प्रोफेसर भगवती प्रकाश
वैश्विक वित्तीय तंत्र में शामिल विभिन्न वैश्विक वित्तीय संस्थाएं अपने-आप में एकांगी सोच वाली और अलोकतांत्रिक हैं। ये आज की आर्थिक चुनौतियों की दृष्टि से भी सर्वथा अप्रासंगिक हैं। डब्ल्यूटीओ के अधिकांश बहुपक्षीय व्यापार समझौते विकासशील देशों व विश्व मानवता के हितों के विरुद्ध और उनके हितों की कीमत पर औद्योगिक देशों व उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों के पोषक हैं। इन वैश्विक वित्तीय संस्थाओं की पुनर्रचना समय की मांग
वैश्विक वित्तीय तंत्र के अंगों में प्रमुख, अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष व विश्व बैंक का, 1944 में यूरो-अमेरिकी देशों की पहल पर आयोजित 43 देशों की एक बैठक में गठन हुआ था। द्वितीय विश्वयुद्ध की संक्रमणकालीन परिस्थितियों में निर्मित इन संस्थाओं की संगठन संरचना, पूंजी अनुपात, इनके निदेशकों व प्रमुखों के चयन की प्रक्रिया आदि सभी एकांगी हैं एवं आज की आर्थिक चुनौतियों की दृष्टि से सर्वथा अप्रासंगिक हो चुकी हैं। इसमें विश्व बैंक के अध्यक्ष का चयन अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय मुद्र्रा कोष (आईएमएफ) के प्रबंध निदेशक का चयन यूरोप द्वारा किया जाना सर्वथा अलोकतांत्रिक है। आज इनके प्रमुखों के चयन में अमेरिका व यूरोप के ऐसे एकाधिकार का कोई औचित्य नहीं है।
वैश्विक वित्तीय तंत्र का तीसरा घटक विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) तो 1995 में अपने गठन के पूर्व से ही अपना आधार रहे विवादास्पद डंकेल प्रस्तावों के समय अर्थात् 1989 से ही विवादित है। डंकेल प्रस्तावों का तब विश्वभर में भारी विरोध हुआ था। आज भी डब्ल्यूटीओ के अधिकांश बहुपक्षीय समझौते अंतरराष्ट्रीय व्यापार विवादों के कारण बोझ बने हुए हैं। भारत में चावल की सरकारी खरीद में अनुदान के अंश में आंशिक वृद्धि तक के लिए 2018-19 व 2019-20 के शान्ति प्रावधान या पीस क्लाज का सहारा लेना पड़ा है। डब्ल्यूटीओ के ही ट्रिप्स, ट्रिम्स, गेट व कृषि संबंधी समझौतों सहित सभी बहुपक्षीय व्यापार समझौते बहुतांश में विकासशील देशों व विश्व मानवता के हितों के विरुद्ध और उनके हितों की कीमत पर औद्योगिक देशों व उनकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों का पोषण करते हैं। इसी प्रकार वैश्विक वित्तीय तंत्र के ही अंगों—यथा फाइनेंशियल स्टेबिलिटी बोर्ड व बेसल के बैंकिंग मानकों की अपनी समस्याएं हैं।
अन्य घटक
वैश्विक वित्तीय तंत्र के अंतर्गत, ‘वित्तीय स्थायित्व बोर्ड’ अर्थात् फाइनेन्शियल स्टेबिलिटी बोर्ड का तो कोई विधिक अस्तित्व ही नहीं है और यह मात्र 65 देशों की अनौपचारिक व्यवस्था है। बेसल के बैंक संबंधी नियमनों के प्रावधान विवादपूर्ण व असमंजसकारी हैं। एशियाई विकास बैंक सहित क्षेत्रीय विकास बैंकों का भी पुनर्गठन आवश्यक है। इसके अतिरिक्त विगत दस वर्ष में चीन द्वारा श्रीलंका, कम्बोडिया, जीबूती आदि लगभग 75 से अधिक देशों को अनुचित व अपारदर्शी शर्तों पर ऋण देकर उनकी अवसंरचनाओं पर कब्जा किया गया है अथवा किए जाने का इरादा है। और ऐसा वैश्विक वित्तीय तंत्र के विविध विकासशील देशों की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्त्ति नहीं कर पाने से ही हुआ है।
