कमल किशोर गोयनका
बीसवीं शताब्दी में जिन राष्ट्र-पुरुषों, मनीषियों एवं चिंतकों ने भारत के समग्र विकास एवं उसे शक्तिपुंज बनाने के लिए जो विचार-दर्शन दिया, उनमें महात्मा गांधी के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य श्रीगुरुजी का नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा है। श्रीगुरुजी के पास हिंदू राष्ट्र, संस्कृति एवं परंपरा की संकल्पना थी तथा हिंदू समाज की एकात्मता एवं संगठन तथा उसके समग्र विकास के लिए पूर्णत: तर्कसंगत विचार-दर्शन था। इस विचार-दर्शन के अनुसार भारत हिंदू राष्ट्र था, और है। उनके राष्ट्र-दर्शन का आधार राष्ट्रीयता थी। इसके लिए वे वाणी और कर्म में एकता चाहते थे, जिससे कार्य को सजीव रूप देकर जीवन की पद्धति को उचित दिशा में मोड़ा जा सके।
श्रीगुरुजी ने कोझीकोड के प्रांतीय शिविर में फरवरी,1966 में कहा था, ‘‘हमारे कार्य में कोरी बातों का कोई स्थान नहीं। भाषणों में हमारी रुचि नहीं, लगातार बोलने रहने में हमारा विश्वास नहीं, शब्दों का जाल खड़ा करना हमें भाता नहीं, फिर भी बोलना तो पड़ता ही है पर हम निश्चयपूर्वक बोलते हैं और जो बोलते हैं, उसे अपने कार्य द्वारा सजीव रूप देते हैं। अपने कार्य द्वारा जीवन की पद्धति में मोड़ लाते हैं।’’
इस प्रकार श्रीगुरुजी का पूरा बल अपने कार्य एवं कार्यपद्धति पर है, जिसके द्वारा वे व्यक्ति, समाज तथा पूरे राष्ट्र को संस्कारित एवं प्रभावित करते हैं। राष्ट्र-जीवन का संपूर्ण क्षितिज उनके दृष्टि-पथ एवं विचार-पथ में है तथा स्थितियों एवं प्रसंग तो तत्काल उनका ध्यान आकर्षित करते हैं जो देश की हिंदू चेतना तथा राष्ट्रीयता के लिए उपयोगी है तथा जो उसे आहत करने पर तुले हुए हैं। श्रीगुरुजी के सम्मुख भाषा और साहित्य की स्थिति ऐसी ही है। देश में जब भी भाषा-समस्या उत्पन्न हुई तथा भाषा-आंदोलन हुए और भाषावार प्रांतों की स्थापना का प्रश्न उपस्थित हुआ तथा कुछ साहित्यिक कृतियों से उनका सामना हुआ तो यही तथ्य उभरा कि निर्णय एवं मूल्यांकन की कसौटी के लिए राष्ट्र की एकता और अखंडता सर्वोपरि है एवं देश की संस्कृति तथा परंपरा पर कोई भी आघात असहनीय है।
श्रीगुरुजी ने माना कि वे न तो भाषाविद् हैं और न साहित्यकार, लेकिन इसके बावजूद वे साहित्य के अध्येता तथा सहृदय पाठक थे तथा देश की भाषा-समस्या को उन्होंने गहराई से समझा था। जहां तक साहित्य का संबंध है, उनका अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी, मराठी आदि भाषाओं के साहित्य से गहरा परिचय था। श्रीगुरुजी ने अपने वक्तव्यों में शेक्सपियर के ‘मैकबैथ’, ‘जूलियस सीजर’ तथा अमेरिकी उपन्यास ‘अंकल टाम्स केबिन’ की चर्चा की है। संस्कृत में वेद, उपनिषदों के साथ कालिदास के ‘रघुवंश’ आदि कृतियों, संत कवियों में तुलसीदास, कबीरदास, मीरा, रामानंद, चैतन्य महाप्रभु आदि तथा मराठी कवि समर्थ रामदास आदि का वे कई बार उल्लेख करते हैं तो बांग्ला साहित्यकारों में रवींद्रनाथ ठाकुर, बंकिमचंद्र तथा सुप्रसिद्ध नाटककार गिरिशचंद्र घोष आदि की साहित्यिक प्रवृत्तियों की चर्चा करते हैं।
हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिका ‘सरस्वती’ को वे नियमित पढ़ते थे और निराला की प्रसिद्ध कविता ‘वीणावादिनी वर दे’ का भी उल्लेख करते हैं। उन्होंने संस्कृत, अंग्रेजी, हिंदी तथा मराठी की कुछ पुस्तकों की समीक्षा तथा प्रस्तावना भी लिखी थी। श्याम नारायण पांडेय की काव्यकृति ‘छत्रपति शिवाजी’ की भूमिका उन्होंने ही लिखी थी और बड़ी प्रशंसा की थी। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पुस्तक ‘पॉलिटिकल डायरी’ का विमोचन उनके हाथों ही हुआ था। बंकिमचंद्र के प्रसिद्ध गीत ‘वंदे मातरम्’ की प्रशंसा में उन्होंने कहा कि इसमें राष्ट्र-जीवन की सभी भावनाएं प्रकट हुई हैं। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की कुछ स्थापनाओं से असहमत होते हुए उन्होंने ऐसे विद्वानों की राजभक्ति पर गहरी टिप्पणी की। उनका निष्कर्ष था कि पुस्तक में इतिहास में घटित हुई घटनाओं के साथ अघटित का भी वर्णन किया गया है तथा आर्य-द्रविड़ संघर्ष की कल्पना भी सत्य नहीं है। इसे वे ‘विचित्र इतिहास’ कहते हैं तथा लिखते हैं कि वर्तमान नेताओं को ऐसा ही कुछ चाहिए, इसलिए ऐसे विद्वानों को मान-सम्मान भी खूब मिलता है। मान-सम्मान के लोभ में अच्छे-अच्छे लोग काम करने को प्रवृत्त होते हैं।
श्रीगुरुजी के साहित्य-चिंतन के ये कुछ बिंदु हैं। यद्यपि इस साहित्यिक-दृष्टि में बहुत विस्तार नहीं है, किंतु जो भी अंश है, वे संस्कृत साहित्य की श्रेष्ठता एवं महत्ता की स्थापना के साथ यदा-कदा हिंदी साहित्य का राष्ट्रीयता और भारतीयता की दृष्टि से मूल्यांकन करते हैं। उन्हें साहित्य की अपेक्षा भाषा का प्रश्न अधिक आकर्षित करता है, क्योंकि देश की भाषा-समस्या एवं भाषा-आंदोलन एकता और अखंडता के लिए चुनौती बनते जा रहे थे। वे देश की अखंडता के लिए किसी भी आने वाले संकट पर तुरंत अपना पक्ष रखते हैं और उसके लिए प्रबल तर्क देते हैं। यह सर्वविदित है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने, अंग्रेजी को बनाए रखने तथा भाषावार प्रांतों की रचना आदि को लेकर देश के विभिन्न भागों में तीव्र आंदोलन हुआ जिस पर श्रीगुरुजी ने गहराई से विचार किया और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भाषा-दर्शन प्रस्तुत किया। इस भाषा-दर्शन में संस्कृत भाषा पर उनके विचार राष्ट्रीय महत्व के हैं।
वे मानते हैं कि संस्कृत देववाणी है, उसमें भारतीय जीवन के आधारभूत ज्ञान का मूल रूप विद्यमान है, वह भारत की आंतरिक एकता की अभिव्यक्ति करती है, वह सर्वप्राकृत भाषाओं की जननी एवं पोषण करती है तथा उसका अध्ययन महान राष्ट्रीय आवश्यकता की पूर्ति करने वाला है। श्रीगुरुजी के अनुसार संस्कृत सर्वोत्तम भाषा है, राष्ट्रीय एकता के लिए उसकी शिक्षा अनिवार्य है। प्राचीन समय में संस्कृत भाषा ही सार्वदेशिक व राजकीय व्यवहार की भाषा थी, परंतु संस्कृत से प्राकृत तथा अन्य भाषाओं का जन्म हुआ तो संस्कृत की कन्या हिंदी ने उसका स्थान ग्रहण किया। रोहतक के ‘हरियाणा प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन’ में 2 मार्च,1950 को दिए अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा था, ‘‘इस देश की सभी भाषाएं हमारी हैं, हमारे राष्ट्र की हैं। पूर्व काल में जब हमारा देश स्वतंत्र था, तब यहां का सब व्यवहार संस्कृत में ही होता था। धीरे-धीरे संस्कृत की जगह प्राकृत ने ली तब उसी संस्कृत भाषा से प्रांतीय भाषाओं के रूप में अनेक भाषाओं का उद्भव हुआ। सभी प्रांतीय भाषाएं संस्कृत की कन्या होने के कारण सभी में परस्पर समानता है। सभी समान प्रेम और आदर की पात्र हैं। उनमें छोटे-बड़े का सवाल ही पैदा नहीं होता।’’
