कमलेश कमल की फेसबुक वॉल से
कई अध्ययनों में सामने आया है कि स्वीकृति और प्रशंसा पाने की चाह के साथ आत्ममुग्धता भी व्यक्ति को आभासी पटल पर कुछ अधिक समय तक रोके रखती है। ऐसे में इस आभासी दुनिया में कुछ ट्रेंड करे, तो वह छूट न जाए, यह भाव आना सहज ही है। जरूरत है इसके पीछे के सच को समझने एवं मानसिक रूप से सबल होने की
क्या आप भी हरदम यह पता करते हैं कि ट्विटर पर क्या ट्रेंड कर रहा है या फेसबुक पर किस खास मुद्दे पर लोग पोस्ट और कमेंट कर रहे हैं? क्या आपके कुछ परिचित या मित्र हर मुद्दे पर अपनी राय रखते रहते हैं? अगर जवाब हां है, तो यह आभासी-प्रतिक्रियावाद है, जो किसी रचनात्मक समाज के लिए शुभ-संकेत नहीं है।
मनोवैज्ञानिक रूप से ‘क्या ट्रेंड कर रहा है’ का पीछा कर व्यक्ति सोशल मीडिया पर भी स्वीकृति तलाशता है।
दरअसल, कोई भी बीतते हुए समय से पीछे नहीं छूटना चाहता। यह आवश्यक नहीं कि आपको दुनिया में ट्रेंड कर रही हर बात का पता चले। ट्रेंड का पीछा करने वाले कभी ‘ट्रेंडसेटर’ नहीं होते। यह ठीक ऐसा ही है, जैसे घंटों अखबार पढ़ने वाले या टेलीविजन की खबरें घोंट-घोंट कर पीने वाले खबरें नहीं बनाते। बेस्टसेलर किताब ‘व्हाई यू शुड स्टॉप रीडिंग न्यूजपेपर’ इस विषय की गहराई से पड़ताल करती है कि सफल लोग क्यों अखबार या टेलीविजन के सामने समय नहीं बिताते।
देखा गया है कि अधिकतर सफल लोग एक्टिव या प्रो-एक्टिव होते हैं एवं कुछ रचनात्मक कार्य करते हैं। दूसरे शब्दों में, वे सकारात्मक कार्यों में लगे रहते हैं। वे जानते हैं कि समाचार एवं सूचनाओं के अतिभार से उनकी बौद्धिक ऊर्जा क्षरित हो जाती है।
बौद्धिक व्यक्ति अंग्रेजी की उक्ति kyou can’t create and socialize at the same timel यानी ‘आप एक साथ रचनात्मक और सामाजिक नहीं हो सकते’ में विश्वास रखते हैं। वे मानते हैं कि किसी ट्रेंड पर प्रतिक्रिया देते जाना रचनात्मक ऊर्जा का अपव्यय है। किसी ने किसी कंपनी के ‘लोगो’ पर कुछ कहा, किसी ने किसी ‘परिधान’ पर, तो किसी ने किसी नेता पर… लोग सुपरसोनिक रफ्तार से उस विषय पर पोस्ट करने लगते हैं। जिन्हें उस खबर की सूचना नहीं, उसे सर्च कर उस विषय पर लिखने लगते हैं। जो ऐसे विषयों पर नहीं लिखते, वे भी इस ताक में रहते हैं कि जल्दी अपनी राय दे दी जाए। जैसे जिन्हें इन विषयों की खबर नहीं, वे पिछड़े या कम बौद्धिक हैं।
तथ्यात्मक रूप से ट्रेंड कर रहे विषयों पर लिखना आसान होता है, क्योंकि उस पर बहुत-से लोग लिख रहे होते हैं। कुछ बदलावों के साथ उन्हें अपने शब्दों में पिरोना होता है। नए और जटिल विषयों पर सोचना या लिखना अधिक मानसिक उद्यम की मांग करता है। मनोवैज्ञानिक रूप से यह नकल की मानसिकता है, जो कदाचित् सुदूर पूर्वज बंदरों से मानव में आई है। यह भीड़ से पीछे छूट जाने का उसका आदिम डर भी है। kodd man out' होने की कमजोर मानसिकता ही लोगों से ट्रेंड का पीछा करवाती है। जो स्थापित लोग हैं, उनमें यह आत्मविश्वास होता है कि लोग उनके साथ हैं। वे ट्रेंड की परवाह नहीं करते, बल्कि अपने समय का सकारात्मक उपयोग करते हैं। कहा भी गया है ‘लीक छांड़ि तिनहिं चले- शायर, सिंह, सपूत।’ इसके विपरीत, जिनके जीवन में खालीपन होता है या जिन्होंने कुछ बड़ा नहीं किया, वे हर समय ‘सोशली एक्टिव मोड’ में रहते हैं। कोई विषय छूट न जाए, इसके लिए व्यग्र रहते हैं।
