—जे. नंदकुमार
डॉ. आंबेडकर को हम सामाजिक न्याय के पुरोधा, संविधान निर्माता और महान राष्ट्रनायक के रूप में जानते हैं, परन्तु पत्रकार के रूप में उन्होंने जो प्रकाश स्तम्भ स्थापित किया है, वह प्राय: चर्चाओं से परे ही रहा। वंचित वर्गों के उद्धार के उनके अंतहीन संघर्ष के एक अंग के रूप में तथा इसके लिए मत निर्माण का एक सशक्त माध्यम मानकर आंबेडकर ने पत्रकारिता क्षेत्र में प्रवेश किया। डॉ. आंबेडकर निष्पक्ष पत्रकारिता के कंटीले रास्ते पर 36 वर्षों तक चलते रहे। समाचार पत्र उनके लिए समाज और राष्ट्र की सेवा का पवित्र साधन था। बाबासाहेब के जीवनी लेखक धनंजय कीर ने समाचार पत्र निकालने के उनके उद्देश्य को व्यक्त करते हुए लिखा है कि उन्होंने वकालत का पेशा अपनाया क्योंकि उन्हें लगता था कि यदि जनकल्याण के लिए समाचार पत्र चलाना है, तो उसके पीछे अपने जीवन यापन के लिए स्वतंत्र आजीविका साधन का आधार आवश्यक है। बिना आर्थिक लाभ के समाचार पत्र संचालन का उनका यह दृढ़ संकल्प और दृष्टि हर काल में उदाहरणीय और सार्थक है।
इतिहास में अपना स्थान बनाने वाले हर उल्लेखनीय व्यक्ति ने अपने कार्य के लिए किसी विशिष्ट क्षेत्र का चुनाव किया है। डॉ. आंबेडकर जी का व्यक्तित्व भी वास्तविक अर्थ में बहुआयामी था। वे अतुल्य बौद्धिक प्रतिभा के धनी थे, जिन्होंने मानव जीवन के हर क्षेत्र में योगदान दिया। परंतु उनका हर कार्य वंचितों के सामाजिक-राजनीतिक उत्थान एवं सामाजिक समता की स्थापना के लिए समर्पित था। संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने महत्वपूर्ण राष्ट्रीय भूमिका निभाई। संविधान सभा में भाग लेने के अपने उद्देश्य को बड़ी स्पष्टता से व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, ‘मेरे संविधान निर्मात्री सभा में आने के पीछे अनुसूचित जातियों की हित रक्षा से बढ़कर कोई और चाह नहीं है। मुझे तनिक भी भान नहीं था कि मुझे किसी और बड़े दायित्व को ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया जाएगा। इसलिए जब सभा ने मुझे ड्राफ्टिंग कमेटी के लिए निर्वाचित किया तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मुझे और भी अधिक आश्चर्य हुआ जब ड्राफ्टिंग कमेटी ने मुझे अध्यक्ष चुन लिया। …देश की सेवा का अवसर प्राप्त होने के कारण मैं संविधान सभा और ड्राफ्टिंग कमेटी के प्रति कृतज्ञ हूं। ’ इस कथन के बाद शेष तो इतिहास है।
समाज में समता लाने की तड़प बचपन से ही उनके मन में समाई हुई थी। वे अस्पृश्यता के कलंक को शिक्षा से धोने का निश्चय कर परिश्रमपूर्वक अध्ययन करते रहे पर मार्ग इतना सहज नहीं था। अपनी तीव्र मेधा के कारण वे बड़ौदा के महाराजा के राजनीतिक सचिव नियुक्त किए गए, परंतु तथाकथित उच्च वर्ग वाले उनके अधीनस्थ एक ‘महार’ से आदेश लेने के लिए तैयार नहीं थे। उन्हें बड़ी पीड़ा हुई। व्यथित