बंग्लादेश में जारी हिंसा का दौर चिंता बढ़ाने वाला है। संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्था, अमेरिका जैसी वैश्विक महाशक्ति और भारत जैसा जोशीला और विविधतापूर्ण देश, सभी इस पर चिंता जता रहे हैं। परंतु ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह समझना है कि घटनाओं पर केवल चिंता जताने से कुछ नहीं होगा। जब तक घटना के पीछे की प्रेरणा को नहीं समझा जाएगा, ऐसी घटनाएं लगातार होती रहेंगी। यदि हम यह कहें कि इसका निशाना कोई मंदिर था, यह फौरी तौर पर तथ्यात्मक हो सकता है परंतु समझना यह होगा कि यह एक आस्था को अलग-अलग बहानों से लगातार निशाना बनाने का दुष्चक्र है, जिसका क्रम अभी दुर्गापूजा के दौरान बड़े पैमाने पर बांग्लादेश में दिखाई दिया।
जब हम इस घटना पर विचार करते हैं तो दो-तीन बिन्दुओं को समझना-बूझना, उनका विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है। पहला तो यह कि जब ऐसी घटनाएं घटती हैं तो उन्मादियों के साथ बौद्धिक आतंकवादी भी चलते हैं। झूठी खबरें फैलाने और झूठी कहानियां-झूठे तथ्य गढ़कर बहस को गलत दिशा में मोड़ने में उनकी भूमिका दिखती है। दूसरे, चुनिंदा चुप्पियां दिखाई देती हैं। यानी एक तरफ झूठ का कारोबार दिखाई देता है और दूसरी तरफ जो लोग सरोकार और सेकुलरिज्म की बात करते हैं, उनके पाले में सन्नाटा पसरा दिखाई देता है। तीसरी बात यह कि चाहे झूठी खबरें हो या चयनित चुप्पी, इन सबके पीछे इस उन्माद को पोसने की एक कोशिश भी लगातार चलती है।
यहां पर बांग्लादेश में, कोमिल्ला से शुरू हुई हिंसा की घटना को देखने के लिए पहले यह समझना पड़ेगा कि बांग्लादेश में आज क्या हो रहा है, पाकिस्तान में लगातार क्या हुआ है और भारत विभाजन के समय किस यंत्रणा से गुजरा है। इन गुत्थियों को समझे बिना आप ऐसी घटना को आधी-अधूरी घटना के तौर पर ही देख पाएंगे। यह एक सांस्कृतिक क्षेत्र है, इस पूरे क्षेत्र में राजनीतिक लकीरें बाद में खीचीं गई हैं। जो लोग विविधता की संस्कृति से कटे, जिन्होंने वह लीक पकड़ी कि सिर्फ हम ही सही, बाकी सबको खारिज करना, वहां हमने यह इन खून-खराबा देखा।
इनसान को इनसान नहीं समझना, हिन्दू और मुसलमान में बांटना। इतने पर भी न थमना, मुसलमान को आगे शिया-सुन्नी में बांटना, अहमदिया और इस्माइली में बांटना, यह शुरुआत पाकिस्तान ने सबसे पहले की। तो भारत से कट कर पाकिस्तान बना। फिर जब बोली, पहनावे के आधार पर पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान में आपस में निबाह नहीं हुआ तो बांग्लादेश बना। फिर पाकिस्तान में शियाओं पर दमन शुरू हुआ, फिर अहमदिया तो खत्म से हो गए।
बांग्लादेश, कहता था कि विविधता के मामले में, उदारता के मामले में हम पाकिस्तान से दूर और भारत के ज्यादा नजदीक हैं, वही उन्माद अब बांग्लादेश में पैर पसारता दिखाई देता है।
फरवरी, 2013 में अहमद राजीब हैदर की हत्या हो, ब्लॉगर राजीब हैदर के साथी काजी महबुर्रहमान, उल्लास दास और रेहान पर मई 2004 में कातिलाना हमले हों, मार्च 2013 में ब्लॉगर सुन्युर रहमान की नृशंस हत्या हो, फरवरी 2015 में अमेरिका से आए ब्लॉगर अविजित रॉय की आंखों के आगे उनकी पत्नी राफिया को मार डालने का मामला हो, मार्च 2015 में बशीकुर रहमान की नृशंस हत्या या मई, 2015 में ब्लॉगर अनंत विजय दास की हत्या, अगस्त 2015 में ब्लॉगरों को समर्थन देने वाले पत्रकार नीलॉय चैटर्जी की बेरहमी से हत्या या जून, 2018 में लेखक शाहजहां की हत्या हो, या रिचर्ड एल, बेंकिन की पुस्तक अ क्वाइट केस आॅफ एथनिक क्लीनजिंग : द मर्डर आॅफ बांग्लादेश ‘हिंदूज’ को देखें जिसमें बांग्लादेश में नस्लीय सफाये की पूरी कहानी कही गई है, इससे पता चलता है कि एक उन्माद की खेती इस पूरे मुल्क में शुरू हुई जिसने इसके पूरे सामाजिक चरित्र को ही बदल दिया।
