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ड्रैगन क्यों हुआ लाल!

by WEB DESK
Oct 19, 2021, 11:45 am IST
in विश्व, दिल्ली
FacebookTwitterWhatsAppTelegramEmail

आदर्श सिंह

 

चीनी आक्रामकता के स्रोत उसकी सैन्य शक्ति में नहीं बल्कि खस्ताहाल होती जा रही अर्थव्यस्था में हैं। चीन जानता है कि उसे जितनी उन्नति करनी थी, कर चुका। अब आगे ढलान है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय जगत में वह जो हासिल करना चाहता था, उसमें कोई लक्ष्य अभी तक प्राप्त नहीं हुआ। लिहाजा इस आक्रामकता के पीछे कुंठा है

 

जुलाई के अंत में अमेरिकी सैनिकों की वापसी, काबुल में मोटरसाइकिल सवार तालिबान के विजय जुलूस और हवाई जहाज से लटके अफगानों की तस्वीरें छाई हुई थीं। बहुत से लोगों ने इसे अमेरिका के पराभव का सबूत मानते हुए मर्सिया पढ़ना शुरू कर दिया था। पर इस घटनाक्रम से अगर कोई सबसे ज्यादा खुश था तो वे थे चीन और पाकिस्तान। चीन ने तत्काल ताइवान को चेतावनी देते हुए कहा कि वह अमेरिका पर भरोसा करना छोड़ दे। यानी चुपचाप घुटने टेक दे। काबुल पर तालिबान के कब्जे के दो दिन बाद ही चीन ने एक बड़े पैमाने पर युद्धाभ्यास में ताइवान की दक्षिणी समुद्री सीमा के पास मिसाइलें दागीं और उसके समुद्र तटों पर फौज उतारने का अभ्यास किया।
 

चीन की खस्ता हालत
2007 में 15%  थी विकास दर,
2020 में घटकर दो प्रतिशत रह गई
2008 से 2019 बीच कर्ज जीडीपी के तीन सौ प्रतिशत से ज्यादा
40% कृषि भूमि बंजर, खाद्यान्न के लिए लगभग आयात पर निर्भर
60%  भूजल इतना प्रदूषित कि उसे पीना तो दूर, छूना भी खतरनाक
2020 से 2035 के बीच हर साल
7 करोड़ कामगार कम होंगे
2035 से 2050 के बीच हर साल 10.5 करोड़ कामगार घटेंगे
30% जीडीपी का हिस्सा वरिष्ठ नागरिकों पर होगा खर्च

लेकिन घरेलू राजनीति की तरह अंतरराष्ट्रीय राजनीति भी विचित्र है। दुनिया को बखूबी पता है कि उसके हित-अहित कहां हैं। अफगानिस्तान कुछ ही दिन में दुनिया की नजरों से ओझल हो गया और अचानक 16 सितंबर को अमेरिका की अगुआई में ब्रिटेन और आॅस्ट्रेलिया के त्रिपक्षीय गठबंधन आॅकस के गठन की घोषणा हो गई। ठीक एक हफ्ते बाद 24 सितंबर को पहली बार क्वाड यानी भारत-जापान-अमेरिका और आॅस्ट्रेलिया जैसे चार देशों के शीर्ष नेताओं की आमने-सामने बैठक हुई।  ठीक इसी समय ताइवान ने चीन को चिढ़ाते हुए घोषणा की कि उसने कंप्रिहेंसिव ऐंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी) की सदस्यता के लिए आवेदन किया है। ताइवान की इस घोषणा के तुरंत बाद चीन ने उसकी सीमा में 24 युद्धक जहाज भेज दिए। ताइवान की प्रतिक्रिया बहुत सख्त थी। ताइवान सरकार ने एक कड़े बयान में कहा कि चीन आदतन अपराधी है और डरा-धमका कर ताइवान को दुनिया से अलग-थलग करना चाहता है।

