अनूप भटनागर
न्यायाधीशों को डराने-धमकाने, हमले और अपशब्दों भरे संदेश भेजने की घटनाओं में वृद्धि हुई है। धनबाद जिले के न्यायाधीश न्यायमूर्ति उत्तम आनंद को दिनदहाड़े कुचलकर मारे जाने से सभी स्तब्ध हैं। देश के प्रधान न्यायाधीश न्यायालयों के अधिकारियों पर हमले को लेकर बहुत चिंतित हैं पर इस पर कार्रवाई करने वाली एजेंसियों का रवैया सख्त बनाने की जरूरत है। इसके मद्देनजर न्यायाधीशों की सुरक्षा के लिए विशेष सुरक्षा बल के गठन की मांग हो रही
गत दिनों धनबाद में न्यायाधीश उत्तम आनंद की हत्या दिनदहाड़े एक आॅटोरिक्शा से कुचल कर दी गई। इस घटना से न्यायपालिका के सदस्यों, विशेषकर जिला स्तर के न्यायाधीशों की सुरक्षा का मुद्दा सुर्खियों में आ गया है। न्यायपालिका के सदस्य पर इस तरह के दुस्साहसिक हमले से सभी स्तब्ध हैं।
देश के प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमण भले ही न्यायाधीशों की सुरक्षा को लेकर बहुत चिंतित हों लेकिन इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि कानून व्यवस्था और सुरक्षा राज्यों का विषय है और जिला स्तर पर न्यायाधीशों को समुचित सुरक्षा प्रदान करने में राज्य सरकारें विफल रहीं हैं। यही नहीं, यह आम चर्चा है कि न्यायाधीशों की सुरक्षा के खतरों का आकलन करने में स्थानीय स्तर पर गुप्तचर एजेंसियां भी सूचना एकत्र करने में विफल रहती हैं।
न्यायाधीशों की सुरक्षा
धनबाद अदालत के जिला एवं सत्र न्यायाधीश उत्तम आनंद की 28 जुलाई को आटोरिक्शा से कुचलकर कथित हत्या, पिछले साल अक्तूबर में औरंगाबाद जिले में जिला न्यायाधीश दिनेश कुमार प्रधान पर एक पुलिस अधिकारी द्वारा हमला, उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी में स्पेशल जज मोहम्मद अहमद खान पर हमला करने के प्रयास की घटनाएं कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो सफेदपोश और खतरनाक अपराधियों तथा माफिया गिरोहों से संपर्क रखने वाले व्यक्तियों के मामलों की सुनवाई कर रहे न्यायाधीशों की सुरक्षा के प्रति राज्य सरकारों की गंभीरता की पोल खोलते हैं।
यह सही है कि देश में न्यायाधीशों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से धमकाने या उन पर तरह-तरह के आक्षेप लगाने के साथ ही हमले की घटनाओं में तेजी से वृद्धि हो रही है। न्यायपालिका इस तरह की घटनाओं से काफी चिंतित है। इस चिंता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्यों में न्यायाधीशों और न्यायिक अधिकारियों की सुरक्षा के लिए विशेष सुरक्षा बल के गठन की मांग हो रही है।
राज्य सरकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने और न्यायाधीशों को निर्भय होकर अपना काम करने का माहौल प्रदान करने के लिए उन्हें समुचित सुरक्षा प्रदान करें। लेकिन हकीकत में ऐसा होता नहीं। इस समय तो कोरोना काल चल रहा है जिसकी वजह से अधिकांश मुकदमों की सुनवाई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से हो रही है। परंतु सामान्य दिनों में निचली अदालतों के गलियारों का नजारा बहुत कुछ बयां करता है। इनमें सुरक्षा व्यवस्था के प्रति उदासीनता साफ नजर आती है।
जिला स्तर पर न्यायाधीशों की सुरक्षा के मामले में काफी ढिलाई नजर आती है जबकि आपराधिक मामलों में आरोपियों की हिरासत की प्रक्रिया से लेकर उनकी जमानत और आरोपपत्र दाखिल होने और इसके बाद मुकदमों की सुनवाई के दौरान विचाराधीन कैदी और जमानत पर छूटे आरोपियों से निचली अदालत के न्यायाधीश और न्यायिक अधिकारी ही सबसे पहले रू-ब-रू होते हैं। कई बार तो अदालत में ही आरोपियों द्वारा न्यायाधीश पर हमले की घटनाएं सामने आ चुकी हैं।