आमूल परिवर्तन व पुनर्रचना आवश्यक
आज मुद्रा कोष, विश्व बैंक के साथ सभी क्षेत्रीय विकास बैंकों की पुनर्रचना परम आवश्यक है। डब्ल्यूटीओ के गैट -1994, कृषि संबंधी समझौते, ट्रिप्स व ट्रिम्स सहित सभी बहुपक्षीय व्यापार समझौतों को निरस्त कर, आवश्यकतानुसार उन्हें ऐसे प्रावधानों से विस्थापित किया जाना होगा, जो संबंधित देशों और उनके आर्थिक विकास व लोकहित की प्राथमिकताओं के अनुरूप हों। सभी देशों की वर्तमान व भावी वित्तीय आवश्यकताओं, उनके व्यापार व भुगतान संतुलन को बनाए रखने एवं उनकी विनिमय दरों में समन्वय आदि के लिए तर्कसंगत व समतामूलक वित्तीय तंत्र विकसित किए जाने की आवश्यकता है। आज हो रहे आर्थिक संकुचन के बाद, अब विश्व की सभी अर्थव्यवस्थाएं, संतुलित व समावेशी विकास के मार्ग पर आगे बढ़ सकें, इस हेतु उचित पारिस्थितिकी तंत्र का विकास करने में सक्षम वैश्विक वित्तीय तंत्र को विकसित किया जाना अपेक्षित है।
आज जब कोरोना के उपरान्त, सभी देशों की अर्थव्यवस्था गम्भीर आर्थिक संकुचन, रोजगार क्षरण और आय व राजस्व में गिरावट की शिकार हैं, तो ऐसे में अर्थव्यवस्थाओं में संतुलित पुनर्बहाली एवं समावेशी विकास की खातिर और इसके साथ ही संसाधनों के सृजन, वित्तीय तरलता, विदेशी विनिमय संतुलन आदि के लिए वैश्विक वित्तीय तंत्र की पुनर्रचना अनिवार्य हो गई है। आज विश्व के प्रत्येक देश में उत्पादन वृद्धि, रोजगार सृजन, व्यापार संतुलन, भुगतान संतुलन, समष्टिगत, राजकोषीय व तकनीकी स्वावलंबन महत्वपूर्ण है।
ब्रेटन वुड्स संस्थानों की अप्रासंगिकता
ब्रेटन वुड्स संस्थान अर्थात् विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्र्रा कोष जुलाई 1944 में अमेरिका में ब्रेटन वुड्स, न्यू हैम्पशायर में 43 देशों की एक बैठक में बनाए गए थे। दोनों ही आज सर्वथा अप्रासंगिक हो चुके हैं। तब इन संस्थानों का उद्देश्य मात्र, विश्वयुद्ध से ध्वस्त व बिखरी हुई यूरो-अमेरिकी अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण में सहायता करना और यूरो-अमेरिकी देशों में अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देना था। ब्रेटन वुड्स समझौते में अंतरराष्ट्रीय व्यापार संगठन (आईटीओ) के गठन की योजना भी थी जिसके प्रस्ताव का, बाद में, अमेरिका ही विरोध करने लग गया था। वस्तुत: अमेरिका 1990 के दशक के मध्य में डब्ल्यूटीओ के गठन तक आईटीओ का विरोध ही करता रहा है, जबकि वह प्रस्ताव भी उसका ही था। द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत में विश्व बैंक और आईएमएफ का निर्माण भी केवल तीन लोगों, अमेरिकी ट्रेजरी सचिव हेनरी मोर्गन्थाऊ, उनके मुख्य आर्थिक सलाहकार हैरी डेक्सटर व्हाइट और ब्रिटिश अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड कीन्स के सीमित सोच के आधार पर हुआ था। इसलिए ये दोनों ही संस्थाएं वैश्विक आर्थिक संबंधों के क्षेत्र में समस्त विश्व के लिए एकतरफा निर्णय लेने और एकांगी यूरो-अमेरिकी हित साधन का माध्यम बन गई थीं। वस्तुत: विगत 77 वर्ष में ये संस्थाएंं वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के संचालन में यूरो-अमेरिकी मित्र देशों, विशेषत: अमेरिका और ब्रिटेन के नेताओं के वर्चस्व का माध्यम रही हैं।
