दीपावली, बस आ ही गई। अयोध्या जगमग है और इसके साथ ही देश और दुनिया भर में भारतवंशियों की देहरियों पर उजास और उल्लास छाया है। परंतु, केवल दिन विशेष पर उत्सव मनाने के अतिरिक्त भी दीपावली कुछ संदेश देती है। दीये की टिमटिमाती लौ सीमित अवधि के लिए प्रकाश देता दीया भर नहीं है, यह हर व्यक्ति के लिए उसके स्व के जागरण का उद्घोष है। अयोध्या, यानी जिससे युद्ध नहीं किया जा सकते, क्योंकि उसके स्व का जागरण इतना बड़ा है, उसके स्व के अलख, स्व की लौ ने उसमें इतना उजास पैदा किया है कि परतंत्रता का तिमिर अब उसे घेर नहीं सकता। इसलिए हम प्रत्येक मन को अयोध्या बनाने का संकल्प हम लें, यही अयोध्या से आरम्भ हुई दीपावली का मर्म है।
स्व का जागरण जीवन के हर क्षेत्र में होता है – सामाजिक क्षेत्र में, आर्थिक क्षेत्र में, राजनीतिक क्षेत्र में। अपने कर्मक्षेत्र में जिन रणभूमियों, जिन मोर्चों पर हम लड़ रहे होते हैं, वहां स्व का जागरण यदि है, तो जो तरह-तरह के आसुरी बादल घिर आते हैं, जो अंधकार छा जाता है, वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि हमारी स्व की लौ प्रज्ज्वलित है, हम चीजों को सही से समझ सकते हैं।
एक उदाहरण देखते हैं। एक तरफ उत्तर प्रदेश में अयोध्या की जगमग होगी, विश्व कीर्तिमान बनेंगे, दुनिया देखेगी। परंतु इसी के साथ उत्तर प्रदेश, विधानसभा चुनावों के लिए भी ताल ठोक रहा है। देश की बुजुर्ग पार्टी की युवा नेता ने उत्तर प्रदेश के संदर्भ में घोषणा की है कि पार्टी 40 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं को टिकट देगी। उन्होंने यह भी कहा कि यदि उनका वश चलता तो वे 50 प्रतिशत सीटों पर महिला प्रत्याशी उतार देतीं। इस घोषणा का दीपावली से क्या जुड़ाव हो सकता है? स्व के जागरण से क्या जुड़ाव हो सकता है?
लेकिन ठहरिए! स्व की कसौटी बहुत बड़ी है। जब हम किसी राजनेता की ऐसी उद्घोषणाओं को केवल राजनीति के चश्मे से देखते हैं तो ऊपरी तौर पर सरल दिखने वाली चीजें हमारे भविष्य को जटिल कर देती हैं। इस उद्घोषणा की पड़ताल करें- क्या राजनेताओं ने यह मान लिया है कि महिलाओं के हित का काम महिलाओं को सिर्फ राजनीतिक प्रतिनिधित्व देकर पूरा हो जाएगा? या इसे करने का सिर्फ यही तरीका है? या तीसरी बात यह कि सिर्फ महिलाएं ही महिलाओं के हित की बात सोच सकती हैं? जब हम इन तरीके से सोचते हैं तो यह प्रश्न और विराट हो जाता है।
एक-दूसरे के लिए विचार करने का जो हमारा संस्कार है, क्या हमने मान लिया है कि हमारा वह संस्कार धूमिल पड़ गया है, बौना हो गया है? हम तो सबकी चिंता करने वाले थे। अब ये वर्गीय चिंताओं के खांचे कौन तैयार कर रहा है? आरक्षण जहां व्यक्ति को सीधे सबल करता हो, जैसे छात्रवृत्ति, पढ़ाई-लिखाई, रोजगार में अवसर आदि, तक तो ठीक है परंतु यह मान लेते ही कि एक वर्ग की, एक लिंग की, एक भाषा की या एक भौगोलिक क्षेत्र की चिंता सिर्फ उस निर्दिष्ट वर्ग, लिंग, भाषा या भौगोलिक क्षेत्र के लोग ही कर सकते हैं, हम अपनी संस्कृति के मूल बोध से दूर हो जाते हैं। और यह अस्मिताओं के नाम पर, पहचान के नाम पर जो लड़ाइयां लड़ी जाती हैं, उसमें हमें राजनीति घेरने लगी है, सामाजिक सरोकार पीछे छूट जाते हैं।