न्यायालय से अपेक्षित राहत नहीं मिलने की स्थिति में अब तो सोशल मीडिया पर भी खुलेआम न्यायाधीशों के बारे में अभद्र और अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल होने लगा है। ऐसा करने वालों में आम जनता ही नहीं बल्कि अदालत के अधिकारी माने जाने वाले वकील भी शामिल हैं। ऐसा आचरण करने वाले शायद अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार को पूर्ण मानते हुए ही सोशल मीडिया पर यह सब कर रहे हैं या वे समझते हैं कि कौन, क्या कर लेगा।
हाल ही में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय और इसके न्यायाधीशों को लेकर राज्य में सत्तारूढ़ दल के सांसद और कार्यकर्ताओं ने बड़े पैमाने पर सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल किया था। इस तरह के मामलों में पुलिस और सीबीआई से कई शिकायतें भी की गर्इं थीं लेकिन इसका कोई नतीजा सामने नहीं आया था।
न्यायाधीशों को धमकी
शायद यही वजह है कि प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमण ने हाल ही में केंद्रीय जांच एजेंसी, गुप्तचर ब्यूरो और पुलिस के प्रति अपनी नाराजगी सार्वजनिक कर दी। न्यायपालिका के मुखिया ने न्यायाधीशों को धमकी और अपशब्दों वाले संदेश मिलने की घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि गुप्तचर ब्यूरो (आईबी) और सीबीआई न्यायपालिका की ‘‘बिल्कुल मदद नहीं’’ कर रही हैं और एक न्यायिक अधिकारी को ऐसी शिकायत करने की भी स्वतंत्रता नहीं है।
प्रधान न्यायाधीश ने इन मामलों के संदर्भ में अपनी पीड़ा व्यक्त करते समय यह कहने में भी संकोच नहीं किया कि गैंगस्टर और हाई-प्रोफाइल व्यक्तियों से जुड़े कई आपराधिक मामले हैं और कुछ स्थानों पर, निचली अदालत के साथ-साथ उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को न केवल शारीरिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी व्हाट्सएप या फेसबुक पर अपशब्दों वाले संदेशों के माध्यम से धमकी दी जा रही है।
शीर्ष अदालत ने इस मुद्दे को ‘गंभीर’ बताया और अटार्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल से कहा कि न्यायपालिका की मदद के लिए कुछ दिलचस्पी लेनी होगी। वेणुगोपाल ने इस विचार से सहमति व्यक्त की और कहा कि आपराधिक मामलों से निपटने वाले न्यायाधीश बहुत जोखिम में होते हैं और उनकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त उपाय होने चाहिए।
सीबीआई का रवैया
प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमण और न्यायमूर्ति सूर्यकांत की पीठ ने धनबाद के जिला न्यायाधीश उत्तम आनंद के दुखद निधन की घटना के बाद स्वत: संज्ञान लिये गए प्रकरण की सुनवाई के दौरान कहा, ‘‘एक या दो जगहों पर, अदालत ने सीबीआई जांच का आदेश दिया। यह कहते हुए बहुत दुख हो रहा है कि सीबीआई ने एक साल से अधिक समय में कुछ नहीं किया है। एक जगह, मैं जानता हूं, सीबीआई ने कुछ नहीं किया है। मुझे लगता है कि हमें उसके रवैये में कुछ बदलाव की उम्मीद थी लेकिन सीबीआई के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया है। मुझे यह कहते हुए खेद है, लेकिन यही स्थिति है।’’ पीठ ने अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल से कहा कि ऐसे कई मामले हैं जिनमें गैंगस्टर और हाई-प्रोफाइल व्यक्ति शामिल हैं और यदि उन्हें अदालत से उम्मीद के अनुरूप फैसला नहीं मिलता तो वे न्यायपालिका को छवि धूमिल करना शुरू कर देते हैं।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के संबंध में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। वाईएसआर कांग्रेस सरकार के कुछ निर्णयों पर उच्च न्यायालय के प्रतिकूल फैसले के बाद सोशल मीडिया पर न्यायपालिका और न्यायाधीशों के प्रति आपत्तिजनक टिप्पणियों की झड़ी लग गई थी।