उद्देश्यों से भटकाव
ये दोनों ही संस्थाएं—अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष व विश्व बैंक अब अपने संकुचित मूल उद्देश्य से भी भटक गई हैं। इसकी स्थापना के समय सैद्धांतिक रूप से यह तय हुआ था कि आईएमएफ अपने सदस्य देशों को मौद्रिक नीतियों में सामंजस्य लाने और विनिमय दरों में स्थिरता के साथ अंतरराष्ट्रीय व्यापार व भुगतान संतुलन के लिए एक सुस्थिर वातावरण तैयार करेगा। यह उन सभी देशों को अस्थायी वित्तीय सहायता भी प्रदान करेगा, जो कदाचित कभी अपने भुगतान संतुलन में कुसमायोजन व कठिनाइयों का सामना करेंगे।
दूसरी ओर, विश्व बैंक, पुनर्निर्माण और विकास परियोजनाओं के लिए युद्ध से ध्वस्त गरीब देशों को धन उधार देकर इन देशों की व्यापार करने की क्षमता में सुधार करने का काम करेगा। लेकिन, कालान्तर में विशेषकर 1980 व 1990 के दशक में ये दोनों संगठन विकासशील देशों में औद्योगिक देशों की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के इस प्रकार हित साधन के माध्यम बन गये थे कि विकासशील देशों के उद्योगों, व्यापार-वाणिज्य व सम्पूर्ण वित्तीय व अन्य सेवाओं पर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का नियन्त्रण होता चला गया। इस सबका रहस्योद्घाटन अनेक ख्यातनाम अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ विश्व बैंक के पूर्व उपाध्यक्ष और विश्व बैंक एवं और अमेरिकी राष्ट्रपति के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहाकार रहे नोबेल पुरस्कार विजेता जोसेफ ई स्टिग्लिट्ज तक कर चुके हैं।
वैश्विक आर्थिक संकटों के दौर में पूरी तरह अक्षम
वैश्विक आर्थिक क्षरण अर्थात् 2008 के ग्लोबल मेल्टडाउन व उसके पूर्ववर्ती कई प्रमुख वैश्विक आर्थिक संकटों का पूर्वानुमान, उन्हें टालने या उससे प्रभावित देशों को सहज संकटमुक्त करने में, ये दोनों ही ब्रटेनवुड्स संस्थाएं 1980 के दशक से ही विफल रहीं हैं। 1982 के अंतरराष्ट्रीय ऋण संकट के समय से ही अनेक देशों में इनके जरिए लागू कराये गए संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम अत्यन्त विवादास्पद रहे हैं। अमेरिका ने 2008 के मेल्टडाउन से उबरने के लिए स्वयं ही 20 खरब डॉलर का क्वांटिटेटिन ईजिंग के माध्यम से मुद्रा प्रसार बढ़ाकर स्वयं को उबारा था।
विभेदपूर्ण पूंजी अनुपात