हृदय के साथ नवंबर 1917 में वे मुंबई लौट आए। उन्होंने समाज की अंतिम पंक्ति में खड़े बेआवाजों के लिए अपनी आवाज उठाने का निश्चय किया। उन्होंने बहुत थोड़े से साधनों के साथ मीडिया जगत में कदम रखा, और मौन यातनाओं की भावभूमि को अभिव्यक्त करना आरंभ किया। कोल्हापुर के शाहूजी महाराज वंचित वर्ग के उत्थान हेतु किए जा रहे प्रयासों के प्रति गहरी संवेदना रखते थे। उन्होंने सहायता की और 31 जनवरी, 1920 को डॉ. आंबेडकर ने पाक्षिक समाचार पत्र ‘मूकनायक’ प्रारंभ किया। मूकनायक नाम ही समाचार पत्र प्रकाशन के उद्देश्य एवं विचार को व्यक्त करता है। इसी के अनुरूप विषय सामग्री भी रची जाती रही। संपादक के रूप में भीमराव आंबेडकर ने पत्रकारिता के आदर्श एवं लेखों तथा समाचारों की शैली से कभी समझौता नहीं किया। वे नियमित रूप से संपादकीय एवं मुख्य आलेख लिखते रहे। उनका सार्वजनिक जीवन और पत्रकारिता यात्रा एक साथ प्रारंभ हुए। अत: जीवन एक अनवरत भागदौड़ बन गया। वे दिन भर सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों में व्यस्त रहते और समाचार पत्र कार्यालय में देर रात तक कार्य करते। लगभग एक वर्ष तक यह क्रम चला। मन को संतोष नहीं हो रहा था। उन्हें अकस्मात् बाधित हुए अध्ययन को पूरा करना था। अध्ययन के लिए लंदन जाना था। धन के अभाव की बाधा सामने खड़ी थी। सौभाग्य से कुछ लोग इस हीरे की चमक को देख पा रहे थे। उन्होंने जिस महान कार्य को हाथ में लिया था, उससे सहानुभूति रखने वाले एवं उनके समर्थक उनके विदेश गमन एवं अध्ययन के लिए निधि संग्रहित करते रहे। धन संग्रह हो गया और 1920 के अंत तक भीमराव एक बार फिर लंदन की ओर रवाना हो गए। परन्तु उनकी अनुपस्थिति में ‘मूकनायक’ का कार्य ठप्प पड़ गया।
अध्ययन पूरा हुआ। भीमराव आंबेडकर बैरिस्टर आंबेडकर हो गए। उन्हें डॉक्टरेट इन साइंस से नवाजा गया। लंदन में अध्ययन पूरा कर वे मातृभूमि लौटे और पूर्ण हृदय के साथ उपेक्षित-वंचित वर्गों के उद्धार में जुट गए। 1924 में बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना के बाद बाबासाहेब का सुव्यवस्थित सार्वजनिक जीवन प्रारंभ हुआ। भारत के राजनीतिक-सांस्कृतिक इतिहास में यह कालखंड बड़े महत्व का है। इस काल में, गांधी जी कांग्रेस के सर्वमान्य नेता बने, वामपंथी आंदोलन की स्थापना हुई और राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ का प्रारंभ हुआ, और यही वह समय था जब बाबासाहेब का सामाजिक जीवन में पदार्पण हुआ। बहिष्कृत हितकारिणी सभा के ध्वज तले डॉ. आंबेडकर ने सामाजिक सद्भाव के निर्माण के लिए आंदोलन चलाए। इन मांगों में सशक्त एकरस हिन्दू समाज का सपना छुपा था। उन्होंने अनुसूचित जाति के बंधुओं के लिए मंदिर प्रवेश एवं सबके लिए साझा जल स्रोत की मांग उठाई। रूढ़िग्रस्त समाज द्वारा विरोध स्वाभाविक था। आलोचनाओं की बौछार होने