लगभग तीन दशक से जम्मू-कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानपरस्त अलगाववादी संगठन आॅल पार्टी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की असलियत सामने आ गई है। इसके नेता कश्मीरी छात्रों को पाकिस्तान के शिक्षा संस्थानों में मेडिकल-इंजीनियरिंग जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रर्मों में 15-20 लाख रुपये की दर से प्रवेश दिलाते थे। इसके लिए हुर्रियत नेताओं का उक्त संस्थानों में कोटा तय था। इससे प्राप्त रकम का उपयोग ये आतंकी गतिविधियों के लिए करते थे
पिछले लगभग तीन दशक से जम्मू-कश्मीर में सक्रिय पाकिस्तानपरस्त अलगाववादी संगठन आॅल पार्टी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की असलियत सबके सामने आ गई है। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस लम्बे समय से पाकिस्तान के इशारे पर भारत-विरोधी गतिविधियों में संलिप्त है। यह आतंकवादी संगठनों का वित्तपोषण करता रहा है। पाकिस्तान आदि भारत विरोधी देशों से प्राप्त हवाला फंडिंग इसका बड़ा आर्थिक स्रोत रही है। इसके अलावा पिछले दिनों एक और बड़े स्रोत की पुष्टि हुई है। पाकिस्तान के विभिन्न शिक्षा संस्थानों और मेडिकल-इंजीनियरिंग जैसे प्रोफेशनल कोर्सों में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का कोटा निर्धारित था। हुर्रियत नेताओं की संस्तुति पर कश्मीर के छात्र-छात्राओं को पाकिस्तान स्थित इन संस्थानों और पाठ्यक्रमों में प्रवेश दिया जाता था। हुर्रियत के नेता अपने लिए निर्धारित इन सीटों को 15-20 लाख रुपये प्रति सीट के हिसाब से बेचकर मोटी रकम इकट्ठी कर लेते थे। वे इस रकम और हवाला फंडिंग आदि से प्राप्त धन का प्रयोग जम्मू-कश्मीर में सक्रिय—लश्कर-ए-तैयबा, हिज्बुल मुजाहिदीन और दुख्तरान-ए-मिल्लत जैसे आतंकवादी संगठनों के वित्तपोषण के लिए करते थे। आतंकियों को धन मुहैया कराने के अलावा हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के ये नेता स्थानीय लोगों को भी सुरक्षा बलों पर पत्थरबाजी करने, सरकारी स्कूल जलाने, सरकारी संपत्ति को नष्ट करने, आतंकियों के लिए मुखबिरी करने आदि कामों की एवज में खूब धन देते थे। इस प्रकार के कामों के बाकायदा रेट तय थे। इस सीट रैकेट का भंडाफोड़ स्तब्धकारी है। जिस थाली में खा रहे हैं, उसी में छेद करने की इससे नायाब मिसाल दूसरी नहीं हो सकती…। इस भंडाफोड़ से जम्मू-कश्मीर में होने वाली आतंकी वारदातों और अशांति में पाकिस्तान की संलिप्तता एकबार फिर साबित हुई है।
मस्तिष्क में जहर भरने का षड्यंत्र
खाते-पीते परिवारों के लिए 15-20 लाख रुपये कोई बड़ी रकम नहीं थी। वे एमबीबीएस जैसे पाठ्यक्रम के लिए खुशी-खुशी इतने रुपये दे देते थे। रकम इकट्ठी करने के अलावा हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेताओं की मंशा यह भी थी कि धीरे-धीरे पाकिस्तान में पढ़े-लिखे और पाकिस्तान के हिमायती पेशेवर और उच्चपदस्थ लोगों की बड़ी जमात जम्मू-कश्मीर में खड़ी कर दी जाए। पाकिस्तान में सस्ती शिक्षा का सब्जबाग दिखाकर हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेताओं ने आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों को भी अपने बच्चों को पाकिस्तान में पढ़ाने के लिए प्रलोभित किया। दरअसल, पाकिस्तान में पढ़ने वाले इन नौजवानों के साफ-सुथरे मस्तिष्क में मजहबी और भारत-विरोधी जहर भरने की साजिश चल रही थी। यह जम्मू-कश्मीर को लगातार अशांत रखने और हिंसा और आतंक का वातावरण बनाये रखने की व्यापक साजिश थी। इस प्रकार की वारदातों के उदाहरण देकर ही पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जम्मू-कश्मीर में हो रहे खून-खराबे, जुल्मो-सितम और मानवाधिकारों के हनन का रोना रोता था। जबकि वास्तविकता यह है कि इनमें से अधिकांश घटनाएं पाकिस्तान-प्रायोजित थीं। पिछले दो दशक के आंकड़ों से साफ पता चलता है कि एमबीबीएस जैसे प्रोफेशनल कोर्सों की सालाना 30 से 50 सीटों पर प्रवेश हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की संस्तुति पर दिया जाता था। यह संस्तुति लेन-देन के आधार पर ही होती थी। इसके अलावा प्रत्येक वर्ष लगभग 300 अन्य छात्रों को भी सस्ती शिक्षा के नाम पर पाकिस्तान पढ़ने भेजा जाता था। इसके अलावा कुछ नौजवानों और उनके परिजनों को बड़ी रकम देकर और सब्जबाग दिखाकर छात्र वीजा पर पाक अधिक्रांत जम्मू-कश्मीर (गुलाम कश्मीर) में संचालित आतंकी कैंपों में ट्रेनिंग के लिए भेजा जाता था। वे वहां से प्रशिक्षित होकर आते थे और कश्मीर में सक्रिय आतंकी संगठनों के लिए काम करते थे।
महबूबा का चहेता है उपद्रवों का सरगना
जांच में यह तथ्य भी उभरकर सामने आया है कि जुलाई, 2016 में दुर्दांत आतंकी वुरहान वानी के भारतीय सुरक्षा बलों के हाथों मारे जाने के बाद कश्मीर घाटी में लम्बे समय तक जो बड़ा बवाल हुआ था, वह भी प्रायोजित था। उसके लिए उपरोक्त स्रोतों से अर्जित 5 करोड़ से अधिक रुपया खर्च किया गया था। पीडीपी की अध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती का सबसे चहेता युवा नेता वाहिद-उर-रहमान इन उपद्रवों का सरगना था। सुरक्षा बलों पर होने वाली पत्थरबाजी, आगजनी, तोड़फोड़, बंद-प्रदर्शन आदि की फंडिंग में उसकी केन्द्रीय भूमिका थी। आतंकवादियों और आतंकी संगठनों के साथ उसके अन्तरंग संबंधों की पुष्टि हो चुकी है और वह लम्बे समय से जेल में बंद है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि महबूबा मुफ़्ती ने उसे अपनी पार्टी से निकालना तो दूर, निलंबित तक नहीं किया है। वे अभी भी उसकी वकालत कर रही हैं। इस पृष्ठभूमि में यह इशारा करना आवश्यक है कि हुर्रियत नेताओं की तर्ज पर मुख्यधारा की राजनीति करने वाले कुछ नेताओं के तार भी आतंकियों से जुड़े हो सकते हैं।
आतंकवादियों के पनाहगार और पैरोकार
सन् 1993 में गठित आॅल पार्टी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जमात-ए-इस्लामी, जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, दुख्तरान-ए-मिल्लत, जम्मू-कश्मीर पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, अवामी एक्शन कमेटी, जम्मू-कश्मीर डेमोक्रेटिक फ्रीडम पार्टी, इत्तिहाद-उल-मुसलमीन, इस्लामिक स्टडी सर्किल, मुस्लिम कॉन्फ्रेंस, जमीयत उलेमा-ए-इस्लाम, स्टूडेंट्स इस्लामिक लीग, अन्जुमन-ए-तबलीग-उल-इस्लाम आदि 26 धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक