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स्वाधीनता के यज्ञ में दक्षिण भारत की अनाम आहुति

by WEB DESK
Aug 17, 2021, 03:58 pm IST
in दिल्ली
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    अल्लूरी श्रीरामाराजू।


 जिस समय उत्तर भारत में स्वातंत्र्य समर चरम पर था, उसके समांतर दक्षिण भारत में भी हर वर्ग के स्वतंत्रता सेनानी स्थान-स्थान पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध मोर्चा ले रहे थे और अपना-अपना बलिदान दे रहे थे। कहीं कलेक्टर को गोलीमार कर स्वतंत्रता सेनानी ने खुद की कनपटी पर गोली मार ली तो कहीं अंग्रेजों ने एक हजार स्वतंत्रता सेनानियों को एकसाथ बरगद के पेड़ पर लटका दिया।


सुदेश गौड़

स्वराज व स्वाधीनता के लिए देश के हर भाग में कसमसाहट थी जो धीरे-धीरे आग का रूप ले रही थी। शेष भारत की तरह दक्षिण भारत भी स्वाधीनता व स्वराज के लिए उतावला हो रहा था। आजादी के मतवाले अपने प्राणों की परवाह किए बगैर अंग्रेजों के आततायी शासन के विरुद्ध लोहा लेने को निकल रहे थे। ऐसे में उन्हें नेतृत्व देने के लिए उन्हीं में से नेताओं का प्रादुर्भाव हुआ। उनमें से ऐसे अनेक व्यक्तित्व हैं जिनके योगदान के बारे में आज भी देश के लोग खासकर युवा न के बराबर जानते हैं।

आंध्र की रम्पा क्रांति
ऐसे ही एक अनाम बलिदानी थे आंध्र प्रदेश के अल्लूरी श्रीरामाराजू। अल्लूरी श्रीरामाराजू उर्फ़ अल्लूरी सीतारामाराजू क्षत्रिय समुदाय से थे। वे बाल संन्यासी के रूप में संस्कृत पढ़ने बनारस गए थे जहां वेदान्त और योग में उनकी रुचि जागृत हो गई। वापस लौट कर उन्होंने विशाखापट्टनम के आसपास के इलाकों में आदिवासियों को संगठित किया। उनका यह संगठन तत्कालीन उप-तहसीलदार और अन्य राजस्व अधिकारियों के खिलाफ था। उनके नेतृत्व में कई पुलिस स्टेशनों पर आदिवासियों ने हमला किया था और पुलिस से हथियार और गोला बारूद भी छीने थे। अल्लूरी गुरिल्ला युद्ध के जानकार थे और रणनीतिकार भी। उन्होंने गवर्नमेंट रिजर्व पुलिस के कई ठिकानों पर घात लगाकर हमला किया था जिसमें दो ब्रिटिश अधिकारी स्काट और हाइटर मारे गए थे। उस हमले के बाद उन्हें भारतीय वीरता का प्रतिमान मान लिया गया था। उनका मानना था कि असली ताकत उसी में होती है जो दुश्मन को पहले चेतावनी देता है, फिर हमला करता है। इतिहास में उनके द्वारा की गई कार्रवाइयों को रम्पा क्रांति के नाम से जाना जाता है। रम्पा विद्रोह अगस्त 1922 में शुरू हुआ और मई 1924 में राजू के पकड़े जाने और तत्पश्चात मृत्यु तक चला था। राजू एक करिश्माई, मिथक-निर्माण करने वाला भटकता हुआ संन्यासी था। आदिवासी मानते थे कि उनके पास जादुई क्षमताएं हैं और उन्हें एक मसीहा की मान्यता प्राप्त थी। ब्रिटिश सरकार ने राजू की गिरफ्तारी के लिए उस वक्त 10,000 रुपये का इनाम घोषित किया था। राजू को गिरफ्तार न कर पाने से क्षुब्ध होकर पुलिस ने आदिवासियों को सताना शुरू कर दिया था। आदिवासियों को बचाने व न्याय की उम्मीद में राजू ने समर्पण कर दिया था। लेकिन अंग्रेज पुलिस ने 7 मई, 1924 को धोखे से गोली मार कर उनकी हत्या कर दी और उनके शव को खाट से बांधकर जुलूस निकाल यह दावा किया कि राजू की मौत के साथ विद्रोह पूरी तरह दबा दिया गया।