भारत आज क्रय क्षमता साम्य के आधार पर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और नॉमिनल सकल घरेलू उत्पाद की दृष्टि से विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। लेकिन, अ. मुद्र्रा कोष की पूंजी में भारत का अंश मात्र 2.76 प्रतिशत व उसमें भारत के मतों का अनुपात मात्र 2.64 प्रतिशत ही होने से यह आठवें स्थान पर आता है। मुद्र्रा कोष में सर्वोच्च हिस्सा पूंजी और मतानुपात अमेरिका का क्रमश: 17.46 प्रतिशत व 16.52 प्रतिशत है, जिससे ऐसे सभी प्रमुख निर्णयों, जिनमें 85 प्रतिशत बहुमत आवश्यक होता है, अमेरिकी वीटो बना रहता है।
यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि 1944 में इन दोनों संस्थाओं—मुद्र्रा कोष व विश्व बैंक की स्थापना के अवसर पर भारत पांच-पांच प्रतिशत अंश पूंजी के साथ उसके पांच सबसे बड़े अंशधारकों में एक था। मुद्र्रा कोष की इस पूंजी को ‘कोटा’ कहा जाता है और भारत उसके 5 शीर्ष पूंजीधारक या कोटा होल्डर देशों में एक था। इस कारण इसके 5 स्थायी निदेशकों में एक निदेशक भारत का भी होता था। हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपने समाजवादी पूर्वाग्रहों के कारण जब स्वाधीनता के बाद निजी निवेश को बाधित कर बड़े पैमाने पर सार्वजानिक क्षेत्र की स्थापना के लिए 1949 में विश्व बैंक से ऋण लिया था तब, विश्व बैंक की ऋण देने की शर्तों के अधीन भारत को रुपये का अवमूल्यन कर उसकी कीमत 3.50 रुपये प्रति डॉलर से घटाकर 4.76 रुपये करनी पड़ी थी। इस अवमूल्यन के कारण ही हमारी इन संस्थाओं में निवेशित पूंजी का मूल्य गिर गया और उससे हमारी स्थिति कमजोर हुई एवं दोनों संस्थानों में हमारा वह एक-एक स्थायी निदेशक पद भी छिन गया। भारत को मुद्रा कोष की शर्तों के अधीन 1991 में भी रुपये का जुलाई 1 व 3, 1991 को कुल मिलाकर 21 प्रतिशत अवमूल्यन करना पड़ा।
बहुपक्षीय व्यापार समझौते: एमएनसी के हितसाधक
डब्ल्यूटीओ की एक यह विशेषता तो अच्छी कही जा सकती है कि,उसमें प्रति देश का एक ही मत होता है और किसी भी देश का वीटो नहीं है। लेकिन, इसके सारे प्रमुख समझौते बहुराष्ट्रीय कंपनियों को एकतरफा लाभ पहुंचाने वाले हैं। वस्तुत: 1989 में आर्थर डंकेल द्वारा प्रस्तावित, 1994 में हस्ताक्षरित और 1 जनवरी, 1995 से प्रभावी डब्ल्यूटीओ के अधिकांश बहुपक्षीय व्यापार समझौते सर्वथा दोषपूर्ण हैं। इसके निर्माण के समय से एवं परवर्ती काल में हस्ताक्षरित बहुपक्षीय व्यापार समझौतों में से आज अधिकांश केवल औद्योगिक देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ पहुंचाने वाले एवं विकासशील देशों के उद्योग, व्यापार, वाणिज्य व लोक कल्याण को प्रतिकूल रूप में प्रभावित करनेवाले एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हित साधक हैं। उदाहरणार्थ — प्रशुल्क व व्यापार विषयक सामान्य समझौता-1994 (गैट-1994) अन्य बातों के साथ-साथ सदस्य देशों व उनकी सरकारों के इस संप्रभु अधिकार को निषिद्ध करता है कि वे अपने यहां किसी वस्तु के आयात व निर्यात पर कोई नियन्त्रण लागू करें। भारत को तो 2001 में उस पर चले एक विवाद में, डब्ल्यूटीओ के विवाद निवारण तंत्र के एक निर्णय पर 700 वस्तुओं पर से मात्रात्मक प्रतिबंध हटा कर उनका आयात खोलना पड़ा। वस्तुत: लघु उद्योगों