव से बच जाएंगे और पलटवार के प्रयास में जुट जाएंगे। एएफएसपीए एक बार हटाकर दुबारा आसानी से नहीं लागू किया जा सकता। यह पूरा स्वांग अब एक षड्यंत्र का रूप ले रहा है, जिसका मकसद कश्मीर को भारतवर्ष से अलग करना है। जम्मू-कश्मीर से सेना या उसके विशेषाधिकार हटाने की मांग हमारे देश के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।द

संयुक्त राष्ट्र संघ ने आतंकवाद के विरुद्ध तमाम देशों को सख्त कानून पारित करने का निर्देश दिया है। भारत एकमात्र देश है जहां आतंकवाद के विरुद्ध पारित किए गए कानूनों को सख्त करने के बजाए रद्द कर दिया गया है। “टाडा” और “पोटा” जैसे कानून रद्द कर दिए गए हैं।

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