मृदुल त्यागी
कांग्रेस सरकार को जैसे ही ये पता चला तो मुख्यमंत्री पंत ने आजाद की माता जी की मूर्ति को देश, समाज और कानून-व्यवस्था के लिए खतरा घोषित कर दिया. मूर्ति स्थापना के कार्यक्रम को प्रतिबंधित करके पूरे झांसी शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया. पुलिस तैनात कर दी गई, जिससे कहीं भी मूर्ति स्थापना न हो सके.
वो चंदू की मां थी. जी हां, चंद्रशेखर आजाद की मां जगरानी देवी. बहुत कम लोग जानते हैं, इस कहानी को. उस पूज्य मां ने अपना बेटा देश पर बलिदान कर दिया. चंद्रशेखर आजाद की मुखबिरी किसने की, एक गहरे शोध का विषय हो सकता है. आजाद के पोते सुजीत का आरोप है कि चंद्रशेखर आजाद की मुखबिरी जवाहरलाल नेहरू ने की थी. बहरहाल, आजाद के जाने के बाद जगरानी देवी का क्या हुआ. उस बलिदानी की मां दाने-दाने को मोहताज हो गईं. जंगल से लकड़ी बीनती थीं. कभी सत्तू, कभी बाजरे और कभी किसी अनाज का घोल बनाकर पीती रहीं. गांव ने, समाज ने और कांग्रेस ने एक बलिदानी की मां को ये दिया. इससे भी दुखद. देहांत के बाद लोग जागे और उनकी प्रतिमा लगाने की तैयारी कर ली गई. कांग्रेस की तत्कालीन राज्य सरकार ने प्रतिमा नहीं लगाने दी. इसके लिए बाकायदा कर्फ्यू लगाया गया, लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया.
हम बात उस चंद्रशेखर आजाद की कर रहे हैं, जिसने अंग्रेजों को नाको चने चबवा दिए. वो आजाद जो हर तरह से आजाद थे. जिसने आखिरी गोली बचने तक अंग्रेजों से मुकाबला किया. और चूंकि वह आजाद था, बंदी बनकर नहीं रह सकता था, इसलिए उसने आखिरी गोली खुद को मार कर बलिदान दे दिया. उस बलिदान को हम हर साल नमन करते हैं, लेकिन बच्चा-बच्चा आजाद को जानता है. उस बच्चे को ये जानना जरूरी है कि उनकी माता का मौत के बाद क्या हुआ. आजाद के पिता सीताराम और माता जी मध्य प्रदेश के झाबुआ के एक गांव में रह रहे थे. तभी आजाद ने अपने भरोसेमंद दोस्त सदाशिव से उनकी मुलाकात कराई थी. तभी आजाद ने सदाशिव से कहा था कि मेरे बाद मेरे माता-पिता का ध्यान रखना. आजाद के बलिदान के बाद सदाशिव तो जेल चले गए और गांव में रह गए उनके मां-बाप. फिर हुआ यातना का दौर. पिता तो चल बसे, लेकिन जगरानी रह गईं. पूरे गांव ने उनका हुक्का-पानी बंद कर दिया. उन्हें डकैत की मां बोलते, तो वह पलटकर जवाब देतीं, मेरा चंदू इस देश के लिए कुर्बान हुआ है. खैर देश आजाद हुआ. सदाशिव जेल से आजाद हुए.
सदाशिव आजाद के माता-पिता को ढूंढते हुए उनके गांव पहुंच गए. यह वह दौर था, जब कमरे में बैठकर देश को बांट लेने वाले ऊंची कुर्सियों पर बैठ चुके थे. हर कांग्रेसी को उपकृत किया जा रहा था. लेकिन सदाशिव जगरानी देवी की हालत देखकर हैरान रह गए. खुद उन्होंने बताया था कि आजाद के पिता की मृत्यु तो उनके बलिदान के कुछ दिन बाद ही हो गई थी. आजाद के भाई की मृत्यु उनसे पहले हो चुकी थी. आजाद की मां अकेली रह गई थीं. बेहद करीब. गांव के बहिष्कार में जीती हुई. हिम्मत न हारी. जंगल से लकड़ियां बीनकर, बेचकर पेट पालना शुरू किया. वह कभी ज्वार, तो कभी बाजरा खरीदकर उसका घोल बनाकर पी लेतीं. दाल, चावल या गेहूं तो उन्होंने सालों से नहीं खाया था. आजाद भारत में आजाद की मां की ये दशा देखकर सदाशिव से न रहा गया. सदाशिव उन्हें अपने साथ 1949 में झांसी ले आए. मार्च 1951 में उनका देहावसान हुआ. सदाशिव ने अपनी मां की तरह अपने हाथों से बड़ागांव गेट के पास श्मशान में उनका अंतिम संस्कार किया.
तब तक देश और झांसी जगरानी देवी को जान चुकी थी. आजाद की कहानी बच्चे-बच्चे तक पहुंच चुकी थी. झांसी की जनता ने तय किया कि आजाद की माता का एक स्मारक बनाया जाए. उस समय प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत थे. कांग्रेस के यह डीएनए में है कि एक परिवार के अलावा उन्हें किसी का सम्मान, स्मारक बर्दाश्त नहीं है. प्रदेश सरकार ने स्मारक को अवैध और गैर-कानूनी घोषित कर दिया. लेकिन झांसी की जनता न मानी. तय हुआ कि जगरानी देवी की प्रतिमा लगाई जाएगी. आजाद के करीबी सहयोगी शिल्पकार रुद्र नारायण सिंह ने ये जिम्मेदारी ली. फोटो की मदद से आजाद की माता जी की प्रतिमा तैयार हो गई.
कांग्रेस सरकार को जैसे ही ये पता चला तो मुख्यमंत्री पंत ने आजाद की माता जी की मूर्ति को देश, समाज और कानून-व्यवस्था के लिए खतरा घोषित कर दिया. मूर्ति स्थापना के कार्यक्रम को प्रतिबंधित करके पूरे झांसी शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया. पुलिस तैनात कर दी गई, जिससे कहीं भी मूर्ति स्थापना न हो सके.
कर्फ्यू के बाद भी जनता का काफिला न रुका. सदाशिव आजाद की माताजी की मूर्ति सिर पर रखकर निकल पड़े. उन्हें गोली मारने का आदेश जारी कर दिया. लेकिन हजारों लोगों ने सदाशिव को घेर लिया. इसके बाद पुलिस ने बड़ी बेरहमी से लाठीचार्ज किया. इस लाठीचार्ज में हजारों लोग जख्मी हुए. और इस तरह कांग्रेस ने एक अमर बलिदानी की महान मां को सम्मान से वंचित कर दिया.
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