उनका यह विचारांश महत्वपूर्ण है। इसमें उन्होंने संस्कृत, हिंदी तथा प्रांतीय भाषाओं के उद्भव एवं विकास तथा उनकी महत्ता को रेखांकित किया है। उन्होंने अपने कई व्याख्यानों में हिंदी भाषा के अनेक गुणों का उल्लेख किया है। वे मानते हैं कि संस्कृत से जन्मी हिंदी संस्कृत के बाद सार्वदेशिक भाषा है तथा उसे प्रखर स्वाभिमान की भावना को जागृत करने वाली जगत की सर्वश्रेष्ठ भाषा बनाना है। हिंदी ही इस देश की राजभाषा या राज्य-व्यवहार की भाषा बन सकती है, क्योंकि वह देश में अधिकतर समझी जाती है और दक्षिण में भी थोड़ी मात्रा में समझी जाती है।
अत: हिंदी भाषा को हम सबको मिलकर व्यवहार भाषा के रूप में समृद्ध करना चाहिए। श्रीगुरुजी मराठी भाषी थे, लेकिन उन्हें हिंदी भी अपनी मातृभाषा ही प्रतीत होती थी। उन्होंने दिल्ली में फरवरी, 1965 में कहा था, ‘‘हिंदी को स्वीकार करने में कौन-सी कठिनाई है। मैं तो मराठी भाषी हूं, पर मुझे हिंदी पराई भाषा नहीं लगती। हिंदी मेरे अंत:करण में उसी धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीयता का स्पंदन उत्पन्न करती है जिसका प्रसार मेरी मातृभाषा मराठी द्वारा होता है।’’ श्रीगुरुजी इस प्रकार मराठी और हिंदी को समान प्रेम और आदर देते हैं, परंतु हिंदी को एकमात्र राष्ट्रीय भाषा मानने को तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं, ‘‘मैं मानता हूं कि अपनी सभी भाषाएं राष्ट्रीय हैं। ये हमारी राष्ट्रीय धरोहर हैं।
हिंदी भी उन्हीं में से एक है, परंतु उसके बोलने वालों की संख्या अधिक होने से उसे राजभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है। यह दृष्टिकोण कि हिंदी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा है और अन्य भाषाएं प्रांतीय हैं, वास्तविकता के विपरीत और गलत है।’’ अत: सभी भाषाएं जो हमारी संस्कृति के विचारों का वहन करती हैं, शत-प्रतिशत राष्ट्रीय हैं। इस प्रकार श्रीगुरुजी हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को राष्ट्रीय भाषाएं मानकर छोटी-बड़ी भाषा के अहंकार को समाप्त करके श्रेष्ठता के उन्माद एवं हीनता-ग्रंथि को भी नष्ट करते हैं। इसलिए वे हिंदी को अन्य देशी भाषाओं की तुलना में श्रेष्ठ नहीं मानते। वे कहते हैं कि तमिल तो 2,500 वर्ष से एक सुसंस्कृत भाषा के रूप में प्रचलित थी। अत: हिंदी अन्य प्रादेशिक भाषाओं की तुलना में न तो पुरानी है और न ही श्रेष्ठ है, परंतु राष्ट्रीय एकता, संस्कृति की संवाहिका, स्वत्व-बोधक, आत्मसम्मान की रक्षक तथा सार्वदेशिक होने के कारण वे हिंदी के वैशिट्य को स्वीकार करते हैं और उसे ही राजभाषा तथा प्रांतों से संपर्क एवं व्यवहार की भाषा के रूप में स्वीकार करते हैं।