बार-बार ताइवानी वायुक्षेत्र का अतिक्रमण
लेकिन चीन की वामपंथी तानाशाही सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वे माओ की इस अवधारणा के मुरीद हैं कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। उनका मानना है कि उन्हें सम्मान की आवश्यकता नहीं है , आवश्यकता इस बात की है कि सभी उससे डरें। इसलिए एक अक्तूबर यानी चीन में वामपंथी तानाशाही की ताजपोशी की 72वीं वर्षगांठ पर उसने एक साथ 38 युद्धक विमान ताइवानी सीमा में भेज दिए। यह अब तक की एक दिन में ताइवानी सीमा का अतिक्रमण करने वाले विमानों की सबसे ज्यादा संख्या थी। चीन ने अगले ही दिन अपना यह रिकार्ड तोड़ दिया जब उसके 39 युद्धक विमानों ने ताइवानी वायुक्षेत्र का अतिक्रमण किया। अमेरिका ने चीन को उसकी इस उकसावे वाली सैन्य कार्रवाइयों के लिए चेतावनी देते हुए इसे क्षेत्रीय स्थिरता के लिए खतरा बताया। जवाब में चीन ने चार अक्तूबर को एक साथ पूरे 56 युद्धक विमान ताइवानी सीमा में भेजकर अपनी मंशा स्पष्ट कर दी। जब ताइवानी वायुसेना के ट्रैफिक कंट्रोलर ने एक चीनी विमान के ताइवानी क्षेत्र में दाखिल होने पर चेतावनी दी तो चीनी पायलट ने इसे हंसी में उड़ाते हुए चेतावनी देने वाले अफसर की मां के बारे में अश्लील शब्द कहे।

चीनी युद्धक विमानों ने पिछले एक साल में 173 दिन ताइवानी वायुक्षेत्र का अतिक्रमण किया। यानी यह लगभग रोजमर्रा की बात है। ताइवानी समझ चुके हैं कि यह धमकाने वाली कार्रवाईयां दरअसल उन्हें थकाने की मंशा है। लिहाजा अब वे हर चीनी घुसपैठ पर जवाबी कार्रवाई के तौर पर अपने विमान नहीं भेजते। ताइवान ने अपनी रणनीति में बदलाव किया है और अब वह विमान भेजने के बजाय जमीन पर स्थित अपनी वायु रक्षा चेतावनी प्रणाली के जरिए चीनी घुसपैठ की निगरानी करता है। ताइवान  हर चार साल में एक बार अपनी रक्षा क्षमता का आकलन करता है जो 2021 में भी हुआ। इस पत्र के अनुसार चीनी विमान अगर उसकी सीमा के ज्यादा करीब आए तो वह सख्त कार्रवाई करेगा। मीडिया में छपी खबरों के अनुसार ताइवान ने चीनी घुसपैठ से मुकाबले के लिए संभवत: तीन रक्षा क्षेत्र चिन्हित किए हैं। इसमें ताइवान की समुद्री सीमा के तीस नॉटिकल मील के इलाके को निगरानी क्षेत्र, 24 नॉटिकल मील के अंदर के क्षेत्र को चेतावनी क्षेत्र और 12 नॉटिकल मील वाले क्षेत्र को विध्वंस क्षेत्र घोषित किया गया है। यानी ताइवान के समुद्र तट के 12 मील तक पास आ जाने वाले चीनी विमानों को मार गिराया जाएगा। हालांकि विध्वंस क्षेत्र में घुस आए चीनी विमानों को मार गिराने के लिए ताइवानी पायलटों को सैन्य मुख्यालय से अनुमति लेनी होगी। लेकिन पायलटों को चीनी विमानों को निशाने पर लेने और चेतावनी के तौर पर गोली चलाने की अनुमति है।

युद्ध पर आमादा क्यों चीन
अभी तक चीन फिलहाल अपने विमानों को ‘विध्वंस क्षेत्र’ यानी ताइवानी तट से 12 मील वाले इलाके में नहीं भेज रहा लेकिन लगता नहीं कि यह ज्यादा दिन टिकेगा। चीन लगातार यह धमकी दे रहा है कि वायुक्षेत्र के अतिक्रमण की बात तो दूर, वह सीधे ताइवानी आकाश में अपने विमान भेजेगा। यह एक ऐसी स्थिति होगी जिसमें ताइवान को मजबूरी में चीनी विमानों को मार गिराना पड़ेगा।