 

तेलंगाना का खोपड़ियों वाला पेड़
तेलंगाना के वर्तमान आदिलाबाद जिले के आदिवासी क्षेत्रों पर रामजी गोंड ने पेशवा के मातहत एक गोंड प्रमुख के रूप में शासन किया था। उसके शासन क्षेत्र में निर्मल, उत्नूर, चेन्नूरु और आसिफाबाद, नागपुर, चांद और बस्तर जिले के कुछ क्षेत्र शामिल थे। रामजी गोंड ने गोंड राज्य की रक्षा के लिए ब्रिटिश शासन के खिलाफ छापामार अभियान छेड़ा था। हैदराबाद के निजाम गोंड साम्राज्य पर कब्जा करना चाहते थे। रामजी ने निजाम के सैनिकों के खिलाफ हथियार उठा लिए थे। उसकी सेना में शामिल रोहिल्ला और गोंड सैनिकों ने निजाम आसफ जहां पंचन की सेना को हरा दिया। बाद में, कुछ ब्रिटिश सैनिकों ने गोंड साम्राज्य में अवैध रूप से प्रवेश किया और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया तो रामजी गोंड ने इन सैनिकों को मार डाला। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें काबू करने के लिए कर्नल रॉबर्ट को नियुक्त किया। एक दिन कर्नल रॉबर्ट को सूचना मिली कि रामजी गोंड आदिलाबाद के निर्मल गांव में हैं। उसने निजामी सेना की मदद से रामजी पर हमलाकर उन्हें1000 सैनिकों समेत पकड़ लिया। 9 अप्रैल, 1857 को निर्मल गांव में रामजी गोंड और उनके 1,000 साथियों समेत बरगद के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया गया। जलियांवाला बाग से भी क्रूर और निर्मम यह नरसंहार इतना बड़ा था कि इस बरगद का नाम ही वेय्यी पुरेला चेत्तू (खोपड़ियों वाला पेड़) पड़ गया।

 

तमिलनाडु के चंद्रशेखर आजाद- वांचीनाथन
वांचीनाथन का जन्म 1886 में सेनगोट्टई में रघुपति अय्यर और रुक्मणी अम्मल के घर हुआ था।  उन्होंने पोन्नमल से शादी की और एक आकर्षक सरकारी नौकरी में भी आ गए थे पर देश के लिए कुछ करने को उतावले थे। 17 जून, 1911 को 25 वर्षीय वांची ने तिरुनेलवेली के जिला कलेक्टर रॉबर्ट ऐश, जो कलेक्टर दोराई के नाम से भी चर्चित थे, की हत्या कर दी। उसने ऐश को पॉइंट-ब्लैंक रेंज पर उस वक्त गोली मार दी थी जब उनकी ट्रेन मद्रास के रास्ते में मनियाची स्टेशन पर रुकी थी। इसके बाद पकड़े जाने से बचने के लिए उन्होंने खुद को भी गोली मार ली थी। तब से इस रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर वांची मनियाची कर दिया गया है।

17 जून, 1911 को,कलेक्टर ऐश कोडाईकनाल जाने के लिए तिरुनेलवेली जंक्शन पर सुबह 9:30 बजे मनियाची मेल पर सवार हुए। उनके साथ उनकी पत्नी मैरी लिलियन पैटरसन भी थीं। वांचीनाथन गोली मारने के बाद भागकर एक शौचालय में छिप गए। कुछ देर बाद वे वहां मृत पाए गए। बाद में पता चला कि उन्होंने खुद ही अपने मुंह में गोली मार ली थी। उनके पास से बरामद पिस्तौल खाली थी। उन्होंने ऐश को मारने के बाद खुद को मारने की योजना पहले से ही बना रखी थी और ऐश के अलावा किसी और को चोट पहुंचाने का कोई इरादा नहीं था। उनकी जेब से मिले पत्र से पता चला कि वे ‘इंग्लैंड के म्लेच्छों’ के भारत पर शासन से काफी नाराज थे क्योंकि वे सनातन धर्म को निरंतर हानि पहुंचा रहे थे। उन्होंने उस खत में लिख था कि हर भारतीय चाहता है कि अंग्रेजों को भारत से बाहर किया जाए ताकि हमें स्वराज मिल सके।इसी दिशा में यह मेरा योगदान है।

