डॉ. कृष्णगोपाल
साप्ताहिक पाञ्चजन्य अपने प्रकाशन के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रही है। यद्यपि यह हिन्दी पत्रिका है, पर इसके पाठक देशभर में हैं। यह एक समाचार पत्रिका ही नहीं, एक विचार पत्रिका भी है। स्वतंत्रता से पहले देश के बड़े-बड़े लोगों ने पत्रकारिता में अपना योगदान दिया था। महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक, गुजरात में गांधीजी, उत्तर प्रदेश में मालवीय जी, गणेश शंकर विद्यार्थी जी, पंजाब में लाला लाजपत राय, बंगाल में बिपिन चन्द्र पाल, महर्षि अरविंद विभिन्न विषयों पर अनेक पत्रिकाओं में लेख लिखते थे। समाज को जानकारी देने के लिए और सरकार पर भी एक लोकतांत्रिक पद्धति से भिन्न-भिन्न विषयों पर दबाव बनाने के लिए पत्रकारिता का चलन चला।
स्वतंत्रता के बाद धीरे-धीरे ऐसा ध्यान में आया कि पत्रकारिता में समर्पित लोग कुछ कम हो रहे हैं। पत्रकारिता का उद्देश्य रहता है कि सरकार को जनता के नजरिए से अवगत कराना और गूढ़ विषयों पर जनता का प्रबोधन कर उनका मानस तैयार करना। बहुत बार जटिल विषय आते हैं। उन जटिल विषयों पर सामान्य जनमानस इतना नहीं जानता। इसलिए समाज के प्रबुद्ध जन की जिम्मेदारी बनती है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में देश के सामान्य जनमानस को गंभीर विषय को कैसे समझाया जाए, यह पत्रकारिता का विशिष्ट राष्ट्रीय दायित्व बनता है। स्वतंत्रता के बाद देश में यह संकट गहराया, क्योंकि धीरे-धीरे समाचार जगत में कुछ विशेष प्रकार के लोगों का प्रवेश हुआ। उनमें कुछ लोग ऐसे थे जो कम्युनिज्म की विचारधारा से प्रेरित होकर आए थे। ऐसे लोगों की राष्ट्र के प्रति अवधारणा और सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक चिंतन भिन्न प्रकार का था जो इस देश के लिए सर्वथा हानिकारक था। कुछ ऐसे लोग पत्रकारिता में आ गए, जो पश्चिमी देशों के विचारों के पोषक थे। कुछ लोग आर्थिक लाभ कमाने के लिए या अपनी स्वयं की प्रतिष्ठा के लिए पत्रकारिता में आए। इस प्रकार से पत्रकारिता के सामने दिशा का एक बड़ा संकट खड़ा हुआ। ऐसे कठिन और जटिल समय में जब देशभक्त विचारवान लोग धीरे-धीरे पत्रकारिता से दूर होते जा रहे थे और एक विशेष विचार को लेकर पत्रकारिता में आ रहे थे, देश के गंभीर प्रश्नों को जनता के सामने कौन रखता?