लगी और उन्हें लोगों को जागृत करने और अपनी बात सर्वत्र पहुंचाने के लिए एक मुखपत्र प्रारंभ करने की तीव्र आवश्यकता हुई। वैसे भी उन दिनों किसी भी संगठन की असल सोच और सिद्धांत को लोगों तक पहुंचाने एवं मांगों को उठाने के लिए समाचार पत्र एक तरह की अनिवार्यता थी। समाचार पत्र बिना नेतृत्व, मानो पंख बिना पंछी। अत: 3 अप्रैल, 1927 को उन्होंने मराठी पाक्षिक ‘बहिष्कृत भारत’ शुरू किया।
अस्पृश्यों की आवाज उठाने के लिए मुखपत्र की जरूरत को रेखांकित करते हुए उन्होंने जानकारियों और प्रामाणिकता की आवश्यकता पर भी बल दिया। इसके पीछे उनके व्यापक उद्देश्य थे। 1920 के बाद देश में अनेक राजनीतिक-सामाजिक सुधार आंदोलन प्रारंभ हुए। इनमें से अनेक को यदि ठीक से न समझा-समझाया जाता तो वे वंचित वर्ग के लिए ही हानिकर सिद्ध होते। वातावरण में पनप रहे दुष्प्रभावों से वंचित वर्ग की रक्षा करते हुए उन्हें देश में घट रही घटनाओं तथा उनके उचित-अनुचित परिणामों की जानकारी से सुसन्नद्ध रखना आवश्यक था। साथ ही सरकार तथा जनसामान्य को वंचित वर्ग के कष्टों, प्रतिक्रियाओं और दृष्टिकोण से परिचित करवाना भी आवश्यक था। जरूरत थी वंचित वर्ग तक बोलचाल की भाषा में पहुंचने की। इसके लिए उन्होंने समाचार पत्र की आवश्यकता समझी और उसे प्रारंभ किया। पत्रकार के रूप में डॉ. आंबेडकर का यह सफर अगले चार दशकों तक जारी रहा।
जनता के सहयोग से उन्होंने भारत भूषण प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना की। 1930 में उन्होंने ‘जनता’ नामक पत्र निकाला। यह पत्रिका 26 वर्ष तक चलती रही। फिर उन्होंने इसका नाम रखा ‘प्रबुद्ध भारत’, बाबासाहेब के द्वारा रखे गए ये सारे नाम उनकी राष्ट्रीय भावनाओं और उनके आंदोलन के विभिन्न चरणों की ओर इंगित करते हैं। ये नाम मीडिया में सक्रियता के उनके उद्देश्य और जीवनध्येय दोनों को एकदम स्पष्ट कर देते हैं। ‘मूकनायक’ ने समाज के उन लोगों को आवाज दी जिनकी प्राय: कहीं कोई सुनवाई नहीं थी। फिर आया ‘बहिष्कृत भारत’, जो भारत के वंचित वर्ग के साथ दृढ़ता से खड़ा रहा। समाज का प्रत्येक वर्ग जब तक मुख्यधारा से जुड़कर सबके कंधे से कंधा मिलाकर चल नहीं पड़ता, तब तक समरस समाज का स्वप्न साकार होना असंभव है। अत: जागरण के इस चरण में आया ‘जनता’ और जब उन्होंने भारत की एकात्मता को अक्षुण्ण रखते हुए समता के सनातन मूल्यों की प्राणप्रतिष्ठा करने का लक्ष्य लेकर लाखों अनुयायियों के साथ भगवान बुद्ध के चरणों का आश्रय लिया, तब ‘जनता’ का नाम बदलकर ‘प्रबुद्ध भारत’ रखा, जिससे यही पता चलता है कि उपासना पद्धति बदलकर भी उनके मनोचक्षुओं में गौरवमय भारत का स्वप्न ही साकार हो रहा था। संक्षेप में, पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उनके सारे प्रयासों के केंद्र में सदा मातृभूमि ही रही।
