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होम भारत

बाल दिवस या वीर बाल दिवस ?

by WEB DESK
Jan 15, 2022, 04:00 pm IST
in भारत, दिल्ली
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'चमकौर के युद्ध'  में 10 लाख मुग़ल सैनिकों के सामने सिर्फ 43 सिखों ने गुरु गोविंद सिंह जी के नेतृत्व में अधर्म और असत्य के खिलाफ लड़ते हुए मुगल सेना के हौसले पस्त कर दिए थे, उन 43 सिखों में गुरु गोविंद जी के चार साहिबजादों में से दो बड़े साहिबजादे अजीत सिंह और जुझार सिंह ने भी वीरता पूर्वक लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी।

 

बचपन से 14 नवम्बर को बाल दिवस मनाते आयी इस पीढ़ी को, जिसमें हम लेखक भी शामिल हैं, कई बार यह विचार आया है की आखिर पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिवस को बाल दिवस के रूप में मनाने का आधार क्या है? शिक्षकों और पुस्तकों से जानकारी यही मिली की चाचा नेहरू जी को बच्चों से बेहद प्रेम था और इसलिए उनके जन्मदिन को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है।

वो दिवस जिस से करोड़ों बच्चों को प्रेरणा लेनी चाहिए थी, जिस दिन पूरे देश में विभिन्न आयोजन किए जाने चाहिए थे, ताकि आगे आने वाली पीढ़ी प्रेरणा ले सके। वह बाल दिवस आज सिर्फ़ सोशल मीडिया पर फ़िल्म कलाकार अनिल कपूर की तस्वीर के साथ 'हैपी बालदिवस' के मीम बनाने तक और इस पवित्र दिवस का मज़ाक़ उड़ाने तक ही सीमित रह गया है। ये वो भारत देश है, जहां वीर अभिमन्यु मां के कोख से ही चक्रव्यूह भेदन सीख लेता है, ये वो भारत है, जहां राजा भरत बालपन में ही वन में सिंह के दांत गिनते पाए जाते हैं, ये वो भारत है, जहां मात्र बारह वर्ष की आयु में बाजी राउत देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर जाते हैं और ये वो भारत है, जहां भगवान कृष्ण भी लड्डू गोपाल के बाल रूप में पूजे जाते हैं। कम से कम ऐसे भारत में तो बाल दिवस को राजनीतिक शतरंज की बिसात से परे रखने की सख़्त आवश्यकता थी। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा सिखों के 10वें गुरु और खालसा पंथ के संस्थापक गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रकाश पर्व पर इस वर्ष से 26 दिसंबर को 'वीर बाल दिवस' के रूप में मनाने की घोषणा की है। गुरु गोविंद सिंह जी के चारों साहिबजादों में से दो बड़े बेटों ने चमकौर के युद्ध में वीरता पूर्वक अपने प्राणों का बलिदान कर दिया था, जबकि दोनों छोटे साहिबजादों को मुग़ल सूबेदार वज़ीर खान ने इस्लाम न कबूल करने की वजह से जिंदा ही दीवार में चुनवा दिया था। इस बालपन में भी देश, धर्म, सत्य और अपने गुरु की शिक्षा को अपने प्राणों से भी अधिक महत्व देने वाले इन वीर बालकों के सम्मान में प्रधानमंत्री जी द्वारा इनके शहादत दिवस 26 दिसंबर को 'वीर बाल दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय ऐतिहासिक है।