वे हिंदी तथा अन्य देशी भाषाओं को उनका उचित एवं संवैधानिक अधिकार देने के प्रबल समर्थक थे। इस कार्य में जो सबसे बड़ी बाधा है विदेशी भाषा अंग्रेजी का वर्चस्व तथा अंग्रेजी-भक्त भारतीयों की पराधीन मानसिकता। स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी के वर्चस्व तथा एकाधिकार को देखकर श्रीगुरुजी व्यथित होकर कहते थे कि समस्त भारत का एकात्मता के अनुभव तथा पारस्परिक व्यवहार हेतु विदेशी भाषा पर निर्भर रहना लज्जास्पद है, राष्ट्राभिमान का अपमान है। यह स्थिति की दयनीयता है कि अंग्रेजी प्रमुख भाषा बन बैठी है और हमारी सब भाषाएं गौण बनी हैं। इसे बदलना होगा। यदि हम समझते हैं कि हम स्वतंत्र राष्ट्र हैं तो हमें अंग्रेजी के स्थान पर स्वभाषा लानी होगी। वे अंग्रेजी को स्वीकार कर लेने के दुष्परिणामों का विवेचन करते हुए कहते हैं, यदि हमने अंग्रेजी स्वीकार की तो अंग्रेजी बोलने वाले विदेशियों की जीवन-पद्धति हमारे ऊपर न चाहते हुए भी बलात थोपी जाएगी।
हजारों वर्षोें से हमारी संस्कृति अनेक झंझावातों को झेलते हुए अखंड रूप से चली आ रही है। उसका एकमेव कारण यही है कि हमने अपने स्वत्व को अभिव्यक्त करने वाली भाषाओं को कभी छोड़ा नहीं। हमने इस ज्ञान का कभी भी विस्मरण नहीं होने दिया कि संपूर्ण देश में एक ही धर्म और संस्कृति की परंपरा चल रही है। इसी कारण परकीय आक्रमणकारी हमारे राष्ट्र को नष्ट नहीं कर पाए, किंतु यदि आज हमने अपने भारत की किसी भाषा को अपनाने के स्थान पर किसी विदेशी भाषा को ही शासन एवं जीवन का विकास संपूर्ण करने का अधिकार प्रदान किया तो उस भाषा के पीछे छिपे परकीय विचार हमारे जीवन पर छा जाएंगे। इस प्रकार हम अपने संपूर्ण राष्ट्र का विनाश कर डालेंगे। श्रीगुरुजी की आशंका सत्य ही थी। अंग्रेजी के नाम पर देश की युवा पीढ़ी भारतीय संस्कृति तथा जीवन-पद्धति से कटती जा रही है। आज देश के लाखों छात्र प्राथमिक कक्षा से ही अंग्रेजी पढ़ते हैं और अंग्रेजी रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान आदि को अपनाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है और इस तरह वे देश की सांस्कृतिक गरिमा से दूर होते जा रहे हैं।
श्रीगुरुजी के अनुसार भारत में अंग्रेजी भाषा और संस्कृति को थोपने का अंग्रेजों का यह प्रयास सोचा-समझा प्रयास था जो हमें अपने सांस्कृतिक जीवन से तोड़ने के लिए किया गया था। श्रीगुरुजी पराधीन और स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी की स्थिति का मूल्यांकन करते थे और पाते थे कि अंग्रेजी शासन और आज के प्रशासन में कोई अंतर नहीं है। केवल सत्ताधारी लोग बदल गए हैं, अन्यथा अंग्रेजी वैसी ही प्रचलित है। कथाकार प्रेमचंद ने ‘आहुति’ कहानी में कहा है कि हमें ऐसा स्वराज नहीं चाहिए जिसमें जॉन की जगह गोविंद को बैठा दिया जाए। श्रीगुरुजी प्रेमचंद की इस आशंका को सत्य रूप में पाते हैं, इसलिए वे कहते थे कि अंग्रेजी के रहते कैसे लोगों में राष्ट्रभक्ति की भावना उत्पन्न हो सकती है? वे स्पष्ट कहते थे कि सबसे पहले अंग्रेजी को जाना चाहिए। जो भी देश अंग्रेजों की दासता से मुक्त हुए, सभी ने अपनी देश की भाषाओं को ग्रहण किया।