स्वतंत्रता के बाद देश में यह संकट गहराया, क्योंकि धीरे-धीरे समाचार जगत में कुछ विशेष प्रकार के लोगों का प्रवेश हुआ। उनमें कुछ लोग ऐसे थे जो कम्युनिज्म की विचारधारा से प्रेरित होकर आए थे। ऐसे लोगों की राष्ट्र के प्रति अवधारणा और सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक चिंतन भिन्न प्रकार का था जो इस देश के लिए सर्वथा हानिकारक था। कुछ ऐसे लोग पत्रकारिता में आ गए, जो पश्चिमी देशों के विचारों के पोषक थे।
देश की स्वतंत्रता के साथ-साथ पाञ्चजन्य ने पत्रकारिता जगत में प्रवेश किया। आज इसे 75 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। अनेक पत्रिकाएं पिछले 75 वर्ष में आईं और गईं । ‘ब्लिट्ज’ आया, अनेक भाषाओं में प्रकाशित हुआ और चला गया। ‘धर्मयुग’ आया और वह भी चला गया। ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ था, वह भी बंद हो गया। ‘इलस्ट्रेटिड वीकली’ अब नहीं निकलती। ‘दिनमान’ जैसी पत्रिका अब नहीं दिखती। लेकिन पाञ्चजन्य 75 वर्ष की लंबी यात्रा के बाद भी हिम्मत के साथ विश्व पटल पर और विशेष रूप से भारत के लोकमानस के बीच में खड़ी है। अनेक जटिल और कठिन विषयों पर पाञ्चजन्य ने देश की जनता का प्रबोधन किया है। कठिन से कठिन विषयों को सरलता के साथ जनता को समझाने का प्रयत्न किया है। यह यात्रा लंबी है, लेकिन महत्वपूर्ण है। पाञ्चजन्य ने अपने संपादकीय लेखों, विशिष्ट आलेखों और समाचारों के विश्लेषण के साथ जनता का प्रबोधन किया, वहीं सरकार पर भी दबाव बनाने का पूरा प्रयत्न किया। सरकार दिग्भ्रमित न हो जाए, सरकार दिशाहीन न हो जाए। ऐसे कुछ मुद्दों की चर्चा आपके सामने करूंगा जिन मुद्दों पर पाञ्चजन्य ने जनता का प्रबोधन किया और सरकार को भी दिशा दिखाने का प्रयत्न किया।
पाञ्चजन्य 75 वर्ष की लंबी यात्रा के बाद भी हिम्मत के साथ विश्व पटल पर और विशेष रूप से भारत के लोकमानस के बीच में खड़ी है। अनेक जटिल और कठिन विषयों पर पाञ्चजन्य ने देश की जनता का प्रबोधन किया है। कठिन से कठिन विषयों को सरलता के साथ जनता को समझाने का प्रयत्न किया है।
पाञ्चजन्य छपना शुरू ही हुआ था कि कश्मीर पर पाकिस्तान ने आक्रमण कर दिया। पाकिस्तान की सेना कबाइलियों के रूप में कश्मीर के अंदर प्रवेश कर गई। पाकिस्तान चाहता था, कश्मीर को भारत से काट दिया जाए। देश की सरकार को भी समझ में नहीं आ रहा था कि आक्रमणकारी कौन हैं। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जी भी यही कह रहे थे कि यह कबाइलियों का आक्रमण है। उस समय पाञ्चजन्य (दूसरा अंक, 1948) के संपादकीय में लिखा गया, 'हम लड़ाई नहीं चाहते। लड़ाई में बर्बादी है। किंतु लड़ाई को रोकने का एक ही तरीका है कि हम पाकिस्तान को समझा दें कि हमें छेड़ना बर्र के छत्ते में हाथ डालना है, शंकर के प्रलय नेत्र को खुलने के लिए निमंत्रण देना है। हम पग-पग पर झुकने का स्वभाव छोड़ें। मानसिक दुर्बलता को दूर करें। शांति के नाम पर शांति की हत्या न करें। सत्य के नाम पर असत्य का पुरस्कार न करें।'