ध्यान रखिए, महिलाओं के लिए हिन्दू विचार जैसा भाव अन्य किसी संस्कृति में नहीं मिलता। अर्थात् स्त्री या पुरुष, नर या मादा, इसमें कोई हेय नहीं है, कोई एक श्रेष्ठ नहीं है। दोनों मिलते हैं, समवेत चलते हैं, तभी श्रेष्ठता पैदा होती है। ऐसा भाव देने वाली संस्कृति और कहां थी। जब राजनेता ऐसे विचार उठाते हैं तब पता चलता है कि उन्होंने राजनीति भले पढ़ी हो, संस्कृति नहीं पढ़ी। और, खासतौर से आयातित विचारों पर चलने वाले वामपंथी दल ऐसे विचार ले कर आए हैं। उन्होंने अस्मिताओं की लड़ाई को तेज करने का काम किया है।
पहचान की इन लड़ाइयों को वामपंथी तेज तो करते हैं और वे यह भी कहते हैं महिलाओं के लिए इस तरह की चीजें लागू न होने के पीछे पितृसत्तात्मक, पुरुषवादी सोच जिम्मेदार है परंतु वे यह नहीं बता पाते कि अपने टिकट बंटवारे में, अपने पोलित ब्यूरो में कभी भी वे इसे लागू क्यों नहीं कर पाए। यहां उनका छल पकड़ में आता है। अगर हम कांग्रेस की युवा नेता की उद्घोषणा को ही सच मानें, अगर यह कसौटी सही रही होती तो स्वतंत्रता के पश्चात जिन्होंने नेतृत्व किया या नेतृत्व का मार्गदर्शन किया यथा महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री और स्वयं इंदिरा गांधी की भी यही सोच रही होती। पर ऐसा नहीं था।
यह तो राजनीति का एक उदाहरण था जहां हमने अलग-अलग पहचानों को स्थापित किए जाने और उनमें परस्पर संघर्ष को सामने रखा। इससे उलट बात यह है कि अवसरों को पहचान कर अपनी पहचान स्थापित करना और सबको बराबर के मौके देना, भारत इस दिशा में बढ़ रहा है। आज जब हम दीपावली की बात कर रहे हैं तो यह जरूरी हो जाता है कि हम उन लोगों की बात करें जिन्होंने आशंकाओं और आपदाओं के काले बादलों को चीर कर आपदाओं को अवसर में बदल दिया।
उद्यमिता की यह एक उड़ान थी जिसने उन्हें एक नई पहचान दिलाई। इसमें लिंग नहीं है, भाषा नहीं है, जाति नहीं है, भेद नहीं है। इसमें संघर्ष है, स्थितियों को परखने का माद्दा है। और ये अलग-अलग क्षेत्रों के जो नायक हैं, वे बता रहे हैं कि भारत अब किस तरीके से सोच रहा है। एक पृथक पहचान की राजनीति है, दूसरी तरफ सबका साथ सबका विकास जैसा नारा है, जो राजनीति नहीं है, इस संस्कृति के दर्शन का उद्घोष है। ये उस सांस्कृतिक दर्शन के नायक हैं, ये किसी राजनीतिक दल से जुड़े लोग नहीं हैं। ये इस बात के प्रतीक हैं कि हम अपने कर्म से अपनी पहचान बनाते हैं। आपकी पहचान भाषा से, जाति से, भौगोलिक क्षेत्र से नहीं होती।
आज हम पहचान की लड़ाई तेज करके राजनीति की रोटियां सेंकने की जो कवायद से परे, इस उद्यमिता, कर्मशीलता की बात करेंगे क्योंकि दीपावली से जिस तिमिर को काटने की बात होती है, उसमें सामाजिक तिमिर भी है, आसुरी प्रवृत्ति का हनन भी है और स्वयं को अपने संकल्प के बूते आगे बढ़ाने का उदाहरण भी है। कर्मशील लोग परिस्थितियों का रोना नहीं रोते। यदि श्री राम परिस्थितियों का रोना रोते तो लंका पर विजय हासिल नहीं हुई होती। और यदि वे परिस्थितियों का ही रोना रोते तो एक राजपुरुष होकर स्वयं को वन में ऐसे जीवन में नहीं ढाल सकते थे।
उन्होंने कभी परिस्थिति की बात नहीं की, परिणाम युगानुकूल कैसे हों, समयानुकूल कैसे हों, संस्कृति के अनुकूल और आगे के लिए उदाहरण बनने योग्य कैसे हों, यह काम उन्होंने किया। आज हमारे नायक वे हैं, जिन्होंने परिस्थितियों से घबराए बिना आपदा को अवसर में बदलने का काम किया। वास्तव में असली दीपावली को इसी उद्यमिता, इन्हीं उम्मीदों के प्रकाश में देखा जा सकता है।
@hiteshshankar
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