और, इन सबके बीच, बौद्धिक शरारत करने वाले लोग अकारण ही और गलत कारणों से यह तड़का भी बीच-बीच में लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि भारत में अल्पसंख्यकों के साथ अत्याचार होता है। जबकि असल स्थिति बिल्कुल अलग है। भारत पूरी दूनिया में ऐसा देश है जहां अल्पसंख्यक सबसे ज्यादा फले-फूले। चाहे अल्पसंख्यकों की संख्या देखें, चाहे जीवन में उनकी प्रगति देखें, इस लोकतंत्र में सर्वोच्च पद राष्ट्रपति के पद पर, विज्ञान के क्षेत्र में, ज्ञान के क्षेत्र में, खेलों के क्षेत्र में संवैधानिक व्यवस्था के क्षेत्र में अल्पसंख्यकों को स्थान देने का कोई उदाहरण है, तो भारत ही है। अल्पसंख्यक इतनी प्रमुख स्थिति तक कहीं और नहीं जा पाए हैं।
जो भारत के इन सांस्कृतिक गुणों को नहीं समझते, विविधता को संजोने की संस्कृति, जो हिंदुत्व का मूल तत्व है, को नहीं समझते, और अपना मजहबी या राजनीतिक मॉडल पेश करते है, उनके मॉडल इतिहास की कसौटी पर, समय की कसौटी पर खारिज हुए हैं। अमेरिका में एक लम्बे समय तक हमने रंग के आधार पर लोगों से भेदभाव होते देखा। और, अब तक वहां श्वेत-अश्वेत की लड़ाई ठंडी नहीं हुई है। वहां श्वेत प्रभुत्व की बात होती है और अश्वेतों के उत्पीड़न की कहानियां भी सामने आती रहती हैं। पाकिस्तान-बांग्लादेश में एक तबका, एक फिरका, उसका जितना जोर चलता है, वह दूसरे को ठिकाने लगाने में कोताही नहीं बरतता। मस्जिदों में नमाज पढ़ते वक्त होने वाले धमाके वहां अब कोई खबर नहीं हैं। यदि हम चीन की बात करें तो एक विचार को लेकर चलने के खतरे वहां दिखते हैं। उइगरों के उत्पीड़न से लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने के जो मॉडल हैं, उन्हें दुनिया ने यहां देखा।
अभी भारत ने बांग्लादेश की हिंसा पर चिंता जताई है, बांग्लादेश भी चिंतित नजर आता है, दुनिया की तमाम संस्थाएं भी चिंता जता रही हैं। परंतु यह चिंता महज औपचारिकता न रहे, और इस हिंसा की लपटों के पीछे जो लंपटई है, जो उन्माद है, उन्माद की पाठशालाएं हैं, उनकी तरफ यदि हमने गौर नहीं किया, उन्हें चिह्नित नहीं किया, और उनका उपचार करने की दिशा में साझे कदम नहीं बढ़ाए तो दुनिया में विविधता का आंगन सिकुड़ता जाएगा । अगर किसी को शिकार की आदत ही पड़ जाए तो कत्ल करने के बाद उसका कलेजा ठंडा नहीं पड़ता।
यानी उन्माद का यह शिकारी दानव और कत्ल करने के लिए यहां से निकलकर दुनिया के अन्य आंगनों की ओर बढ़ेगा।
ध्यान दीजिए, वे जिसे निशाना बना रहे हैं, वह कोई मंदिर नहीं है। वह इस दुनिया का वह सनातन विचार है जो दूसरे के लिए गुंजाइश देता है, उसे जीने की जगह देता है। अगर हमने दूसरे के लिए जगह नहीं दी तो दुनिया में किसी के लिए कोई जगह नहीं बचेगी। इसलिए हिंदुत्व पर हर हमले को रोकने के लिए हमें लामबंद होना पड़ेगा। अगर दूसरे के लिए गुंजाइश खत्म करते रहे तो आपको तात्कालिक तौर पर तो हिंदुत्व निशाना बनता दिखाई देगा, परंतु याद रखिए, अगली बारी आपकी है।
@hiteshshankar
टिप्पणियाँ