फिर, तिब्बत के ऊपर चीन का आक्रमण हुआ, लेकिन इस मामले पर भारत सरकार आंख बंद करके रही। इस पर पाञ्चजन्य ने अनेक लेख और संपादकीय लिखे और चीन की कुटिल नीति को उजागर करने की कोशिश की। पाञ्चजन्य के संपादकीय और लेख इस बात को स्पष्ट कर रहे थे कि तिब्बत के ऊपर भारत की नीति उचित नहीं है। तिब्बत के ऊपर चीन के नियंत्रण का मतलब था कि चीन की सीमा भारत से लग जाएगी। भारत और चीन के बीच में तिब्बत था। चीन के आक्रमण के बाद चीन और भारत के बीच से तिब्बत गायब हो गया था।
1962 के पहले जब भारत में ‘हिन्दी-चीनी, भाई-भाई’ के नारे लगते थे तब पाञ्चजन्य के संपादक और लेखकों ने आगाह किया कि इसके जरिए भारत के साथ धोखा हो सकता है
पाञ्चजन्य ने इस बात को बार-बार बताया और सरकार को इस बात के लिए जागरूक किया कि तिब्बत की हमारी नीति में परिवर्तन होना चाहिए। अगर तिब्बत जाएगा तो चीन भारत की सीमा पर खड़ा हो जाएगा। सरकार ने उस बात पर ध्यान नहीं दिया। 1962 के पहले जब भारत में ‘हिन्दी-चीनी, भाई-भाई’ के नारे लगते थे तब पाञ्चजन्य के संपादक और लेखकों ने यह आगाह किया कि इसके जरिए भारत के साथ धोखा हो सकता है। उन दिनों पाञ्चजन्य ने एक संपादकीय में लिखा, 'हम एक महाभीषण खतरे की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं। यह खतरा है भारत की उत्तरी सीमाओं पर माओ-मालेन्कोव साम्राज्यवाद से। तिब्बत जबसे माओ साम्राज्य का अंग बना है, तबसे भारत की उत्तरी सीमा पर विशेष रूप से संकट उत्पन्न हो गया है।
यह बड़ी विचित्र बात है कि एक ओर नेहरू सरकार चीन के साथ मैत्री की चर्चाएं करती है और उससे सद्भावना मंडलों का आदात-प्रदान करती है तो दूसरी ओर उसकी साम्राज्यवादी योजनाओं को जानते-समझते हुए भी उनका खुलकर विरोध नहीं करती। यह नीति तो कालांतर में आत्मघातक ही सिद्ध हो सकती है। तिब्बत को हड़पने में माओ सरकार का उद्देश्य यही था कि वहां पर अपनी सैनिक शक्ति एकत्रित करके भारत तथा नेपाल को भी अपने प्रभाव क्षेत्र में लाया जा सकेगा। और हम देख रहे हैं कि तिब्बत पर उसका अधिकार होने के बाद से यही कार्य आरंभ हो गया है।' कालांतर में यह आशंका सही सिद्ध हुई जब 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। कथित साम्यवादी चीन की साम्राज्यवादी नीति एवं मंशा से आज समस्त संसार परिचित हो चुका है। भारत अब भी उस खतरे से निरंतर दो-चार हो रहा है।
पाञ्चजन्य, जनता और सरकार, दोनों को जगाने का काम करता रहा। देश के स्वतंत्र होने के बाद भी देश के कुछ हिस्से ऐसे थे जहां पर पुर्तगालियों और फ्रेंच लोगों का कब्जा था। पुद्दुच्चेरी, पर फ्रांसीसियों का कब्जा था। फ्रांसीसी वहां से जाएं, यह आह्वान पाञ्चजन्य ने 1950 से ही प्रारंभ किया। इस मामले पर पाञ्चजन्य ने अनेक समाचार और लेख प्रकाशित किए। जैसे ही फ्रांसीसियों ने पुद्दुच्चेरी को छोड़ा तो सबसे पहले पाञ्चजन्य ने आह्वान किया कि अब गोवा की मुक्ति की बारी है। गोवा मुक्ति आंदोलन के समय देशभर में पाञ्चजन्य अकेला ऐसा पत्र था जिसने जनता का आह्वान किया था।
पाञ्चजन्य ने समरसता पर विशेषांक निकाल कर यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि देश में जाति के आधार पर, वर्णों के आधार पर, ऊंच और नीच का विचार करना गलत है, घातक है। यह न केवल असंवैधानिक है, बल्कि अमानवीय भी है