यह एक संयोग ही है कि शीर्ष अदालत की तल्ख टिप्पणियों के बाद ही सीबीआई हरकत में आयी और उसने अगस्त के दूसरे सप्ताह में ही आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय और सर्वोच्च अदालत के न्यायाधीशों के बारे में कथित रूप से आपत्तिजनक विवरण पोस्ट करने के मामले में पांच व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया। सीबीआई इस मामले में वाईएसआर कांग्रेस के सांसद नंदीग्राम सुरेश और पूर्व विधायक अमांची कृष्ण मोहन की भूमिकाओं की भी जांच कर रही है।
धमकियों से ऊपरी न्यायालय भी अछूते नहीं पहले समझा जाता था कि इस तरह की घटनाएं सिर्फ निचली अदालतों तक सीमित हैं लेकिन ऐसा नहीं है। इस तरह की घटनाओं से उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय भी अछूते नहीं है। न्यायपालिका के सदस्यों पर इस तरह के हमलों और उन्हें धमकी देने या डराने की घटनाओं की कई वजह हो सकती हैं। इनमें प्रमुख कारण किसी मुकदमे विशेष की सुनवाई में आरोपी को जमानत मिलने में विलंब या अपेक्षित राहत नहीं मिलना तो होता ही है। ऐसी घटनाओं के तार कई बार भ्रष्टाचार और राजनीतिक बाहुबलियों की दबंगई से भी जुड़े होते हैं। ऐसे मामलों में भांति-भांति के माफिया गिरोहों और उनके साथ मिलकर दबंगई करने वाले वर्ग के लोगों की सांठगांठ से इनकार नहीं किया जा सकता। इतना ही नहीं, न्यायाधीशों को धमकाने या दूसरे हथकंडे अपनाने में भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में संलिप्त आरोपियों की भूमिका को भी संदेहास्पद होती है। जहां तक सीबीआई की कार्रवाई का संबंध है तो इस संदर्भ में न्यायाधीशों से संबंधित कुछ मामलों का उल्लेख किया जा सकता है।
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार
इस कड़ी में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय की न्यायाधीश निर्मल यादव से जुड़ें प्रकरण को रखा जा सकता है। इस मामले में अगस्त, 2008 को न्यायमूर्ति कौर के आवास पर कोई व्यक्ति 15 लाख की धनराशि से भरा बैग पहुंचा गया था। न्यायमूर्ति निर्मलजीत कौर ने इस मामले में पुलिस बुलाई और मामला सीबीआई को सौंपा दिया गया। सीबीआई का दावा था कि यह धन दिल्ली के एक कारोबारी रविन्दर सिंह ने अधिवक्ता संजीव बंसल को दिया था जिन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि इस पैसे को उनके क्लर्क के माध्यम से न्यायमूर्ति यादव के यहां भेज दें लेकिन गलती से वह न्यायमूर्ति निर्मलजीत कौर के आवास पर पहुंच गया। इस मामले ने काफी तूल पकड़ा। यह घटना न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार और अपेक्षित राहत प्राप्त करने के प्रयास के हथकंडे को ही दर्शाती है।
दिल्ली की तीस हजारी अदालत के परिसर में सीनियर सिविल न्यायाधीश रचना तिवारी लखनपाल का मामला भी कमोबेश इसी श्रेणी में है। सीबीआई ने इस न्यायाधीश को उनके पति और एक वकील के साथ रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार किया था। जांच एजेंसी ने उनके आवास से 94 लाख रुपये की नकदी बरामद करने का भी दावा किया था।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश एस.एन. शुक्ला के खिलाफ भी भ्रष्टाचार का मामला था। लेकिन इसमें लंबे समय तक कार्रवाही नहीं हुई। लेकिन बाद में जुलाई 2019 में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने सीबीआई को न्यायमूर्ति शुक्ल के खिलाफ मामला दर्ज करने की अनुमति दे दी थी। मेडिकल कॉलेज में कथित तौर पर पक्ष लेने से संबंधित भ्रष्टाचार के इस मामले में सीबीआई ने दिसंबर 2019 में उनके आवास पर लखनऊ में छापा मारा था। इस मामले में न्यायमूर्ति शुक्ला के साथ ही छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश आई.एम. कुद्दूसी भी नामजद थे।