स्वतंत्र भारत में वैसे भी अंग्रेजों के जाने के बाद उसके प्रेरक कारण भी चले गए थे। उन्होंने दिल्ली में फरवरी,1965 में कहा था, ‘‘अंग्रेजों के साथ ही अंग्रेजी को भी चले जाना चाहिए था। आवश्यकतानुसार अंतरराष्ट्रीय कार्य करने वालों का अंग्रेजी सीखना समझ में आ सकता है, लेकिन देश के प्रत्येक बालक-बालिका के ऊपर उसका बोझ डालना कहां तक उचित है? जिसे अपने राष्ट्र का स्वाभिमान है, वह किसी भी परिस्थिति में पराई भाषा का अभिमान लेकर नहीं चल सकता।’’ अत: अंग्रेजी को जाना होगा, क्योंकि वह हमारी जीवनी-शक्ति को क्षीण करती है तथा हमारी भाषाओं की शत्रु है। यदि कुछ उपद्रवी लोग अंग्रेजी भाषा को लादने के लिए आंदोलन करते हैं तथा सरकार उनके दबाव में संविधान में संशोधन करती है तो श्रीगुरुजी ऐसे व्यक्तियों को सावधान करते थे कि ऐसा करने पर शेष देश के लोग अंग्रेजी लादने को स्वीकार नहीं करेंगे और भारतीय राष्ट्रीयता एवं संविधान की रक्षा के लिए आंदोलन करेंगे।
श्रीगुरुजी हिंदी-अंग्रेजी के संबंधों के साथ हिंदी-उर्दू के संबंध में कुछ मूलभूत प्रश्नों का उत्तर देते हैं। वे कहते थे कि हिंदी को संपर्क भाषा मानने के बाद उसे सरल बनाने के नाम पर उसका उर्दूकरण करना सांप्रदायिकता एवं सांप्रदायिक तुष्टीकरण के समान है। हिंदी का उर्दूकरण करने वाले तथा राजभाषा हिंदी की अंग्रेजी से बराबरी करने वाले लोग हमारी उत्कृष्ट राष्ट्रीय प्रकृति की जड़ें खोदना चाहते हैं। अत: राष्ट्रीय एकात्मता के लिए इन दोषपूर्ण भाषा नीतियों को अविलंब त्याग देना चाहिए। वे मानते थे कि उर्दू ने ही देश का विभाजन किया। अत: जो लोग उत्तर प्रदेश तथा कुछ अन्य राज्यों में उर्दू को हिंदी के बराबर का स्थान देने की मांग कर रहे हैं, वे वास्तव में एक प्रकार से दूसरे विभाजन की नींव डाल रहे हैं। श्रीगुरुजी सिद्ध करते हैं कि उर्दू कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है। वह इस धारणा का भी खंडन करते हैं कि उर्दू इस्लाम की भाषा है।
श्रीगुरुजी कहते हैं, ‘‘यह भी नहीं माना जा सकता कि वह इस्लाम की भाषा है। ‘कुरान शरीफ’ अरबी भाषा में है तथा इस्लाम के अनुयायी जहां-जहां बसते हैं, उर्दू वहां-वहां की भाषा नहीं है। उर्दू वास्तव में मुसलमानों की मजहबी भाषा नहीं है। यह मुगलों के समय में एक संकर भाषा के रूप में उत्पन्न हुई। इस्लाम के साथ उसका रत्ती-भर संबंध नहीं है। मुसलमानों की अगर कोई मजहबी-भाषा हो तो वह अरबी ही होगी।’’ अत: वे स्पष्ट करते हैं कि उर्दू भाषा को राज- मान्यता का प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वह अलगाव और फूट की भाषा है तथा उसके द्वारा मुसलमानों का एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरना देशहित के विरुद्ध है। इस पर भी श्रीगुरुजी उर्दू के स्वाभाविक एवं रूढ़िगत शब्दों के प्रयोग के विरुद्ध नहीं हैं। उनका विरोध सुनियोजित ढंग से हिंदी में अरबी-फारसी शब्दों को लादने से है। हिंदी का सरलीकरण करने के नाम पर उसका उर्दूकरण उसे भ्रष्ट और अबोधगम्य ही बनाएगा।