के लिए आरक्षित, इन सभी उत्पादों का आयात खोलने से सरकारों को शनै:-शनै: लघु उद्योगों के लिए आरक्षित 1049 उद्योग वर्गों का आरक्षण भी समाप्त करना पड़ा है। गैट 1994 के साथ ही उसके पूर्व मुद्रा कोष के 1991 से थोपे गए सुधारों के समय 1991-92 में भारत का विदेश व्यापार घाटा मात्र 1.6 अरब डॉलर ही था, जो 2019-20 में सौ गुना बढ़ कर 160 अरब डॉलर हो गया। इस बढ़े हुए घाटे के कारण ही रुपये-डॉलर की विनिमय दर जो 1991 में 18 रुपये थी, आज गिरकर 75 रुपये तुल्य हो गई है। उस पुरानी दर की दशा में हमें 100 डॉलर के किसी भी आयात के लिए मात्र 1,800 रुपये भुगतान करना होता था। आज रुपये के मूल्य में गिरावट से उसी 100 डालर मूल्य के आयात का हमें 7500 रुपये का भुगतान करना होता है।
इसी प्रकार डब्ल्यूटीओ का ‘कृषि पर समझौता’ अन्य कई बातों के साथ-साथ भारत में खाद्यान्न के समर्थन मूल्य व खाद्यान्न की सरकारी खरीद पर देय कृषि अनुदानों पर अंकुश लगाता है। इसमें 1986-88 के मूल्य स्तर को आधार मानकर अनुदान गणना किया जाना सर्वथा अन्यायपूर्ण है। इसी क्रम में डब्ल्यूटीओ के निवेश संबंधी उपायों का समझौता, जिसे एग्रीमेण्ट आॅन ट्रिम्स कहते हैं, भी देश में उत्पादित वस्तुओं में घरेलू साज-सामान के उपयोग की प्राथमिकता की केन्द्र सरकार की नीति को बाधित करता है। मनमोहन सिंह सरकार तो चाहकर एवं ऐसा नीति प्रारूप बना लेने के बाद भी इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों के उत्पादन में स्थानीय आदायों के उपयोग की अनिवार्यता के प्रावधान लागू नहीं कर सकी थी। इस नीति को सरकार तब डब्ल्यूटीओ के एग्रीमेण्ट आॅन ट्रिम्स के कारण ही लागू नहीं कर पाई थी। वर्तमान नरेन्द्र मोदी सरकार ने इन ट्रिम्स के प्रावधानों की सर्वथा अनदेखी कर, देशहित में ‘स्थानीय सामग्री उपयोग नियम’ अर्थात ‘लोकल कण्टेण्ट रूल्स’ लागू कर एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है।
डब्ल्यूटीओ के बौद्धिक सम्पदा अधिकार संबंधी समझौते को लेकर विशेषत: पेटेंट के मुद्दे पर तो 2001 से कई बार विकसित व विकासशील देशों में टकराव की स्थिति बनती रही है। हाल ही में कोविड-19 के टीकों व औषधियों को पेटेंट मुक्त किए जाने के भारत के प्रस्ताव पर, अक्तूबर 2020 से ही गतिरोध बना हुआ है। इस प्रस्ताव को 120 देशों का समर्थन होने से 5 मई, 2021 को अमेरिका को भी सहमति देनी पड़ी है। लेकिन, अभी भी मानवीयता की अनदेखी कर यूरोपीयन कमीशन ने इसे टेक्स्ट बेस्ड नेगोशिएशंस में उलझा रखा है। ट्रिप्स के अंतर्गत किसी प्रथम आविष्कारक को 20 वर्ष के लिए सम्पूर्ण विश्व की 786 करोड़ जनसंख्या के विरुद्ध पेटेण्ट के माध्यम से एकाधिकार प्रदान किया जाना मानवीयता के सर्वथा विरुद्ध व अन्यायपूर्ण है। ऐसी ही विवादास्पद स्थिति, डब्ल्यूटीओ के अन्य लगभग सभी 60 बहुपक्षीय व्यापार समझौतों के संबंध में है। अतएव विश्व व्यापार संगठन के इन अधिकांश समझौतों को निरस्त किया जाना आवश्यक है।
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