पाञ्चजन्य के आह्वान पर देशभर से हजारों लोग गोवा की मुक्ति के लिए गोवा गए। गोवा को पुर्तगालियों से स्वतंत्र कराने के पक्ष में पाञ्चजन्य ने लगातार लिखा। अगस्त, 1955 के एक अंक के संपादकीय में लिखा गया है, 'गोवा की मुक्ति के लिए भारत सरकार को पुलिस कार्रवाई करनी चाहिए।' पाञ्चजन्य में नारे छपते थे- 'गोवा भी जाएंगे, गोली भी खाएंगे।' और अंततोगत्वा 1961 में गोवा भी स्वतंत्र हुआ। हम कह सकते हैं कि पुद्दुच्चेरी और गोवा की मुक्ति में पाञ्चजन्य का एक बड़ा योगदान है।
भाषाई आधार पर जब प्रांत रचना का विचार चला तो पाञ्चजन्य ने अनेक लेख और संपादकियों द्वारा इसका विरोध किया। पाञ्चजन्य का यह स्पष्ट मत था एक भाषा-भाषियों को इकट्ठा करके एक प्रांत में रखना उचित नहीं है। एक भाषा-भाषियों के दो-तीन प्रांत भी हो सकते हैं। जैसे तेलुगु भाषा-भाषियों के दो प्रांत हो सकते हैं। हां, एक प्रांत की एक भाषा हो, लेकिन एक भाषा-भाषियों को मिलाकर एक प्रांत बनाया जाए, यह अच्छा नहीं है। पाञ्चजन्य ने यह बात सबसे पहले उठाई थी।
1984 में इंदिरा जी की हत्या के बाद जब देश में दंगे भड़के तो अनेक पत्र ऐसे थे, जो इन दंगों से दूर खड़े थे। लेकिन पाञ्चजन्य ने अपने लेखों में इस बात को स्पष्ट किया कि ये दंगे गलत हैं। किसी भी कीमत पर दंगों को सही नहीं ठहराया जा सकता। दंगाइयों को उचित दंड मिलना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से दंगाइयों को उचित दंड नहीं मिल सका। यह देश के लिए बड़ा प्रश्न है। लेकिन पाञ्चजन्य ने बार-बार 84 के दंगों की भर्त्सना की।
देश में ऐसे कई लोग थे और संस्थाएं थीं, जो देश को टुकड़ों में बांट देना चाहती थीं। ये लोग चाहते थे कि उत्तर और दक्षिण में भाषाई आधार पर या सम्प्रदाय के आधार पर देश के छोटे-छोटे टुकड़े हो जाएं। ऐसे समय में पाञ्चजन्य ने राष्ट्र की एकता पर अंक निकाले। अपना देश सनातन काल से एक है। अंग्रेजों के कारण से देश एक नहीं है। हजारों वर्षों से भारतभूमि ऐसी भूमि है जिसकी सांस्कृतिक अवधारणा है। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, द्वारका से लेकर जगन्नाथ तक और परशुराम कुंड तक हमारा देश हजारों-हजारों वर्षों से एक है। इसकी एकता किसी राजनीतिक एकता से बंधी हुई नहीं है। हमारे देश को ऋषियों ने, मुनियों ने, साहित्यकारों ने, धार्मिक लोगों ने एक बनाकर रखा है।
आज 130 करोड़ देशवासियों को भिन्न-भिन्न मुद्दों पर राष्ट्र के विचारों से अवगत कराना, यह पाञ्चजन्य का दायित्व है। दूसरा, सारे देश को सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से एक बनाए रखना उसका दूसरा प्रमुख दायित्व है। जब कभी सरकार रास्ता बदलती है और रास्ता ऐसी ओर जाता है जिससे देश को कोई हानि होने वाली है, तो ऐसी बातों पर जनता को जागरूक करना, जनता का प्रबोधन करना, यह दायित्व पाञ्चजन्य का है। अनेक बार जटिल मुद्दे खड़े हो जाते हैं। हमारे देश का जो नागरिक है, वह सामान्यजन है। सामान्य जन जटिल मुद्दों को नहीं जानता। बहुराष्ट्रीय कंपनियां क्या हैं, वे क्या करती हैं, पाञ्चजन्य ऐसे सब मुद्दों को सरल करके जनता के सामने प्रस्तुत करता है। और जनता को कहता है, निर्णय आप लीजिए। क्या ठीक और क्या गलत। अर्थात् तथ्यों को प्रामाणिकता के साथ खोजकर जनता के सामने प्रस्तुत करना, निर्णय जनता के ऊपर छोड़ देना। यही पत्रकारिता का आदर्श है। पाञ्चजन्य उस आदर्श का निर्वाह पिछले 74 वर्ष से कर रहा है। आनंद की बात है कि चाहे अयोध्या का आंदोलन हो या अनुच्छेद 370 हो, बांग्लादेशियों की घुसपैठ हो, पड़ोसी देशों से जान बचाकर भारत आए हिंदुओं को नागरिकता देने का प्रश्न हो, विकास की अवधारणाएं हों, तिब्बत की समस्या हो या कबाइलियों का आक्रमण, गोवा या पुद्दुच्चेरि की आजादी हो।