श्रीगुरुजी ने हिंदी भाषा के स्वरूप, हिंदी साम्राज्यवाद की मिथ्या कल्पना तथा भाषावार प्रांतों की रचना पर भी गंभीरतापूर्वक विचार किया और संघ का मंतव्य प्रस्तुत किया। वे हिंदी, अरबी, फारसीकरण के विरुद्ध थे, परंतु हिंदी को संस्कृतनिष्ठ और संस्कृतिजन्य रूप में चाहते थे, क्योंकि संस्कृतनिष्ठ होने पर वह सभी के लिए सहज-सरल होगी, किंतु अरबी-फारसी मिश्रित भाषा विंध्याचल के नीचे कोई नहीं समझेगा। गांधी और प्रेमचंद ने उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को ध्यान में रखकर उर्दू को राष्ट्रीय भाषा माना, लेकिन उन्होंने इस पर विचार नहीं किया कि दक्षिण भारत के तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम भाषी लोग तो संस्कृतनिष्ठ हिंदी के साथ ही जुड़ सकते हैं। इसे श्रीगुरुजी समझते थे, इस कारण वे संस्कृतनिष्ठ हिंदी चाहते थे, क्योंकि ऐसी हिंदी देश की सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है तथा इससे ही अपनी संस्कृति को जीवित रखा जा सकता है।
श्रीगुरुजी ने दक्षिण भारत तथा पंजाब के हिंदी विरोधी आंदोलनों को देखा-समझा था तथा उनके नेताओं से भी उनकी बातचीत हुई थी। दक्षिण भारत के हिंदी विरोधी आंदोलन में हिंदी साम्राज्यवाद का आरोप लगाया गया था जिसका श्रीगुरुजी ने कई बार खंडन किया। उन्होंने कहा कि यह स्वार्थी राजनीतिकों की मिथ्या कल्पना है कि हिंदी साम्राज्यवाद या उत्तर का शासन होने जा रहा है। श्रीगुरुजी ने ‘भाषागत कटुता’ तथा ‘काल्पनिक भय’ की संज्ञा देते हुए अपने व्याख्यान में कहा कि यह कटुता एक प्रकार से भाषा के साम्राज्यवाद के काल्पनिक भय की उपज है। मेरे विचार में अंग्रेजी शासन-काल में भी बांग्ला, मराठी एवं गुजराती में असाधारण प्रकृति की तथा उच्च स्तर की रचनाओं का निर्माण करने में भाषाएं सफल सिद्ध हुइं, जिनकी विश्व के महान साहित्यकारों ने भी भूरी-भूरी प्रशंसा की है।
अब हमें इस प्रकार का भय मानने की भी आवश्यकता नहीं कि प्रांतीय भाषा के अधिकारों पर किसी प्रकार का अतिक्रमण होने जा रहा है। इस बात को कोई भी नहीं चाहेगा कि ये सारी भाषाएं, जिन्होंने सदियों तक हमारे विचारों को इतने सुयोग ढंग से अभिव्यक्त किया है, नष्ट हों और उन में से कोई एक देशी भाषा जीवित रहे। फिर भी राष्ट्रभाषा के रूप में केवल उस एक भाषा को उपयोग में लाया जाए जो कि सर्वसाधारण जन के लिए विचारों के आदान-प्रदान की दृष्टि से सुगम हो जिसे ‘हिंदी’ कहते हैं। इन विचारों में इतनी स्पष्टता और ईमानदारी है कि हिंदी पर लगाए गए सभी आरोप मिथ्या सिद्ध हो जाते हैं। श्रीगुरुजी इस भाषागत कटुता एवं उलझन का कारण भी स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि देश की अन्यान्य भाषाओं को हिंदी के समान राष्ट्रीय भाषा न मानने के कारण ऐसा हुआ है।
अत: वे मानते हैं कि वस्तुत: हमारी सभी भाषाएं, चाहे वह तमिल हो या बांग्ला, मराठी हो या पंजाबी, हमारी राष्ट्रभाषाएं हैं। सभी भाषाएं और उपभाषाएं खिले हुए पुष्पों के समान हैं, जिनसे हमारी राष्ट्रीय संस्कृति की वही सुरभि प्रवाहित होती है। वे एक अन्य स्थान पर भारत की विविध भाषाओं की तुलना इंद्रधनुष के देदीप्यमान विविध रंगों से करते हैं तथा उनकी आंतरिक एकता को इंद्रधनुष के परिधानों को जन्म देने वाली सूर्य की किरण के समान बताते हैं। अत: सभी भारतीय भाषाएं समान श्रद्धा की पात्र हैं। हिंदी भाषा की प्रगति होगी तो ये प्रांतीय भाषाएं भी फलेंगी-फूलेंगी और साथ ही साथ हिंदी को भी समृद्ध करेंगी।