बिहार के न्यायाधीश का मामला
न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश राकेश कुमार का यहां जिक्र करना अनुचित नहीं होगा। न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने 28 अगस्त, 2019 को करोड़ों रुपये के बिहार महादलित विकास मिशन घोटाले में पूर्व आईएएस अधिकारी के.पी. रमैया की अग्रिम जमानत अर्जी का निस्तारण किया था। इस कार्रवाही के दौरान ही अदालत ने दैनिक जागरण में प्रकाशित एक खबर का संज्ञान लिया जिसमें कहा गया था कि निचली अदालत में रमैया के समर्पण के दिन विशेष न्यायाधीश (सतर्कता) अवकाश पर चले गए और इसके बाद रमैया ने समर्पण किया और उसी दिन न्यायाधीश ने जमानत दे दी। न्यायमूर्ति कुमार ने सीबीआई को अधीनस्थ न्यायपालिका में व्याप्त कथित भ्रष्टाचार की जांच करने का आदेश भी दिया था।
यही नहीं, न्यायमूर्ति कुमार ने पटना के जिला न्यायाधीश को यह पता लगाने का भी निर्देश दिया था कि क्या उस दिन नियमित सतर्कता न्यायाधीश वास्तव में किसी वजह से अवकाश पर थे या फिर उन्होंने रमैया को जमानत दिये जाने वाले दिन जानबूझ कर छुट्टी ली थी।
सारे घटनाक्रम को देखते हुए न्यायमूर्ति राकेश कुमार ने रमैया को जमानत देने के मामले की गहराई से जांच करने की बात महसूस की। उन्होंने अपने आदेश में पटना की दीवानी अदालत परिसर में अनधिकृत तरीके से रिश्वत लेने और देने का कारोबार फलने-फूलने के बारे में रिपब्लिक टीवी के एक स्टिंग आॅपरेशन का भी जिक्र किया। उनका यह आदेश न्यायपालिका की स्थिति के बारे में काफी कुछ बयां करता है क्योंकि इस घटना के चंद दिन बाद ही उनका तबादला आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में कर दिया गया था। न्यायमूर्ति कुमार ने अपने आदेश में यह भी लिखा था कि पटना उच्च न्यायालय में भ्रष्टाचार एक सर्वविदित तथ्य है। उन्होंने लिखा कि यह सर्वविदित तथ्य है कि चारा घोटाला के दौर में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ न्यायाधीश ने अपनी पत्नी को राज्यसभा का सदस्य मनोनीत कराया। बात यहीं खत्म नहीं हुई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ही एक अन्य न्यायाधीश ने एक आरोपी को जमानत दी और इस आरोपी की जमानत याचिका की सुनवाई कर रहे न्यायमूर्ति अखिलेश चंद्र्रा के चैंबर में आरोपी की जमानत का रिकॉर्ड रखा था।
न्यायमूर्ति कुमार के इस आदेश पर बाद में पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ए.पी. शाही की अध्यक्षता में 11 न्यायाधीशों की पीठ ने इस आदेश को निलंबित करने के साथ ही न्यायमूर्ति कुमार से सारा न्यायिक कार्य ले लिया था। यह अलग बात है कि इसके कुछ समय बाद ही न्यायमूर्ति कुमार का तबादला आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय में कर दिया गया जहां उन्होंने अपने फैसले में वाईएस जगनमोहन रेड्डी सरकार के विरुद्ध शब्दों में अपना फैसला सुनाया था।
धमकी देने वालों पर कार्रवाई हो
न्यायाधीशों पर हमले की बढ़ती घटनाएं और ऐसे मामलों की तेजी से जांच करने, दोषियों को सजा दिलाने में अत्यधिक विलंब और न्यायाधीशों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान नहीं किये जाने पर न्यायपालिका के मुखिया प्रधान न्यायाधीश की चिंता समझ में आती है। अक्सर यह देखा गया है कि न्यायाधीशों पर हमले या उनके साथ दुर्व्यवहार की घटनाओं की जांच को पूरा करने में पुलिस ही नहीं बल्कि केन्द्र्रीय जांच एजेन्सियां भी काफी समय लेती है। इसके बाद मामला अदालत में पहुंचता है जहां फैसला होने में बहुत ज्यादा वक्त लगता है।