कर्नाटक के संगोली रायण्णा, गोरिल्ला युद्ध से खूब छकाया

संगोली रायण्णा (15 अगस्त, 1798-26 जनवरी, 1831) कर्नाटक के स्वतन्त्रता सेनानी एवं योद्धा थे। वे रानी चेन्नम्मा के शासन में कित्तूर साम्राज्य के सेना प्रमुख थे और मृत्युपर्यंत ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से लड़ते रहे। सांगोली रेयना कुरुबा जनजाति, सांगोली गांव में पैदा हुए थे। उन्होंने 1824 के विद्रोह में भाग लिया और अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और बाद में रिहा कर दिया लेकिन उन्होंने अंग्रेजों से लड़ना जारी रखा। उन्होंने स्थानीय लोगों को संगठित किया, सेना बनाई और अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध शुरू किया और अंग्रेज सैनिकों को छकाते हुए अनेक सरकारी कार्यालयों को जला दिया, उनके सैनिकों पर घात लगाकर हमले किए, कई बार ब्रिटिश खजाने को लूट लिया। ब्रिटिश सैनिक खुले युद्ध में उन्हें पराजित नहीं कर सके इसलिए वे विश्वासघात से अप्रैल 1830 में पकड़े गए और अंग्रेजों ने मृत्यु की सजा सुनाई। 26 जनवरी 1831 को बेलगावी जिले के नंदागढ़ से 4 किलोमीटर दूर एक बरगद के पेड़ से  लटकाकर रायण्णा को मार डाला गया था।

त्रावणकोर के विलय के लिए परमेश्वरन का बलिदान

केरल के अलपुझा जिले के परमेश्वरन आसारी पेशे से बढ़ई थे। उन्होंने सर सीपी रामास्वामी अय्यर के त्रावणकोर को भारतीय संघ में शामिल न करने के प्रस्ताव के खिलाफ जमकर आंदोलन किया था। सर सीपी रामास्वामी अय्यर ने अंग्रेजों की शह पर त्रावणकोर को भारतीय संघ में शामिल न करते हुए एक स्वतंत्र देश बनाने के लिए संवैधानिक सुधारों का प्रस्ताव रखा था। सीपी के इस विघटनकारी प्रस्ताव को त्रावणकोर के लिए 'अमेरिकी मॉडल' के नाम से जाना जाता है। त्रावणकोर की जनता ने इस कदम का विरोध 'ब्रिटिश एजेंटों को अरब सागर में डुबोने' के नारे के साथ किया था।

    दक्षिण भारतीय राज्य त्रावणकोर भारत में विलय से इनकार करने वाली रियासतों का अगुआ था। त्रावणकोर रियासत के दीवान और वकील सर सीपी रामास्वामी अय्यर ने 1946 में ही साफ कर दिया था कि वह इस मसले पर अपने विकल्प खुले रखेंगे। इतिहासकार रामचंद्र गुहा के अनुसार त्रावणकोर के इस रवैये के पीछे मोहम्मद अली जिन्ना की प्रेरणा काम कर रही थी। सीपी अय्यर ने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से एक गुप्त समझौता किया था, जिसके एवज में ब्रिटिश उनकी मांग का समर्थन करने वाले थे। ब्रिटिश खनिज पदार्थों से संपन्न त्रावणकोर राज्य पर अपना परोक्ष नियंत्रण बनाए रखना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने सीपी को सामने कर रखा था।

    जब अमेरिकन मॉडल के खिलाफ होने वाले आंदोलन को दबाने व आंदोलनकारियों के परिजनों को सताने के लिए पुनापरा क्षेत्र में 24 अक्टूबर 1946 को अस्थाई पुलिस चौकी बनाई जा रही थी तो उसका जमकर विरोध हुआ और लोगों ने चौकी को उखाड़ फेंका। इस आंदोलन में परमेश्वरन ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। पुलिस ने आंदोलनकारियों पर फायरिंग की जिसमें आसारी बलिदान हो गए।

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