संगठनों का समूह है। इसके नाम और इसमें शामिल संगठनों से यह भी स्पष्ट है कि यह मजहब विशेष के लोगों का संकीर्ण सांप्रदायिक सोच वाला संगठन है। गौरतलब है कि अरबी भाषा के शब्द हुर्रियत का कोशगत अर्थ आजादी या गुलामी से मुक्ति होता है। इस नामकरण से ही इस अलगाववादी गिरोह के वास्तविक मंसूबों का अंदाजा लग जाता है। इसे भारत की कथित गुलामी से मुक्ति चाहिए। हुर्रियत में शामिल कुछ संगठन कश्मीर का पाकिस्तान में विलय चाहते हैं तो कुछ अन्य समूह स्वतंत्र कश्मीर के पक्षधर हैं। भारत का विरोध उनकी आधारभूत नीति और कश्मीर में अशांति,उपद्रव और आतंक उनकी रणनीति है। भारत सरकार के खिलाफ हड़ताल, प्रदर्शन और तोड़फोड़ उनकी दिनचर्या रही है। वे भारतीय सैन्य बलों को सरकारी आतंकवादी कहते हैं। इनका उद्देश्य कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन, अशांति और हिंसा आदि की आड़ में कश्मीर समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरण करना है।
यह आतंकवादियों का राजनीतिक मुखौटा है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बिरादरी हिंसक गतिविधियों को मान्यता नहीं देती। ये आतंकवादियों के पनाहगार और पैरोकार हैं। सन् 2003 में स्वार्थों के टकराव और अवैध धन की बंदरबांट के चलते यह संगठन दो-फाड़ हो गया था। भारत के प्रति अति आक्रामक और उग्र धड़े, जिसे तहरीक-ए-हुर्रियत कहा जाता है, का अध्यक्ष सैयद अहमद शाह गिलानी बना और अपेक्षाकृत नरम धड़े का अध्यक्ष मीरवाइज उमर फारुक बना। धड़े भले ही दो बन गए लेकिन उनकी भारत-विरोधी कारगुजारियों में कोई खास फर्क नहीं है। ये जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया का भी बहिष्कार करते रहे हैं। ये कश्मीरी अवाम के स्वयंभू नुमाइन्दे हैं जो भोले-भाले लोगों को डराते-धमकाते हैं, ललचाते-खरीदते हैं या फिर बरगलाते हैं। भारत सरकार से कोई भी बातचीत करने से पहले ये अनिवार्यत: पाकिस्तान के साथ बातचीत करने की शर्त रखते रहे हैं और खुद भी ऐसी किसी बातचीत से पहले पाकिस्तान से निर्देश लेते रहे हैं। दुखद यह है कि सन् 2014 से पहले की भारत की विभिन्न सरकारों ने भी इन्हें अनावश्यक महत्व देते हुए अप्रत्यक्ष शह दी। उन्होंने इनकी भारत-विरोधी गतिविधियों को लगातर नजरअंदाज किया जिससे इनके हौसले और बढ़ते गए।
एनआईए की जांच में खुलासा
30 मई, 2017 को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने हुर्रियत के कुछ नेताओं के खिलाफ गैर-नामजद मामला दर्ज करके जांच शुरू की। यह मामला उन नेताओं के विरुद्ध दर्ज किया गया था जिनकी जम्मू-कश्मीर में सक्रिय कुख्यात आतंकी संगठनों के साथ मिलीभगत थी। इस केस में विभिन्न अवैध तरीकों से धन इकठ्ठा करने और उसे आतंकी संगठनों और उपद्रवियों की भारत-विरोधी गतिविधियों के लिए मुहैया कराने की जांच भी शामिल थी। इसी केस में सघन जांच करके सन् 2018 में आरोप-पत्र दायर करते हुए एनआईए ने पाया कि हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता पाकिस्तान के शिक्षण संस्थानों की सीट बेचकर धन-संग्रह कर रहे थे और उस धन का उपयोग उपद्रवी और आतंकवादी गतिविधियों को प्रोत्साहित करते हुए भारत को अस्थिर और कमजोर करने के लिए किया जा रहा था। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस, पाकिस्तान और आतंकी संगठनों का एक ‘त्रिकोण’ भारत के विरुद्ध संगठित रूप में सक्रिय था। लम्बे समय से यह ‘त्रिकोण’ भारत के विरुद्ध एक अघोषित युद्ध लड़ रहा है। फरवरी, 2019 में एनआईए ने यासिन मलिक, शब्बीर शाह, मोहम्मद अशरफ खान, मसर्रत आलम, जफर अकबर भट, सैयद अली शाह गिलानी के बेटे नसीम गिलानी और आसिया अंद्राबी आदि के घरों पर छापे मारे। इन छापों में आपत्तिजनक सामग्री और सबूत पाए जाने पर 18 अलगाववादी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। जुलाई 2020 में सीट रैकेट से संबंधित एक मामला जम्मू-कश्मीर पुलिस (सीआईडी विंग) ने भी दर्ज किया था। उसने हुर्रियत से जुड़े संगठन साल्वेशन मूवमेंट के चीफ मोहम्मद अकबर भट सहित चार लोगों को गिरफ़्तार किया तो हुर्रियत द्वारा पाकिस्तानी संस्थानों की सीट बेचकर धन इकठ्ठा करने और टेरर फंडिंग की पुन: पुष्टि हो गई। उपराज्यपाल शासन के अधीन जम्मू-कश्मीर पुलिस की कार्य-क्षमता और कार्यकुशलता में भी गुणात्मक सुधार हुआ है। इससे पहले राज्य सरकारों के इशारे पर पुलिस अलगाववादियों की करतूतों के प्रति आंखें मींचे रहती थी।
आतंकियों की कमर पर वार
भारत की वर्तमान केंद्र सरकार का अलगाववादी संगठनों की नकेल कसना और आतंकवादी संगठनों की कमर तोड़ना स्वागतयोग्य है। अब इनके आर्थिक स्रोतों को सील कर दिया गया है। अनेक अलगाववादी जेल में हैं और आतंकवादी ‘जन्नत में हूरों के साथ’ हैं। इसी कड़ी में भाड़े के पत्थरबाजों और उपद्रवियों पर भी शिकंजा कसा जा रहा है। इस तरह की गतिविधियों में शामिल लोगों को पासपोर्ट और नौकरी हेतु पुलिस द्वारा ‘क्लीयरेंस’ नहीं दिया जायेगा। पाकिस्तान में ‘पढ़कर’ आये हुए भारत-विरोधी गतिविधियों में संलग्न सरकारी कर्मियों की भी जाँच-पड़ताल और विदाई की जा रही है। भारत सरकार की निर्णायक पहलकदमी से इन आतंकवादियों और अलगाववादियों के होश ठिकाने आ गए हैं। अलगाववादियों की हालत तो बहुत ही पस्त है। इसीलिए खुद की इच्छा और पाकिस्तान का बहुत दबाव होते हुए भी वे 5 अगस्त, 2019 के ऐतिहासिक निर्णय के विरोध में जरा भी चूं-चपड़ नहीं कर पाए। अगर कोई और समय होता तो ये आसमान को सिर पर उठा लेते और पूरी कश्मीर घाटी को आग का गोला या खून का कटोरा बना डालते। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में स्पष्ट भूमिका पाए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने उसके दोनों धड़ों पर अवैध गतिविधि निरोधक अधिनियम (यूएपीए) के तहत प्रतिबन्ध लगाने की सिफारिश की है। यह देर से ही सही पर दुरुस्त आने वाली बात है।
कश्मीर में शान्ति, समृद्धि, विकास और बदलाव के लिए ऐसी अक्षम्य राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों में संलिप्त संगठन पर प्रतिबन्ध और उसके आकाओं की गिरफ्तारी अत्यावश्यक है। इससे अलगाववादियों के नेटवर्क और हौसले को तोड़ने से आतंकवादियों की कब्र खोदने का काम आसान हो जाएगा।
(लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अधिष्ठाता, छात्र कल्याण हैं।)
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