अनेक विचारधाराएं इस देश में पैर पसारने का काम कर रही थीं। उसमें देश को तोड़ने वाली विचारधारा भी थी। विदेशी अपने हित चाहने वाली विचारधाराओं को लेकर आ रहे थे। कम्युनिज्म अपना पैर फैलाना चाहता था। कम्युनिज्म कहता था कि हम रूस से चीन तक आए हैं। चीन से विएतनाम आ गए हैं। बंगाल से होकर सारे देश पर कब्जा कर लेंगे। ऐसे कठिन काल में इन सबसे संघर्ष लेने का काम पाञ्चजन्य ने किया। आज 74 वर्ष के बाद अपनी अच्छी श्रेयपूर्ण विजय गाथा लिखकर पाञ्चजन्य खड़ा है। पाञ्चजन्य ने वामपंथियों के प्रचंड प्रवाह को रोका है। पाञ्चजन्य ने विदेशी संस्कृति के आयात से भी हिम्मत से टक्कर ली है। देश की विघटनकारी शक्तियों को जनता के सामने निर्वस्त्र किया है। देश को तोड़ने वाली शक्तियों को ठीक प्रकार से करारा जवाब दिया है।
पाञ्चजन्य ने अपनी प्रामाणिकता के साथ अपने कर्तव्य का निर्वहन किया। यह अभिनंदनीय है, स्तुत्य है। वैसे पाञ्चजन्य के प्रारंभ से लेकर अब तक जितने भी संपादक हुए, जितने भी संवाददाता और लेखक हुए, आज वे सब इस लंबी राष्ट्र निर्माण की यात्रा में अभिनंदनीय हैं। उन्होंने तब संघर्ष किया, जब देश संकटकाल से गुजर रहा था। नीतियों पर, विचारों पर सामान्यजन को कौन बताएगा। गांव के लोग हैं। बहुत बड़ी मात्रा में लोग निरक्षर भी थे। बड़ी मात्रा में लोग अच्छे अखबारों को नहीं पढ़ते थे और अखबार भी अधिक विचार नहीं देते थे। ऐसे कठिन काल में देश में विचारधारा का भी एक बड़ा संकट था। अनेक विचारधाराएं इस देश में पैर पसारने का काम कर रही थीं। उसमें देश को तोड़ने वाली विचारधारा भी थी। विदेशी अपने हित चाहने वाली विचारधाराओं को लेकर आ रहे थे। कम्युनिज्म अपना पैर फैलाना चाहता था। कम्युनिज्म कहता था कि हम रूस से चीन तक आए हैं। चीन से विएतनाम आ गए हैं। बंगाल से होकर सारे देश पर कब्जा कर लेंगे। ऐसे कठिन काल में इन सबसे संघर्ष लेने का काम पाञ्चजन्य ने किया। आज 74 वर्ष के बाद अपनी अच्छी श्रेयपूर्ण विजय गाथा लिखकर पाञ्चजन्य खड़ा है।
पाञ्चजन्य ने वामपंथियों के प्रचंड प्रवाह को रोका है। पाञ्चजन्य ने विदेशी संस्कृति के आयात से भी हिम्मत से टक्कर ली है। देश की विघटनकारी शक्तियों को जनता के सामने निर्वस्त्र किया है। देश को तोड़ने वाली शक्तियों को ठीक प्रकार से करारा जवाब दिया है। पाञ्चजन्य ने शासकीय लोगों या ऐसे भिन्न- भिन्न प्रकार के राजनीतिक दलों को भी गंभीर राष्ट्रीय चुनौती दी है। इस सफल यात्रा के प्रति हमलोग आश्वस्त है। हमलोग आश्वस्त इस बात पर भी हैं कि यात्रा और लंबी चलेगी और यशस्वी बनेगी। कड़ी साधना के लिए मैं पाञ्चजन्य के सभी कार्यकर्ताओं को प्रणाम करता हूं।
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहसरकार्यवाह हैं)
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