चीन की मंशा संभवत: यही है। शायद वह यह चाहता है कि ताइवान को मजबूरन कुछ ऐसा करना पड़े जिसका फायदा उठा कर वह युद्ध छेड़ सके। यदि यह मंशा नहीं भी है तो ताइवानी आकाश से चीनी विमानों को खदेड़ने की प्रक्रिया में भी दुर्घटना होने की संभावना काफी अधिक है। यह 2001 में चीन और अमेरिका के लड़ाकू विमानों में आकाश में हुई टक्कर जैसी हो सकती है। इसमें एक चीनी निगरानी विमान अमेरिकी लड़ाकू विमान के बहुत करीब आ गया था और हवा में हुई टक्कर में चीनी पायलट की मौत हो गई और अमेरिकी विमान को आपात सिथिति में चीनी क्षेत्र में उतरना पड़ा। डिस्ट्रक्शन जोन यानी विध्वंस क्षेत्र में चीनी विमानों के घुस आने पर ताइवान के पास जवाबी कार्रवाई के अलावा कोई विकल्प बचता ही नहीं। इंडो-पैसिफिक हवाई कमान के खुफिया निदेशक रियर एडमिरल माइकल स्ट्यूडमैन ने जुलाई में कहा कि सवाल यह नहीं कि युद्ध होगा या नहीं, सवाल बस इतना है कि कब होगा।
सवाल उठ सकता है कि चीन आखिर युद्ध पर आमादा क्यों है? हिमालय के साथ-साथ पूरे दक्षिण चीन सागर से लेकर प्रशांत महासागर तक आखिर सभी को दुश्मन बना लेने के पीछे चीन की मंशा और इसके पीछे क्या रणनीतिक उद्देश्य हो सकते हैं?

इसके तीन जवाब हैं। पहला तो चीन को यह लगता है कि राष्ट्रीय पुनरुत्थान का उसका लक्ष्य ताइवान पर कब्जे के बिना पूरा नहीं हो सकता। दूसरा उसका मानना है कि अमेरिका अब पराभव की ओर है और ताइवान को लेकर संघर्ष में नहीं उलझेगा। और अगर सब ठीक रहा तो चीन शायद अमेरिका को पराजित भी कर दे। निश्चित रूप से अमेरिका को इतना कमतर आंकना चीन के लिए आत्मघाती साबित होगा, भले ही उसकी विस्तारवादी महत्वाकांक्षाएं जो भी हों। अमेरिका अभी सैन्य और आर्थिक शक्ति के मामले में चीन से बहुत आगे है। साथ ही अमेरिका के बहुत से सैन्य गठबंधन और सैन्य सहयोगी हैं जिनकी सामूहिक शक्ति से निपट पाना चीन के लिए असंभव है।
दरअसल चीनी आक्रामकता के कारण कुछ और हैं। चीन एक आश्वस्त देश नहीं है, घबराया हुआ और भयभीत देश है।