'चमकौर के युद्ध'  में 10 लाख मुग़ल सैनिकों के सामने सिर्फ 43 सिखों ने गुरु गोविंद सिंह जी के नेतृत्व में अधर्म और असत्य के खिलाफ लड़ते हुए मुगल सेना के हौसले पस्त कर दिए थे, उन 43 सिखों में गुरु गोविंद जी के चार साहिबजादों में से दो बड़े साहिबजादे अजीत सिंह और जुझार सिंह ने भी वीरता पूर्वक लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी थी। चार में दो बड़े साहिबजादे में सबसे बड़े अजित सिंह की उम्र थी मात्र 18 वर्ष और जुझार सिंह की उम्र थी केवल 15 वर्ष ! दो छोटे साहिबजादों में ज़ोरावर सिंह की 9 वर्ष और सबसे छोटे बाबा फ़तह सिंह की केवल 6 वर्ष थी। इतने कम उम्र में दस लाख मुगल सैनिकों के सामने वो दो वीर बालकों ने 'वाहे गुरु जी दा खालसा, वाहे गुरु जी दी फ़तह' का जयघोष कर, रण में अपने युद्ध कौशल और वीरता से मुगल सेना में खलबली मचा दी थी। किंतु इन 'छोटे' साहिबजादों की निडरता, अपने देश एवं धर्म के प्रति अटूट आस्था और अपने पिता की शिक्षा का प्राणों से भी अधिक सम्मान आज उन 'दो छोटों' को हम सबसे कद में बड़ा, बहुत बड़ा बना देता है। जब मुग़ल सूबेदार वज़ीर खान उन दो छोटे बालकों को इस्लाम कबूल करने पर विफल रहा तो उसने उन बालकों से पूछा की अगर उन्हें आज़ाद कर दिया जाए तो वो उसके बाद क्या करेंगे। इस पर भरे मुगल दरबार में उन दो बालकों ने मुगल सेनापति की आंख में आंख डालकर कहा था कि रिहा होकर हम सेना इकट्ठी करेंगे और तुम पर आक्रमण कर तुम्हें जान से मार देंगे। इस वीरता, इस साहस और दृढ़ता की कल्पना भी करना कितना कठिन कार्य है। शायद इसी वीरता को नमन करते हुए गुरु गोविंद सिंह जी ने लिखा होगा- 'चिडि़यों से मै बाज तड़ाऊं, सवा लाख से एक लड़ाऊं, तभी गोबिंद सिंह नाम कहाऊं।'

इन वीर बालकों की शहादत दिवस को 'वीर बाल दिवस' घोषित कर उनका वास्तविक सम्मान देने में हमें आज़ादी के बाद 75 वर्ष और चौदह प्रधानमंत्रियों का लम्बा इंतज़ार करना पड़ा। ऐसा नहीं था की नरेंद्र मोदी के पहले के प्रधानमंत्रियों के पास पूर्ण बहुमत नहीं था या इन वीर बालकों को यथोचित सम्मान देने से किसी अनिष्ट की संभावना बन जाती, लेकिन क्या वजह थी की गुरु गोविंद सिंह जी के वंशज और एक सिख प्रधानमंत्री होने के बावजूद सरदार मनमोहन सिंह समेत किसी भी प्रधानमंत्री ने इन वीर बालकों की गाथा को उनका उचित सम्मान देने का विचार या प्रयास नहीं किया। शायद इसके पीछे कारण रहा होगा। 14 नवम्बर को हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिन पर मनाया जाने वाला बाल दिवस। वैसे तो अन्य दिवस जैसे राष्ट्रीय खेल दिवस मेजर ध्यानचंद की जयंती पर जो विश्व के श्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी थे या किसान दिवस चौधरी चरण सिंह जी की जयंती पर जो एक किसान भी थे, के उपलक्ष्य पर मनाया जाता है किंतु ये अकेला बाल दिवस ही ऐसा दिवस है जो नेहरू जी की जयंती पर मनाया तो जाता है, लेकिन इसके पीछे कोई आधार नहीं है, क्योंकि नेहरू जी 'महान' तो निश्चित हो सकते हैं किंतु 'बाल' तो कदापि नहीं। क्या लगभग डेढ़ दशक देश के प्रधानमंत्री रहने वाले व्यक्ति के जीवन में उनके अनुयायियों द्वारा और कोई उपलब्धि नहीं ढूंढी जा सकी, जो उनकी जयंती पर उन्हें सम्मान देने के लिए बाल दिवस घोषित करना पड़ा।