स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस सरकार ने भाषावार प्रांतों का गठन किया। गांधी भी इसी पक्ष में थे। श्रीगुरुजी का मत था कि भारत हिंदू राष्ट्र है और उसकी अखंडता के लिए जाति, पंथ, भाषा तथा प्रांत-भेद अमान्य है। भाषा एवं प्रांत-रचना के प्रश्न पर देश में उग्र प्रदर्शन हुए जिनमें साम्यवादियों का बड़ा हाथ था। दक्षिण के प्रसिद्ध नेता सी. राजगोपालाचारी तो भाषा के आधार पर देश को उत्तर एवं दक्षिण दो भागों में विभाजित तक करने की घोषणा करने लगे। श्रीगुरुजी इस देशभक्ति और मातृभक्ति के निरादर से बहुत व्यथित थे।
देश के दुबारा विभाजन के इस प्रस्ताव में देशद्रोहिता तथा स्वार्थपरता विद्यमान थी। इसी कारण ऐसे नेता देश को खंडित करने वाले भाषा-आंदोलनों को प्रोत्साहित करते रहे। वे पंजाब के भाषा-आंदोलन एवं पंजाबी सूबे की मांग को इसी कारण समर्थन नहीं दे सके, क्योंकि किसी भाषा को संप्रदाय के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। अत: पंजाबी भाषा और सिखों का समीकरण अवास्तविक तथा अनावश्यक है। इसलिए पंजाबी सूबे की मांग घातक मनोवृत्ति की अभिव्यक्ति है, जिसका समर्थन नहीं किया जा सकता। यह राष्ट्र की अखंडता के लिए घातक है, उसका आधार राजनीति और पृथकतावाद है एवं सिख संप्रदाय के सच्चे पांथिक स्वरूप को नष्ट करने वाला है।
श्रीगुरुजी मानते हैं कि पंजाबी हमारी अपनी भाषा है। उसका अभिमान होना चाहिए, न कि उपहास, किंतु यह सिर्फ केशधारियों अथवा नानकपंथियों की भाषा नहीं है तथा ‘गुरु ग्रंथ साहब’ की भाषा भी केवल पंजाबी नहीं है। उसमें अनेक भाषाएं मिलती हैं। उन्होंने 15 फरवरी, 1950 को कानपुर में कहा था,‘‘मैं भाषानुसार प्रांतों की रचना के विरुद्ध नहीं हूं, किंतु मद्रास के विरुद्ध आंध्र, असम के विरुद्ध बंगाल हो, इस बात के विरुद्ध अवश्य ही हूं।
सुविधा के लिए भाषा के आधार पर प्रांत बनाना पृथक बात है और उसके लिए जिद करते हुए दूसरे का रक्त बहाने को तैयार हो जाना दूसरी बात है।’’ अपने भाषा-चिंतन में श्रीगुरुजी ने लिपि के प्रश्न पर भी अपना मत प्रस्तुत किया। लिपि के संबंध में वे कोई विवाद उत्पन्न करने के पक्ष में न थे, पर यह मानते थे कि नागरी लिपि एक पूर्ण लिपि है और हिंदी के लिए यही राष्ट्र-लिपि होनी चाहिए। वे तो इस पक्ष में भी थे कि देश की सभी प्रांतीय भाषाएं नागरी लिपि का समान रूप से उपयोग करें, लेकिन इसका निर्णय इन भाषाओं को बोलने वाली जनता ही करे।
यदि श्रीगुरु जी के इन विचारों को आज के भारत के संदर्भ में देखें तो उनका केवल ऐतिहासिक महत्व ही नहीं है, बल्कि इसका संकल्प लें कि हम अपने ‘राष्ट्र रूप भगवान’ की एकता तथा अखंडता एवं भाषा-संस्कृति की रक्षा के लिए सदैव समर्पित रहेंगे।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)
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