आखिर ट्रेंड का पीछा करने से क्या मिलता है? आपको इस मुद्दे का पता है, इससे अधिक निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। हां, गौर किया जाए तो सोशल मीडिया की ट्रेंड फॉलोइंग शेयर मार्केट की ट्रेंड फॉलोइंग से इस अर्थ में समानता रखती है कि दोनों जगह बाद में फॉलोवर्स पहले ट्रेंड सेट करने वालों को लाभ देते हैं। साथ ही, ट्रेंड सेटर्स की हमेशा ही यह कोशिश रहती है कि उसके पीछे फॉलोवर्स की एक विवेकहीन भीड़ आए, जिनका अपना व्यक्तित्व गौण रहे। इससे मुफीद स्थिति उनके लिए कुछ हो ही नहीं सकती। दूसरी तरफ, ट्रेंड फॉलोअर्स जिनका समर्थन करते हैं या जिनको फॉलो करते हैं, उनकी जीत को अपनी जीत मान कर खुश हो जाते हैं। वे यह भी मान लेते हैं कि भविष्य में कभी वे भी ट्रेंड सेट करेंगे।
ऐसा भी नहीं है कि हर कोई हर ट्रेंड का पीछा करता है। इसमें भी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का महत्वपूर्ण स्थान होता है। यह कुछ ऐसा है, जैसे क्रिकेट के शौकीन पहले से आखिरी ओवर तक देख लेंगे, मैच के पहले और मैच के बाद का कार्यक्रम देखेंगे और फिर अगले दिन अखबार में उसे ढूंढ कर पढ़ेंगे, लेकिन संभव है कि उनको टेनिस या निशानेबाजी की किसी बड़ी प्रतियोगिता की खबर भी न हो। यह विषय विशेष से अत्यधिक लगाव को अवश्य दिखाता है, लेकिन मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि इस तरह की संलिप्तता व्यक्ति को तात्कालिक रूप से व्यस्त रखकर या कुछ सुख देकर उनकी रचनात्मक ऊर्जा को सोख लेती है। वास्तविकता यह है कि अगर क्रिकेट की दुनिया में नाम कमाना है, तो घंटों टीवी के सामने नहीं, बल्कि मैदान में 22 गज की पट्टी पर समय बिताना होगा। ऐसा हर कोई नहीं कर सकता, जबकि टीवी के सामने कोई भी घंटों बिता सकता है। जाहिर है, अधिकतर लोग आसान विकल्प ही चुनते हैं।
बहरहाल, सोशल मीडिया के प्रभावों पर बहुत से अध्ययन होते रहे हैं। कई अध्ययनों में यह सामने आया है कि स्वीकृति और प्रशंसा पाने की चाह के साथ-साथ आत्ममुग्धता भी व्यक्ति को आभासी पटल पर सामान्य से अधिक समय तक रोके रखती है। ऐसे में इस आभासी दुनिया में कुछ ट्रेंड करे, तो वह छूट न जाए, यह भाव आना सहज ही है। कोशिश हो इसके पीछे की सच्चाई को समझने एवं मानसिक रूप से सबल होने की। कहीं ऐसा न हो कि कुछ सकारात्मक करने की जगह हम बस आभासी-प्रतिक्रियाजीवी बनकर रह जाएं।
ध्यातव्य है कि व्यक्तित्व विकास की तमाम पुस्तकें इस पर केंद्रित हैं कि हमें किसी की नकल या अनुकरण करने की जगह अपना स्टाइल बनाना चाहिए। इसके विपरीत व्यावहारिक दुनिया में सुबह उठने से लेकर रात को सोने से पहले तक कई लोग इस ख्याल में व्यस्त रहते हैं कि सोशल-मीडिया में क्या चल रहा है या आभासी संसार में वे कहां खड़े हैं। लोग उसे कितना पसंद या नापसंद करते हैं। गीता की शब्दावली में यह कर्म से अधिक फल में यकीन रखना है।
कड़वी सच्चाई है कि आत्मछवि को गढ़ने से अधिक प्रशंसित होने का सुख पाने को उद्यत पीढ़ी एक अदद लाइक के लिए अधीर दिखती है। इस पीढ़ी का प्रतिनिधि युवा स्वयं को जितना पसंद करता है, उससे अधिक इसकी परवाह करता है कि लोग उसकी तस्वीर को कितना पसंद कर रहे हैं।
तात्विक रूप से देखें, तो झुंड की मानसिकता या pack mentality असुरक्षित मन की पहचान होती है। वह उसी में कूद पड़ता है, जो चल रहा है। अंधानुकरण की यह प्रवृत्ति याlemmings mentality व्यक्ति को खोखला बना देती है। उसके अंदर आलोचना-समालोचना की शक्ति समाप्त हो जाती है और सोशल मीडिया की ही तरह वह वास्तविक जीवन में भी पसंद या नापसंद के द्वैत में सोचने लगता है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि वास्तविक दुनिया में किसी भी चीज के कई पहलू होते हैं। वहां नाम या पसंद कमाना सोशल मीडिया की तुलना में अत्यंत कठिन होता है। शायद यही कारण है कि सोशल मीडिया पर 5,000 दोस्त बनाने वाले कई लोग असल जिंदगी में 5 अदद दोस्तों के लिए तरस जाते हैं।
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