26 दिसंबर को 'वीर बाल दिवस' घोषित करने के फैसले में महत्व है 'वीर' विशेषण का ! क्या इसे सिर्फ़ 'बाल दिवस' घोषित कर देना अधिक बेहतर नहीं हो सकता था?  वैसे ये विचार प्रधानमंत्री मोदी के मस्तिष्क में क्षण भर ही सही मगर आया अवश्य होगा, किंतु वो इस बात से भी वाकिफ थे कि अगर वो ऐसा तार्किक निर्णय ले भी लेते तो विपक्ष ख़ासकर कांग्रेस इसमें नेहरू जी के अपमान से लेकर पता नहीं क्या-क्या ढूंढ लेता। शायद इतिहास को इस तरीके से कुरेद जाता की देशभक्तों की आंखों से आंसू निकल पड़ते या इन वीर बलिदानियों पर भी अगर लांछन लगने लगता तो कोई बड़ी बात नहीं होती। संभवत इसलिए प्रधानमंत्री ने बीच का रास्ता निकालते हुए भारतीय इतिहास से अब तक जानबूझ कर यथोचित स्थान से वंचित रखे गए। इन वीर बालकों के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धांजलि भी अर्पित कर दी और पूरे देश के समक्ष ये निर्णय छोड़ दिया की इस 'वीर बाल दिवस' में और 'बाल दिवस' में से 'वास्तविक बाल दिवस' का चुनाव जनता स्वयं कर ले।

विषय यह नहीं है की पंडित नेहरू की जयंती को बाल दिवस मनाया जाना चाहिए की नहीं, किंतु विषय है की क्यों मनाया जाना चाहिए ? नेहरू जी देश के प्रथम प्रधानमंत्री थे। उनकी जयंती मनाने के लिए उनकी उपलब्धियों वाले क्षेत्रों से कोई भी संबंधित क्षेत्र से एक दिवस घोषित किया जा सकता है, किंतु बाल दिवस ऐसा होना चाहिए जिससे इस देश के सभी बालक-बालिकाओं प्रेरणा ले सकें और उससे भी अधिक महत्वपूर्ण उस विषय से जुड़ाव महसूस कर सकें। अगर मेजर ध्यानचंद के जन्मदिवस को विज्ञान दिवस घोषित कर दिया जाता तो क्या उपयुक्त होता ? और क्या इसे ग़लत कहने से इसे मेजर ध्यानचंद जी का अपमान समझा जाता ? वैसे ही 14 नवंबर को बाल दिवस के रूप में मनाना कितना तार्किक है इसपर प्रश्न करने से नेहरू जी का अपमान नहीं हो जाता। अगर ये सवाल नेहरू जी के जीवित रहते उठता तो वो भी शायद इस बात से इत्तेफाक रखते की बाल दिवस मनाने की सार्थकता किसी वीर बालक या वीर बालिका की स्मृति में अधिक है। अतिश्योक्ति नहीं होती, किंतु ये भी सम्भव था की बाल दिवस मनाने का निर्णय अगर नेहरू जी पर छोड़ा जाता तो वो भी शायद 26 दिसंबर का चयन कर इन वीर शहीदों को अपनी श्रद्धांजलि देना पसंद करते। गुरु गोविंद सिंह जी ने जिस खालसा पंथ की स्थापना की थी उसने उन चार 'ख़ालिस' वीर ध्वजवाहकों से प्रेरणा लेने के लिए, उन्हें स्मरण करने के लिए वर्ष का हर दिन एक 'बाल दिवस' है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आजादी के दशकों बाद भी भारतीय इतिहास की इस वीर गाथा को जन-जन तक पहुंचाया और इसे 'वीर बाल दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय लिया, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणादायक साबित होगी। 

आशुतोष दुबे एवं उज्जवल दीपक 

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