न्यायपालिका के मुखिया प्रधान न्यायाधीश पर हमले की पहली घटना 20 मार्च, 1975 को हुई थी। इस वारदात में तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश ए.एन. राय जब कार से उच्चतम न्यायालय से बाहर निकले तो उनकी गाड़ी पर दो बम फेंके गए थे लेकिन वे हमले में बच गए थे। इस मामले में निचली अदालत ने एक नवंबर 1976 को अपने फैसले में संतोषानंद अवधूत, सुदेवानंद अवधूत और उनके वकील रंजन द्विवेदी को दोषी करार दिया था। इसके खिलाफ अपील पर दिल्ली उच्च न्यायालय ने अगस्त, 2014 में अपना निर्णय सुनाया था।
कोलकाता के न्यायमूर्ति कौशिक चंदा का मामला
न्यायाधीशों को डराने-धमकाने या फिर उन पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के संबंध में कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति कौशिक चंदा का मामला एकदम ताजा है। यह मामला भाजपा के शुभेन्दु अधिकारी के निर्वाचन को चुनौती देने वाली तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी से संबंधित है। ममता बनर्जी की याचिका न्यायमूर्ति चंदा के समक्ष सूचीबद्ध थी। ममता बनर्जी ने कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखकर इस मामले को किसी अन्य पीठ को सौंपने का अनुरोध करते हुए दावा किया था कि न्यायमूर्ति चंदा 2015 में भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल नियुक्त किये जाने तक भाजपा के सक्रिय सदस्य थे और चूंकि भाजपा के एक उम्मीदवार के निर्वाचन को चुनौती दी गई है, इसलिए फैसले में उनके पूर्वाग्रहग्रस्त होने की आशंका है। यह आवेदन प्रत्यक्ष रूप से न्यायमूर्ति चंदा की निष्ठा पर सवाल उठा रहा था। हालांकि न्यायमूर्ति चंदा इस मामले की सुनवाई से खुद हट गए लेकिन उन्होंने इस आवेदन पर अपने आदेश में ममता बनर्जी पर अनर्गल आरोप लगाने के कारण पांच लाख रुपये का जुर्माना भी किया।
जहां तक न्यायाधीशों को डराने, धमकाने और उनके साथ दुर्व्यवहार करने का सवाल है तो इस संबंध में वरिष्ठ अधिवक्ता मिश्रा प्रकरण का उल्लेख अनुचित नहीं होगा। इस मामले में विनय चंद्र मिश्र ने नौ मार्च 1994 को न्यायाधीश एसके कोशेटे को उनका तबादला कराने या फिर संसद में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पेश कराने की धमकी देने के साथ ही अदालत कक्ष में उनका बुरी तरह अपमान किया था। इस मामले में शीर्ष अदालत ने कठोर रुख अपनाया और अंतत 10 मार्च, 1995 को अपने फैसले में अवमाननाकर्ता विनय चंद्र मिश्र को न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करने और अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल कर न्यायाधीश को धमकी देने के लिए न्यायालय की आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराते हुए उन्हें सजा सुनाई थी।
सख्त कार्रवाई की आवश्यकता
देश की न्यायपालिका की स्वतंत्रता और न्यायाधीशों की सुरक्षा सुनिश्चित करने लिए जरूरी है कि राज्य सरकारें इस ओर अधिक गंभीरता से ध्यान दें और यह सुनिश्चित करें कि राज्यों में जिला स्तर पर न्यायाधीशों तथा न्यायिक अधिकारियों को कोई भी व्यक्ति या संस्था डराने-धमकाने का साहस नहीं कर सके। राज्य सरकारों को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि सोशल मीडिया और व्हाट्सऐप के माध्यम से न्यायाधीशों को डराने-धमकाने का प्रयास करने वाले तत्वों के खिलाफ तेजी से सख्त कार्रवाई हो। ऐसा करना हमारे लोकतंत्र, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और त्वरित तथा निष्पक्ष रूप से न्याय के लिए आवश्यक है।
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