अटकी चीन के उदय की सुई
इस दीवार पर लिखी इबारत साफ है कि चीन के उदय की सुई अब अटक चुकी है और अब यह उलटी दिशा में जा रही है। अब सालाना दहाई अंकों की विकास दर चीन के लिए सपना ही रहेगी। और वह अब अपने इस विकास की बहुत बड़ी कीमत चुकाने वाला है। सारे संसाधन खत्म हो चुके हैं। चीन की आधी से ज्यादा नदियां विलुप्त हो चुकी हैं, खुद सरकार भी मान चुकी है कि इसका 60 प्रतिशत भूमिगत जल इतना प्रदूषित हो चुका है कि इसे पीना तो दूर, छूना तक खतरनाक है। अत्यधिक उपयोग के कारण इसकी 40 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि बंजर हो चुकी है और खाने-पीने की चीजों के लिए वह अब लगभग आयात पर निर्भर है। चीन अब खाद्यान्नों का सबसे बड़ा आयातक है। बड़ी बात यह कि चीन में अब विकास ही बहुत महंगा हो गया है। 1990 या इस सदी के पहले दशक में जिस काम के लिए जितनी पूंजी लगानी पड़ती थी, आज उसी के लिए तीन गुना ज्यादा लागत आती है।  यह लागत और बढ़ने वाली है। चीन की विकास दर 2007 के 15 प्रतिशत की दर से घटकर 2020 में दो प्रतिशत पर आ गई है। लेकिन इस आॅकड़े पर भी संशय है। टोटल फैक्टर प्रोडक्टिविटी 2008 से 2019 के बीच हर साल 1.3 प्रतिशत की दर से घटी है। यानी हर साल लागत बढ़ती जा रही है और उत्पादन घटता जा रहा है। नतीजा है कर्ज का भारी बोझ। 2008 से 2019 के बीच कर्ज जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद के तीन सौ प्रतिशत से ज्यादा हो गया। विशेषज्ञों की मानें तो कोई भी देश जिसका कर्ज और उत्पादन लागत इस रफ्तार से बढ़ा है, उसे कम से कम एक दशक तक शून्य विकास दर का सामना करना ही पड़ता है।  चीन अब एक ऐसे दशक में जा रहा है जहां विकास के नाम पर नील बटा सन्नाटा दिख सकता है।

ढलान से उपजी खीझ
लेकिन सबसे बड़ी समस्या अभी बाकी है। वह है आबादी का हाल। चीन में 1970 के दशक में एक बच्चे की नीति लागू हुई और 1990 के दशक और इस सदी के शुरू में चीन की युवा आबादी उसके लिए वरदान थी।  किसी भी देश के पास इतनी युवा आबादी नहीं थी। पर वह समय गया। अब 2020 से 2035 के बीच चीन में हर साल सात करोड़ कामगार कम होंगे और सेवानिवृत्त कामगारों की संख्या में सालाना 13 करोड़ की बढ़ोतरी होगी।  यह लगभग फ्रांस और जापान की आबादी के बराबर है। 2035 से लेकर 2050 के बीच चीन में हर साल 10.5 करोड़ कामगार घटते जाएंगे और साढ़े छह करोड़ सेवानिवृत्त कर्मचारी बढ़ते जाएंगे। इसके आर्थिक परिणाम भयावह होने वाले हैं। अकेले वरिष्ठ नागरिकों की देखरेख पर ही चीन को अपनी जीडीपी का 30 प्रतिशत हिस्सा खर्च करना होगा।

यानी ले-देकर चीन यह जानता है कि वह उन्नति के शिखर पर पहुंच चुका है। अब आगे ढलान है। लेकिन जब 15 प्रतिशत की विकास दर थी तो चीनी नेताओं और आभिजात्यों ने बड़े सपने देखे और अपनी जनता को दिखाए। मसलन ताइवान पर कब्जा कर राष्ट्रीय एकीकरण के लक्ष्य को पूरा करेंगे, अमेरिका को पीछे छोड़कर दुनिया के चौधरी बनेंगे, एशिया में पूरा दबदबा होगा। पर दिक्कत यह है कि इनमें से कोई लक्ष्य पूरा नहीं हुआ। जर्मनी व जापान जैसे देश उदाहरण हैं जिन्होंने चमत्कारिक तरीके से आर्थिक उन्नति की और सैन्य ताकत को बढ़ाया। लेकिन जब आर्थिक उन्नति पर ब्रेक लग गया तो  उनके नेताओं के सामने यह समस्या हुई कि उन्होंने अपनी जनता को जो बड़े सपने दिखाए, अब उन्हें कैसे पूरा करें। सो इन देशों ने युद्ध और आक्रामकता का सहारा लिया। चीन भी वही कर रहा है। नतीजे भी वहीं होंगे।
(लेखक साइंस डिवाइन फाउंडेशन से जुड़े हैं और रक्षा एवं वैदेशिक मामलों में रुचि रखते हैं)

 

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