वे समर्पित पत्रकार थे। उनकी दिनचर्या बड़ी व्यस्तता भरी रहती थी, लेकिन उनकी राजनीतिक गतिविधियां हों, या वायसराय काउंसिल के सदस्य के नाते जिम्मेदारियां या संविधान निर्मात्री सभा के अध्यक्ष के नाते किये गए महती प्रयास हों, वे अपनी पत्रिका के लिए लिखने का समय अवश्य निकाल लेते थे। यहां तक कि जब वे गोलमेज सम्मेलन के सिलसिले में देश से बाहर थे, या ऐसे ही विदेश गमन के दूसरे अवसरों पर भी वे अपने सम्पादकीय भेजने से नहीं चूकते थे। उनका प्रबल आग्रह रहता था कि प्रत्येक अंक पूरी तरह त्रुटिरहित हो, और लेखनी की गुणवत्ता और पत्रकारिता के सिद्धांतों से कोई समझौता न किया जाए। उनकी लेखनी से उनका द्वेषरहित संघर्ष और उनका सामाजिक न्याय स्थापना का लक्ष्य मुखरित होता रहा। उन्होंने आह्वान किया कि हिन्दू समाज के वंचित वर्ग के लिए समस्त मंदिरों के द्वार खुलें। सबका एक कुआं हो। उन्होंने अपनी चुटीली, निर्भीक और तर्कपूर्ण शैली में एक के बाद एक सम्पादकीय लिखे और सरकार से एस. के़ बोले प्रस्ताव को स्वीकार करके आगे बढ़ने की मांग की। श्री बोले के प्रस्ताव में उपरोक्त आवश्यकताओं पर बल दिया गया था। उन्होंने ऐसे लोगों पर कार्रवाई की मांग की जो सामाजिक सुधार के प्रयासों में रोड़े अटकाकर सामाजिक सद्भाव के पावन लक्ष्य को भटकाने का प्रयास कर रहे थे। पत्रकारिता के मूल्यों के प्रति उनके प्रबल आग्रह का पता उनके इन खरे-खरे शब्दों से चलता है-
‘भारत में पत्रकारिता कभी पेशा हुआ करती थी। अब यह व्यापार बन गया है। इसकी नैतिकता साबुन निर्माण से अधिक नहीं रह गई है। अब यह (पत्रकारिता) अपने आप को जनता का जिम्मेदार सलाहकार नहीं मानती। किसी खास मंतव्य के बिना निष्पक्ष समाचार देना, सार्वजनिक नीतियों पर समाज के लिए हितकारी लगे ऐसे दृष्टिकोण सामने रखना, कोई कितना भी ऊंचा क्यों न हो – गलत रास्ता चुनने पर उसकी निर्भीक आलोचना और सुधार आदि मूल्यों की आज भारतीय पत्रकारिता में मान्यता नहीं रह गई है। पहले इन सबको सर्वप्रथम कर्तव्य माना जाता था। आज उसका मुख्य सिद्धांत है, एक नायक चुनकर उसकी पूजा करना। इसके अंतर्गत समाचार के स्थान पर सनसनी को प्रमुखता देना, तार्किक मत के स्थान पर अतार्किक भावोत्तेजना, जिम्मेदार लोगों के मन को स्पर्श करने के स्थान पर गैरजिम्मेदार लोगों की भावनाओं को उकसाना आदि देखने में आ रहा है।’ लार्ड सालिसबरी ने कहा था, ‘भारतीय पत्रकारिता चारणों द्वारा उनके नायकों का महिमामंडन है।’ कभी भी नायक पूजा के लिए देश के हितों को इस तरह कुर्बान नहीं किया गया था। न ही कभी नायक पूजा इतनी अंधी रही है जैसी आज भारत में देखी जा रही है। मुझे इस बात की खुशी है कि कुछ सम्मानजनक अपवाद मौजूद हैं लेकिन उनकी आवाज कभी सुनी नहीं गई।’
(लेखक प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक हैं)
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